सम्पादकीय

गीता डोगरा ने कविता के काज़ल से लिखीं कविताएं

Gulabi
25 Oct 2021 3:09 AM GMT
गीता डोगरा ने कविता के काज़ल से लिखीं कविताएं
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काज़ल से लिखीं कविताएं

कविता संग्रह: बारिश घर, लेखिका : डा. गीता डोगरा

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य: 250 रुपए

यहां कविता हुनर की पताका बनकर उड़ती है, घुंघरुओं की तरह लय में है, तो एडि़यों की रगड़ में घायल होते रहने का संघर्ष बताता है कि यही रीत है और यही इसके जन्म के विपरीत खड़ी हवाओं को गूंथने का मकसद जब बन जाता है, तो कोई कवयित्री अपनी ही संवेदना के कैनवास पर खुद को हाजिर करती है। सफेद पन्नों के आर-पार होती कविता जब आंसुओं से सराबोर होती ही, तो परिवेश की आंखों से बहता हुआ काजल जो लिख पाता है, उसे पढ़ना ही कविता का गढ़ना है। इसलिए डा. गीता डोगरा का कविता संग्रह 'बारिश घर' पूरी तरह सना हुआ और मिट्टी की सौंधी खुशबू में पला हुआ महसूस होता है। बारिश कितनी कच्ची-कितनी सच्ची, कौन जान पाया। यह रिश्ते निभाने की एक ऐसी यात्रा है, जिसके साथ डा. गीता डोगरा अपनी 49 कविताओं को प्रकृति के पालने में बैठाकर खुद से साक्षात्कार कराती हैं, 'कोई नहीं था- मैं उस भीगे मौसम में, रह गई थी अकेली…।' प्यासे बादलों की तरह नारी जीवन की विडंबना हर बार किसी बहाने जन्म लेती है और तब कविता पूछती है, 'तुम्हें तो तुम्हारे हिस्से की…प्यास मिली थी, जो तुमने बांट दी।

इतनी बंटी कि…नदी-नाले भर गए, आदमी के बहने लगे रैन बसेरे भी।' कवयित्री ने जीवन के हर पल, संवेदनाओं के हर घर और मानसिक संवेग के हर ़फर को करीने से सजा कर रखा है, तो दुनिया से अलहदा बस्ती में कुछ कविताएं केवल महसूस की जा सकती हैं, महीन स्पर्श की तरह, 'थोड़ी सी प्यास…रख लेना, ताकि अगली बार…मिलने की तमन्ना को जी सकूं। मिलेंगे अगली बार तो पूछेंगे, जिंदगी से…जिंदगी के मायने। अगर तेरे और मेरे…मिलने के बीच बरसात आ जाए, तो रख लेना…उसकी एक बूंद…अपने होठों पर, मेरे पीने के लिए।' इश्क, मोहब्बत, प्रेम या प्यार को ऋतु बनाती कविताओं की मुस्कुराहट, आहट, या ठिठोलियां पाठक का आंगन भर देती हैं, लेकिन इनके मर्म में मौसम के बिगड़ते मिजाज और दामन में आंधियां जब सिसकती हैं, 'मेरे इश्क के जख्म तो देख…कितने दर्दनाक हैं, कि आसमां भी भर आता है। उन बादलों का रुदन…झेलती है धरती…मैंने तो तेरे नेह में, खुद को कत्ल कर दिया।' 'बारिश घर' किताब अपने भीतर कई परिदृश्य जोड़ते हुए इनसानी उधेड़बुन के छोर पर खड़ी रहती है, पलकों से निहारती हुई हर मूड का स्पंदन करती है।

बादलों के साथ बादलों की रफ्तार में जमीन पर घूमते सायों के भीतर हर दम विषय टटोलती कविताएं कभी नदी सरीखी, तो कभी झरना बन जाती हैं। कभी बारिश में भीगी हुई कोयल की तरह, तो कभी किसी इंद्रधनुष से चस्पां माहौल की मस्ती में इतराती हैं। कविता कभी अपनी ही शिकायत की पोटली खोलती है, 'पिछली रात/जब मुंडेर पर/मैं लिख रही थी/किस्मत अपनी/लिख रही थी..मुहब्बत का अफसाना/तभी बारिश आई, और बहा ले गई…मुहब्बत भरे लफ्ज भी।' डा. रीता डोगरा ने अंतर्मन से संवाद करते हुए यथार्थ के करीब बहुत कुछ पूछा है, 'सोचते हैं…छत जब ज्यादा चूने लगेगी, तो पास के…बरगद के नीचे जा बैठंेगे। एक पेड़ ही सही, इनसान से तो…ज्यादा ही काम आएगा।' कविताएं मानव दृष्टि से आंख मिला कर अपनी ही कोख में पलते आक्रोश, विषाद और जीवन के हर लहजे में उत्पन्न होती विडंबनाओं का बोझ उठाती हैं। यहां कविता कभी मां, कभी बहन, कभी बहू, तो कभी औरत सरीखी हो जाती है, 'एक दिन मैं…लड़की से औरत बन गई। घर बदला, माहौल बदला, संरक्षक बदले। अब मैं रहती हूं…रसोई घर में, दिन से रात तक…पिसते-घिसते कटोरियां गलास।' 'बारिश घर' अपने भीतर एक मनोविज्ञान भाव पैदा करने का हुनर है और मन व मंच की तपिश में पिघलते अल्फाज, 'कई बार, सूरज को ढकेलते हैं बादल। इतना ढांपते हैं कि…खोजने पर भी, नहीं मिलता सूरज।' इसलिए कविता के भीतर युग के संबोधन रोशनी छोड़ जाते हैं, 'अब मैं जला रही हूं…शब्दों के दीये, वे भी जलते रहेंगे…युगों युगों तक…।'

-निर्मल असो
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