सम्पादकीय

सर्दियों में गांती, बोरसी और अदरक वाली चाय

Rani Sahu
21 Dec 2021 8:17 AM GMT
सर्दियों में गांती, बोरसी और अदरक वाली चाय
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सर्दियों के आगमन के साथ गरम कपड़ों और गरमी देने वाले विद्युत उपकरणों की दुकानों में भीड़ लगने लगती है

ध्रुव गुप्त सर्दियों के आगमन के साथ गरम कपड़ों और गरमी देने वाले विद्युत उपकरणों की दुकानों में भीड़ लगने लगती है। बाजार रंग-बिरंगे डिजाइनर स्वेटर, जैकेट, थर्मल्स, कंबलों और अत्याधुनिक तकनीक से बने हीटर और ब्लोअर्स से पट जाते हैं। पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए ये मोटे कंबलों और चादरों को देह में लपेटकर सर्दी से लड़ने के पुराने और पारंपरिक तरीकों को याद करके रोमांचित होने का अवसर है। ग्रामीण और शहरी आमजन के पास सर्दी से मुकाबले के कुछ बेहद सस्ते और पारंपरिक तरीके हुआ करते थे। आज वे चीजें लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं, लेकिन उनकी गरमी पुरानी पीढ़ियों के लोग अपनी स्मृतियों में आज भी महसूस करते हैं।

तब सर्दियों के खिलाफ सबसे कारगर जो हथियार होता था, उसे गांती कहते थे। गांती किसी हाट-बाजार में नहीं बिकता था। बस इसे बांधने का हुनर सीखना पड़ता था। इसकी सामग्री होती थी घर में बाबूजी की कोई पुरानी धोती या पुराना गमछा, मां की कोई पुरानी साड़ी, बहनों के फटे शॉल या बिस्तर से खारिज फटी-पुरानी कोई चादर। उसे सिर पर लपेटने के बाद उसके दोनों खूंट गर्दन से बांध दिए जाते थे। कपडे़ का बाकी हिस्सा देह के हर तरफ लटका होता था। जहां चादर के सिर से सरकने का अंदेशा हमेशा बना रहता है, वहीं गांती सिर, कानों व गर्दन को सर्दी से ऐसी सुरक्षा देता था कि सर्दी तो क्या, सर्दी का भूत भी भीतर प्रवेश न कर सके। गांती बच्चों के लिए सर्दी के खिलाफ कपडे़ का एक टुकड़ा भर नहीं होता था। हमारी माओं और दादियों का दुलार, वात्सल्य और उनकी चिंताएं भी लिपटी होती थीं उसमें। हमारी पीढ़ी ने कपडे़ के उसी टुकडे़ के सहारे सर्दियों के पहाड़ काटे थे। आज के थर्मल, स्वेटर, कोट और जैकेट मिलकर भी गरमी का वह एहसास नहीं दे पाते। अब गांती भले ही गंवार होने की निशानी समझी जाए, लेकिन तेज सर्दियों में अब भी उसे बांध लेने की प्रबल इच्छा होती है। पर क्या करें, उसे बांधने का सलीका भी हमारी माओं के साथ चला गया।
सर्दियों के खिलाफ जो दूसरा पारंपरिक हथियार था, उसे लोग बोरसी कहते थे। घर के दरवाजे पर या दालान में जलती, सुलगती बोरसी का मतलब होता था शीत से संपूर्ण सुरक्षा। घर के बुजुर्ग कहते थे कि दरवाजे पर बोरसी की आग हो, तो ठंड क्या, सांप-बिच्छू और भूत-प्रेतों का भी घर में प्रवेश बंद हो जाता है। सार्वजनिक जगहों पर जलने वाले अलाव या घूरे जहां गांव-टोले के चौपाल होते थे, बोरसी को पारिवारिक चौपाल का दर्जा हासिल था। उसके पास शाम के बाद जब घर के लोग एकत्र होते थे, तब वहां घर-परिवार और पास-पड़ोस की समस्याओं से लेकर देश-दुनिया की दशा-दिशा पर घंटों बहसें चलती थीं। घर के कई मसले बोरसी के गिर्द ही सुलझ जाते थे। बच्चों के लिए बोरसी का रोमांच यह था, वहां आग सेंकने के अलावा आलू, शकरकंद, सुथनी पकाने-खाने के अवसर भी उपलब्ध थे। किशोरों के रूमानी सपनों को बोरसी की आग ऊष्मा और उड़ान देती थी। बिस्तर पर जाते समय बोरसी को उसकी बची-खुची आग सहित बुजुर्गों या बच्चों के बिस्तर के पास या उनकी खाट के करीब रख दिया जाता था।
बिस्तर पर भी सर्दी से मुकाबले के पारंपरिक तरीके थे। रजाई और कंबल का सुख तो तब बहुत कम घरों को नसीब था। उनकी जगह जिस ओढ़ने का इस्तेमाल होता था, उसे गांवों में सुजनी, गुदरी या लेवा कहा जाता था। यह भी बाजार में नहीं बिकता था। उसे बड़ी बारीकी और मनोयोग से घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें बनाती थीं। उनमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री थी घर की पुरानी चादरें, धोतियां और साड़ियां। कई-कई तहों में उन्हें एक पर एक जमाकर इतनी बारीकी से उन पर सुई चलाई जाती थी कि उनका कोई हिस्सा मुंह निकालकर बाहर न झांके।
सर्दियों में खुद को ठंड से बचाए रखने के लिए जिस चौथी चीज का इस्तेमाल आम था, वह थी अदरक वाली चाय। गांती, बोरसी, सुजनी के दिन तो लद गए। एकमात्र अदरक वाली चाय है, जो आज के बदले दौर में भी हमारी जरूरतों और आदतों में शामिल रह गई है। स्वास्थ्य के प्रति सचेत लोगों के लिए अदरक वाली चाय दर्द निवारक, एंटी बैक्टीरियल, एंटी ऑक्सीडेंट और एंटी एजिंग होने के अलावा कई विटामिन्स तथा मिनरल्स का खजाना है। अदरक को नापसंद करने वाले लोगों के लिए हमारे यहां कहावत है- बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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