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अरविंद कुमार मिश्रा: दुर्भाग्य से पिछले कई दशकों से महिला आरक्षण विधेयक देश के राजनीतिक परिदृश्य में विमर्श का मुद्दा नहीं बन पा रहा है। जाहिर है, लैंगिक समानता की इस ठोस कवायद के लिए न सिर्फ सभी राजनीतिक दलों को, बल्कि जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा।
विकास को समावेशी आवरण देने में महिलाओं की भूमिका सबसे अहम होती है। सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण प्रत्यक्ष रूप से लैंगिक समानता से अंतर-संबंधित है। हमारे यहां महिलाओं को वैदिक काल से शक्ति का स्रोत माना गया है। महिलाओं ने सामाजिक, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र से लेकर विज्ञान तक में अपनी काबिलियत साबित की है।
मानव संसाधन किसी भी राष्ट्र के सशक्तिकरण का प्रतीक होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए भावी नीतियों के निर्माण और योजनाओं को गति देने में महिलाओं की भूमिका को अहमियत दी जा रही है। इसका एक मकसद अर्थव्यवस्था को टिकाऊ स्वरूप देना भी है। यह अर्थ तंत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से ही संभव होगा।
कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था की उत्पादकता से है। सामाजिक न्याय का कोई भी प्रयास महिलाओं की आत्मनिर्भरता से ही सुदृढ़ होता है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी लैंगिक भेद सूचकांक (जीजीआई-2020) में भारत एक सौ बारहवें पायदान पर है, जबकि 2018 में यह स्थान एक सौ आठवां था। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार देश में महिला श्रमबल की भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) 23.3 फीसद है।
श्रम क्षेत्र में महिला कार्यबल की भागीदारी कम होने के प्रभावों को लेकर विश्व बैंक की एक रिपोर्ट हमें आगाह करती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत के श्रमक्षेत्र में 2019 में महिलाओं का अनुपात 20.3 फीसद था। यह पड़ोसी देश बांग्लादेश के 30.5 और श्रीलंका के 33.7 फीसद से काफी कम है। आर्थिक मंदी हो या फिर कोरोना जैसी आपदा, इनका सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ा।
गौरतलब है कि मार्च-अप्रैल 2020 में लगभग डेढ़ करोड़ महिलाओं को अपना रोजगार गंवाना पड़ा था, जो कुल महिला कार्यबल का सैंतीस फीसद था। ऐसे में हमें महिला सशक्तिकरण के प्रयासों को नए सिरे से प्रभावी बनाना होगा। तभी हम लैंगिक असमानता खत्म कर हम महिलाओं को आगे ला सकते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आधी आबादी की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने का कोई भी जतन शिक्षा के जरिए ही पूरा होगा। इसके लिए होने वाले बजटीय आवंटन के समय लैंगिक संवेदनशीलता को वरीयता देनी होगी। इससे राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के उद्देश्यों को भी हासिल किया जा सकेगा। हमारे यहां स्कूलों में पुन: नामांकन, उपस्थिति आदि के तथ्यों में पारदर्शिता का नितांत अभाव बड़ी चुनौती है।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार 2018-19 में उच्च माध्यमिक स्तर पर पढ़ाई छोड़ने वाली छात्राओं की दर 17.3 फीसद रही। प्राथमिक स्तर पर यह 4.74 फीसद रही। कर्नाटक, असम, बिहार, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा में लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की दर सबसे अधिक है। कोरोना महामारी ने छात्राओं और स्कूलों के बीच की दूरी को और बढ़ा दिया।
श्रम बाजार की जरूरतों के अनुसार महिलाओं को शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। कौशल विकास के नाम पर अब भी हम सिलाई, कढ़ाई और बुनाई से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। महिलाओं का एक बड़ा अनुपात असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग तिरसठ फीसद खेती-बाड़ी के काम में लगी हैं। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में महिलाओं की चुनौतियों का परिदृश्य अलग है।
2011 के जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार जब करियर बनाने का समय आता है, उस समय अधिकांश लड़कियों की शादी हो जाती है। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है। यह पाया गया है कि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी, तो पारिवारिक जिम्मेदारियों व अन्य कारणों से पुन: श्रमबल का हिस्सा बनना कठिन होता है।
