सम्पादकीय

गेट बिकाऊ है

Rani Sahu
9 Oct 2022 7:07 PM GMT
गेट बिकाऊ है
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घर के गेट ने सुबह जब अपनी आंख खोली तो छाती पर चस्पां 'गेट बिकाऊ है' का नोटिस पढक़र हैरत में आ गया। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिस मालिक के लिए उसने सदा वफादारी दिखाई, वही उसे बेचने पर आमादा हो चुका है। गेट लोहे के आंसू रो रहा था। उसे यह तो मालूम नहीं था कि उसका एक आंसू कितने किलो का हो सकता है, लेकिन आज वह अपनी हैसियत किसी दलबदलू विधायक के बराबर मान रहा था, जो हर बार चुनाव के बाद बिक जाता है। गेट को शर्म आ रही थी कि पहली बार मालिक की बदौलत, राजनीतिक मंडी में बिकते विधायक की तरह हो गया। आश्चर्य तब होने लगा, जब हर दिन कोई न कोई ग्राहक गेट को बिकाऊ मानकर उसके साथ छेड़छाड़ कर जाता है। ग्राहक अपनी खरीद में सरेआम बिक रहे माल को 'गेट' समझें, अधिकारी समझें या विधायक, सभी मामलों में लोहा ही लोहे को काट रहा है। गेट हैरान था कि लोहे की तरह हाड़-मांस का आदमी कैसे बिकता होगा। क्या देश में बिकने की व्यवस्था इतनी मजबूत हो गई कि 'बिकाऊ है' का बोर्ड देखते ही, लोगों की खरीद क्षमता में सुधार होने लगता है।
गेट ने हमेशा जागकर सपना देखा। दरअसल देश को भी जागते-जागते सपने देखने पड़े रहे हैं, बल्कि अब तो चारपाई पर नहीं किसी न किसी सरकारी इवेंट के आयोजन से सपने दिखाई देते हैं। हमारे पड़ोसी का सबसे बड़ा सपना यह है कि वह किसी तरह बीपीएल परिवार बन जाए। आफिस के एक क्लर्क से सपने के बारे में पूछा तो कहने लगा, 'वेतन का हर लाभ पाकर भी, अपने बढ़े हुए वेतन में विसंगति ढूंढते रहने के लिए ही वह दफ्तर से घर तक सपना देखता है।' देश के सबसे अमीर से पूछा तो बताने लगा कि वह आम आदमी के सपने खरीदकर भी यही सपना देखता है कि आम आदमी के सपने केवल वही खरीद पाए। अति गरीब से पूछा तो कहने लगा कि वह अपनी तरह भटक रहे सपनों को भले ही पकड़ न पाए, लेकिन सपना यह है कि उसकी हालत पर अब देश कोई सपना न देखे। बिकाऊ गेट की तारीफ के पुल बांधते हुए मालिक ने एक तरह से उसकी जाति और धर्म को भी ऊंचा कर दिया था। ग्राहक बढ़ रहे थे, लेकिन न कीमत और न ही बोली बढ़ रही थी, लिहाजा मालिक उसकी कीमत को लेकर बार-बार सपना देख रहा था। उसे गेट को देखकर लगता कि किसी दिन जब डॉलर के मुकाबले देश का रुपया सशक्त होगा, यह भी उच्च दाम में बिक जाएगा। अपने गेट की खातिर वह अब देश की अर्थव्यवस्था के सुधरने की उम्मीद लगा रहा है।
गेट मालिक यह नहीं समझ पा रहा था कि सरकार के आर्थिक वृद्धि दर के दावे उसके 'बिकाऊ गेट' पर क्यों मेहरबान नहीं हो रहे। बिकाऊ गेट तो नहीं बिका, लेकिन तब तक चुनाव आ गए। हर प्रत्याशी और हर पार्टी, उसके गेट के सामने शपथ ले रही थी कि चुनाव के बाद कोई भी उसे बिकने नहीं देगा। गेट के ऊपर कई घोषणापत्र-दृष्टिपत्र चस्पां हो गए, तो इसके बिकने की सूचना इनके पीछे दब गई। मतदान के ठीक एक दिन पहले, अचानक उसका गेट बजने लगा। हर प्रत्याशी उसके पास आता और मालिक को धीरे से बुलाता। मतदान तक गेट के मालिक के पास हर पार्टी का झंडा और हर प्रत्याशी का 'फंडा' दर्ज हो चुका था। गेट अपने मालिक की चुनावी कमाई पर खुश था कि अब उसके बिकने की नौबत नहीं आएगी, लेकिन सरकार बदलते ही राज्य की मजबूरियां फिर बिकाऊ हो गईं। इस बार गेट पर 'बिकाऊ है' का नोटिस नहीं लगा, बल्कि मालिक का मकान व कारोबार भी बिक गया। गेट को अब यह समझ नहीं आ रहा कि वह आइंदा चुनाव से अपना बचाव करे या बदलती सरकारों से बचे।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

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