सम्पादकीय

चक्रव्यूह का प्रवेशद्वार टूटा: अब पश्चिमी कश्मीर के विकास की बारी

Gulabi
5 Aug 2021 4:39 PM GMT
चक्रव्यूह का प्रवेशद्वार टूटा: अब पश्चिमी कश्मीर के विकास की बारी
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चक्रव्यूह का प्रवेशद्वार टूटा

आर विक्रम सिंह। अनुच्छेद 370 व 35 ए का हटना तो ऐसा था, जैसे कि चक्रव्यूह का प्रवेशद्वार तोड़ दिया गया हो। एक ऐसी पहाड़ी फतह हुई, जिस पर झंडा फहराने के बाद हमें वहां से आगे पाक अधिकृत कश्मीर एवं गिलगित-बालटिस्तान का लक्ष्य साफ-साफ दिखने लगा। इसीलिए पांच अगस्त, 2019 को गृहमंत्री ने राज्यसभा में बहस के दौरान यहां तक कह डाला कि पीओके के लिए जान भी दे देंगे। कश्मीरी नेताओं ने कह रखा था कि अनुच्छेद 370 कभी वापस नहीं हो पाएगा। इसे संविधान ने अस्थायी कहा गया था, पर देश की मजबूर राजनीति ऐसा मोड़ ले चुकी थी कि इसका समापन असंभव दिखता था। आज से दो वर्ष पूर्व पांच अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त हुआ। वह देश के शेष राज्यों के समान देश का हिस्सा बना, यह बहुत बड़ी बात थी।



सांविधानिक तुष्टीकरण का नायाब उदाहरण अनुच्छेद 370 नेहरू की जनमत संग्रह की घोषणा व कश्मीर-विवाद को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का परिणाम था। शेख अब्दुल्ला तब बहुत महत्वपूर्ण हो गए थे। संविधान सभा में इस अनुच्छेद को जोड़ने का विरोध था। भीमराव आंबेडकर सहमत नहीं थे। सरदार पटेल को इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ने की जिम्मेदारी देकर नेहरू लंदन चले गए। शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान एजेंडे से बचने के लिए लोकतंत्रवादी धर्मनिरपेक्ष बने हुए थे। और भारत से भी अलग होने की उनकी योजना नेपथ्य में चल रही थी। अनुच्छेद 370 से मुक्ति, आजादी के बाद की बड़ी उपलब्धियों में से एक है, लेकिन जिस तरह से संसद व बाहर इसके विरोध का माहौल बनाया गया, उससे पता चलता है कि विभाजनकारी सोच ने इस दौरान देश में अपनी जमीन कितनी मजबूत बना ली है। यदि घाटी के कश्मीरी अनुच्छेद 370 के हटाने का विरोध करते, तो समझा जा सकता है, लेकिन शेष भारत के अल्पसंख्यक नेतृत्व द्वारा इस अनुच्छेद के हटाए जाने के विरोध का भला क्या औचित्य बनता है?


जिन्ना के तर्क कि हिंदू, मुसलमान दो राष्ट्र हैं, के आधार पर पाकिस्तान बना। लोग पाकिस्तान गए भी। लेकिन यहां से जा रहे पाकिस्तान के बहुत से पक्षधर गांधी-नेहरू-मौलाना आजाद से प्रेरित होकर भारत में ही रह गए। उसी मौलिक मजहबी राजनीति की बाध्यताओं के कारण वे अनुच्छेद 370 व सीएए के मुख्य विरोधी बने। आखिर कश्मीर के मुख्यधारा में आने से व प्रताड़ित हिंदू परिवारों के भारत का नागरिक बनने से उन्हें समस्या क्यों होनी चाहिए? इस सांविधानिक संशोधन के विरुद्ध उठी सांप्रदायिक प्रतिक्रियाओं ने जमीनी वास्तविकता से देश का साक्षात्कार करा दिया। कश्मीर आज सामान्य होता हुआ तेजी से प्रगति की ओर अग्रसर है।

शरणार्थियों व वाल्मीकि समाज की नागरिकता के विवाद का समापन दूसरा बड़ा कदम है। एससी/एसटी, पिछड़े वर्गों के आरक्षण की व्यवस्था गरीब गूजर-बकरवालों को मुख्यधारा में ले आएगी। कृषि-बागवानी, उपज विक्रय में इस स्तर का शासकीय सहयोग कश्मीर में पहली बार मिला है। पंचायतें पहली बार विकास के जमीन पर उतरने का माध्यम बनी हैं। पर्यटन गुणात्मक परिवर्तन की ओर है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की एक निर्विवाद प्रशासक की छवि का लाभ कश्मीर उठा रहा है, लेकिन पूंजी निवेश की गति में वृद्धि की अपेक्षा है।

आतंकवाद की आखिरी सांसें चल रही हैं। परिसीमन आज एक संवेदनशील मुद्दा है, लेकिन इसी में भविष्य के लिए एक स्थिर राजनीतिक समाधान की संभावना भी निहित है। दूसरी बात, यदि पश्चिमी पर्वतीय कश्मीर के गूजर बकरवालों के चार जिलों को एक अलग राजनीतिक इकाई यथा हिल कौंसिल या केंद्र शासित प्रदेश का स्वरूप दिया जा सके, तो कुपवाड़ा, उड़ी, पुंछ और राजौरी का भाग्य बदल जाएगा। घाटी का वर्चस्व पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र के विकास में एक बड़ी बाधा है। इनकी आवाज नहीं सुनी जाती। इनके विकास व राजनीतिक अपेक्षाओं को भी संबोधित किए जाने का समय आ गया है। अनुच्छेद 370 इतिहास हो गया, राजनीति तो लकीर पीटती रहेगी। पर हमारा मार्ग नियत है। अब हम अपनी नजरें ऊंची करें और गिलगित-बालटिस्तान व पीओके को अपने लक्ष्य में ले आएं।

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