सम्पादकीय

उद्यान बन सकते हैं पर्यावरण कवच : मानव जीवन और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता के बीच संतुलन की जरूरत

Neha Dani
15 Oct 2022 1:46 AM GMT
उद्यान बन सकते हैं पर्यावरण कवच : मानव जीवन और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता के बीच संतुलन की जरूरत
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जिसे वनों एवं उद्यानों के विकास एवं संरक्षण से बचाया जा सकता है।
धरती का बढ़ता तापमान और उसके परिणामस्वरूप होने वाला जलवायु परवर्तन मानव जीवन के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में मनुष्य को स्वच्छ पर्यावरण की अनिवार्यता का एहसास होने लगा है। पर्यावरण को स्वस्थ और समृद्ध बनाने की जब बात सामने आती है, तो वनों और उसमें रहने वाले जीव-जंतुओं की सुरक्षा का मुद्दा अति महत्वपूर्ण हो जाता है। खुशी की बात है कि इसकी प्रासंगिकता को समझते हुए पिछले दो-तीन दशकों में युवा पीढ़ी ने इस दिशा में कदम उठाए हैं और युवाओं में पर्यावरण को लेकर सजगता बढ़ी है।
पर्यावरणविदों का शोध कहता है कि समृद्ध पर्यावरण के लिए 33 फीसदी वनों का होना जरूरी है, जबकि भारत में 17 फीसदी से अधिक वन नहीं हैं। घटते वनों और विलुप्त होते जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए केंद्र सरकार ने समय-समय पर अनेक कानून बनाए हैं और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए परियोजनाएं प्रारंभ की हैं। चाहे वह 1972 का वन्यजीव संरक्षण कानून हो या 1973 की बाघ बचाओ योजना हो या 1981 वन संरक्षण अधिनियम हो, इन सबने जनता में एक नई चेतना जागृत की।
इसके बावजूद इस उभरते हुए रुझान को और व्यापक बनाने के लिए जरूरी है कि बच्चे इसका केंद्र बिंदु बनें और उन्हें बचपन से वनों एवं पर्यावरण की संपदा और उसकी विविधता की जानकारी दी जा सके। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों को राष्ट्रीय उद्यानों की सैर कराई जाए और उन्हें बताया जाए कि कैसे वन हमारे रक्षक हैं। वनों का सौंदर्य अवश्य ही उनके मन को छू लेगा। इस दौरान विलुप्त होने वाली प्रजातियों और उनके संरक्षण के उपायों पर भी उनसे चर्चा की जा सकती है।
मेरा अपना अनुभव है कि 1970 के दशक में जब मैं छोटा था, तो मेरे पिता मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे कॉर्बेट पार्क ले गए, जिसकी नैसर्गिक सुंदरता ने मेरा मन मोह लिया और मैं अपने विवाह के पश्चात हर दूसरे-तीसरे महीने कॉर्बेट पार्क या अन्य राष्ट्रीय उद्यानों के भ्रमण पर निकल जाता था। राष्ट्रीय उद्यानों के समग्र विकास हेतु आवश्यक है कि इनमें प्रवेश शुल्क कम हो, ताकि वन प्रेमी और स्कूली बच्चे उनमें जा सकें, और पेड़-पौधों एवं वन्यजीवों के प्रति उनके मन में संरक्षण का भाव पैदा हो सके।
केंद्र और प्रदेश सरकारों को सोचना और समझना चाहिए कि वन अभयारण्य सरकार की आय का स्रोत न बनकर रह जाए, बल्कि वन प्रेमियों की आस्था का तीर्थस्थल बन सके, जहां प्रवेश करना उनके लिए दुरूह न होकर प्रेरणादायक हो। आम लोगों में जब पेड़-पौधों और वन्य-जीवों के प्रति सकारात्मकता और संवेदनशीलता की भावना पैदा होगी, तभी हमारे वन स्वस्थ बनेंगे और उनमें रहने वाले जीव-जंतु हमारी पर्यावरणीय जैव-विविधता को बढ़ाएंगे।
इसके साथ-साथ हम अनेकों वन पर्यटकों को अवैतनिक रूप से वन प्रहरी के रूप में तैयार कर सकेंगे, जो समाज में इस विपुल संपदा के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करेंगे। वन विभाग की जिम्मेदारी उन्हीं लोगों के हाथों में सौंपी जानी चाहिए, जिनकी रुचि वन-पर्यावरण एवं वन्य-जीवों में हो और इन सबके प्रति एक दूरगामी सोच हो। राष्ट्रीय पार्कों का प्रबंधन देखने वाले लोगों को एक ऐसा डेटाबेस तैयार करना चाहिए, जिससे जानकारी मिले कि कौन-कौन से व्यक्ति उद्यानों को देखने आते हैं, क्योंकि इससे पता चलेगा कि ये लोग पेड़-पौधों और वन्य-जीवों में निरंतर रुचि रखते हैं।
ऐसे लोगों को चिह्नित करके पार्क प्रबंधन से जोड़ना चाहिए और समय-समय पर होने वाली गोष्ठियों और वन सप्ताह आदि में बुलाकर उनके विचार सुनने चाहिए। ऐसा करके ही हम भविष्य के लिए उद्यानों के विकास एवं पर्याववरण संरक्षण के लिए एक सकारात्मक और योजननाबद्ध रणनीति तैयार कर सकेंगे। ये वन ही हमारे पर्यावरण को अक्षत रखने के लिए सुरक्षा कवच बनेंगे। दुनिया भर में आज पर्यावरण की सुरक्षा चिंता का प्रमुख कारण है, जिसे वनों एवं उद्यानों के विकास एवं संरक्षण से बचाया जा सकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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