शिक्षा के प्राथमिक स्तर से लेकर रोजगार केंद्रित नीतियों में उद्योग जगत की जरूरत को ध्यान में रखना जरूरी है। इसका एक समाधान तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित (वैज्ञानिकी) विषयों के अध्ययन के लिए महिलाओं के प्रोत्साहन के रूप में भी देखा जाता है। देश में उच्च शिक्षा अर्जित करने वाली महिलाओं का अनुपात बढ़ रहा है। लेकिन विज्ञान व नवाचार से जुड़े विषयों में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व काफी कम है। स्कूली स्तर पर हैकथान कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर शोध व समस्या समाधान के प्रति छात्राओं में नवोन्मेषी दृष्टिकोण विकसित करना होगा।
आज रोजगार के अधिकांश अवसर सूचना व प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में हैं। इस क्षेत्र में उद्यमशिलता के बिना महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ाई जा सकती है। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआइएसएचई) 2019-20 के अनुसार भारत का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 27.1 फीसद हो गया। 2018-19 में यह 26.3 फीसद था। इस दशक के अंत तक पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए हमें जीईआर को पचास फीसद के स्तर पर ले जाना होगा।
महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाओं व पोषण की उपलब्धता उनके सशक्तिकरण का एक अनिवार्य कारक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशियाई देशों में भारतीय महिलाओं की स्वस्थ जीवन प्रत्याशा सबसे कम है। दरअसल महिला सशक्तिकरण के उपायों को एकांगी रूप में नहीं आगे बढ़ाया जा सकता है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च कुल बजट का 3.4 फीसद है, जबकि भूटान 7.7, नेपाल 4.6 फीसद बजट स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं। इसका सीधा संबंध गरीबी के रूप में सामने आता है।
लैंगिक समानता के लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए नीति निर्धारण प्रक्रिया में महिलाओं की मौजूदगी बढ़ानी होगी। महिलाओं को लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में तैंतीस फीसद आरक्षण की मांग पर राजनीतिक दलों की उदासीनता किसी से छिपी नहीं है। विश्व लैंगिक भेद रिपोर्ट-2021 के अनुसार राजनीतिक सशक्तिकरण सूचकांक में भारत का प्रदर्शन लगातार कमजोर हो रहा है।
संसद में महिला प्रतिनिधित्व को लेकर इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन (आइपीयू) द्वारा जारी एक आंकड़े के अनुसार एक सौ तिरानवे देशों में भारत एक सौ अड़तालीसवें स्थान पर आता है। सत्रहवीं लोकसभा में अठहत्तर महिला सांसद निर्वाचित हुर्इं। 2014 के लोकसभा चुनाव में बासठ महिलाओं ने जीत दर्ज की थी। महिलाओं का प्रतिनिधित्व लोकसभा में बढ़ रहा है, लेकिन अनुपात अब भी बहुत कम है। 1951 में हुए पहले लोकसभा में पांच फीसद महिला उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, जबकि साल 2019 की सत्रहवीं लोकसभा में यह बढ़ कर चौदह फीसद हो गया।
दुर्भाग्य से पिछले कई दशकों से महिला आरक्षण विधेयक देश के राजनीतिक परिदृश्य में विमर्श का मुद्दा नहीं बन पा रहा है। जाहिर है, लैंगिक समानता की इस ठोस कवायद के लिए न सिर्फ सभी राजनीतिक दलों को बल्कि जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा। जबकि देश में लगभग बीस राज्यों ने महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था में पचास फीसद का आरक्षण दिया है। ग्रामीण स्तर पर सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में इसके असर को देखा जा सकता है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 में पहली बार देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक होने का निष्कर्ष प्रोत्साहित करने वाला है। इसका श्रेय महिला सशक्तिकरण के लिए वित्तीय समावेश और लैंगिक पूर्वाग्रह तथा असमानताओं से निपटने के उपायों को जाता है। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे सामाजिक अभियानों से छात्राओं के पढ़ाई छोड़ने की दर में कमी आई है। लैंगिक समानता के प्रयासों के क्रम में लड़कियों के विवाह की उम्र को 18 से 21 किया जाना एक महत्वपूर्ण फैसला है। नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता का एक प्रभावी उपक्रम जेंडर बजटिंग भी है।
इसके अतंर्गत महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों को बजटीय आवंटन, महिला संवेदी कार्यक्रमों को प्रोत्साहन व नीतिगत प्रतिबद्धता प्रमुख है। देश में लैंगिक समानता की सबसे बड़ी बाधा महिलाओं की सोच पर एकाधिकार की पुरुषवादी प्रवृतियां भी हैं। सरकार व प्रशासनिक नीतियों को महिलाओं के लिए संवेदनशील तभी बनाया जा सकता है, जब समाज की साझा सोच आधी आबादी को लेकर संवेदनशील होगी।