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नव सृजन की यात्रा बने गणेश चतुर्थी, पर्व और त्योहारों को ईकोफ्रेंडली तरीके से मनाने का लें संकल्प
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| शशांक पांडेय | स्वामी चिदानंद सरस्वती। गणेश चतुर्थी का दिवस बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसी दिन महर्षि वेदव्यास ने महाभारत जैसे विशाल महाग्रंथ की रचना की थी। हालांकि वह केवल महाभारत नहीं, बल्कि महान भारत की रचना भी थी। प्रभु की प्रेरणा से भगवान श्री गणेश जी को इसे लिखने के लिए चुना गया। श्री गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव होने के साथ-साथ प्रथम पूज्यनीय, विघ्नहर्ता, शुभता के प्रतीक और प्रकृति के रक्षक भी हैं। गणेश उत्सव की शुरुआत 1630 से 1680 के बीच मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में की गई थी। पहली बार सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की थी। तब से गणोशोत्सव पारिवारिक के साथ सामुदायिक भागीदारी का उत्सव भी हो गया। इससे समाज और समुदायों के बीच मेलजोल बढ़ा। आपसी एकजुटता और भाईचारा विकसित हुआ। इसने उस वक्त स्वराज हासिल करने के लिए ब्रह्मस्त्र का काम किया।
तिलक ने गणपति की स्थापना और विसर्जन की परंपरा को बड़ी दिव्यता के साथ आगे बढ़ाया। आज इस दिव्य परंपरा का स्वरूप हम सभी के सामने है। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में इसे धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन जिस परंपरा से पर्यावरण बिगड़ता हो, उस पर अब ध्यान देने की जरूरत है। ऐसी परंपराओं में अब हमें बदलाव लाना होगा, ताकि उनका मूल भी बचे और पर्यावरण भी।
शास्त्रों में यज्ञ, पूजा और उत्सवों के लिए श्री गणेश की मूर्ति मात्र एक अंगूठे के बराबर बनाने का विधान है। जब यह परंपरा प्रारंभ हुई तब पूजा, हवन और यज्ञ में श्री गणेश गोबर और मिट्टी के बनाए जाते थे। पूजन के पश्चात उस प्रतिमा को तालाबों, जलाशयों, सरोवरों में विसर्जित किया जाता था। जल में गोबर और मिट्टी घुल जाती है। गोबर के गुणकारी तत्व पानी में मिल जाते हैं। इस प्रकार वे मिट्टी और पानी आदि को शुद्ध करते हैं। इससे धरती उपजाऊ बनती है और पर्यावरण की रक्षा भी होती है। इससे गौ गाता का संरक्षण और संवर्धन भी संभव है। जाहिर है गणेश चतुर्थी को शास्त्रोक्त विधि से मनाने पर हमारी परंपराएं भी बचेंगी और पर्यावरण भी।
दुख की बात है कि आज प्लास्टिक, प्लास्टर आफ पेरिस, थर्माकोल या अन्य सिंथेटिक उत्पादों से बनी श्री गणेश की प्रतिमाओं से बाजार भरा हुआ है। ये प्रतिमाएं हमारे शास्त्रीय विधान के अनुसार नहीं हैं। पूजन के पश्चात इन मूर्तियों का नदियों, तालाबों में विसर्जन किया जाता है। इससे जल और थल पर प्रदूषण तो बढ़ता ही है साथ में पूजित प्रतिमाओं की दुर्गति भी देखने को मिलती है। इससे श्री गणेश का अनादर होता है। यह दृश्य देखने वालों में उनके प्रति श्रद्धा कम होती है। यह स्वस्थ परंपरा नहीं है। इसके बजाय श्री गणेश की प्रतिमा की स्थापना के बाद उसका विसर्जन वेदमंत्रों के साथ जमीन में ही गड्ढा खोदकर किया जाना चाहिए। इससे पर्यावरण बचेगा, परंपरा बचेगी और पूजित मूर्तियों का सम्मान भी बरकरार रहेगा। इसलिए हमें शास्त्रों के अनुरूप श्री गणेश की प्रतिमा का विसर्जन करना आरंभ करना चाहिए। इसके लिए अब हमें फिर से पौराणिक तौर-तरीकों को अपनाना चाहिए। समय आ गया है कि हम गोबर, मिट्टी या आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से श्री गणेश बनाएं, उनका पूजन करें और समय आने पर धरती में गड्ढा कर उन्हें विसर्जित करें। इसका एक और तरीका है। भगवान श्री गणेश की प्रतिमा बनाते वक्त उनके पेट में अपनी पसंद के फल, तुलसी या औषधीय पौधों के बीज रखें। चौदह दिन बाद उसे अपने घर पर ही किसी गमले, गार्डन या किसी उद्यान में विसर्जित करें, ताकि श्री गणेश की प्रतिमा के पेट में जो बीज डाला गया है, उसका रोपण और संरक्षण ठीक से किया जा सके। वह पौधा भगवान श्री गणेश के आशीर्वाद और कृपादृष्टि का प्रतीक होगा। इस प्रकार हमारा पूजन और विसर्जन नव सृजन की यात्र होगी। आज ऐसे ही नए-नए तरीकों से अपने पर्वो और त्योहारों को मनाने की जरूरत है। हमारे पर्व और त्योहार नए सृजन की यात्र हंै। अत: इन्हें हम सृजनात्मक तरीकों से ही मनाएं तो उचित होगा। जाहिर है आज जिन परंपराओं से हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, हमारी प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, उन पर अब विशेष ध्यान देने तथा उनमें बदलाव लाने की जरूरत है। समय आ गया है कि केवल ईकोफ्रेंडली यानी पर्यावरण अनुकूल जैसे गाय के गोबर, मिट्टी और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से बनी भगवान श्री गणेश जी की प्रतिमाओं की ही स्थापना की जाए। इस बार भगवान श्री गणेश की ईकोफ्रेंडली प्रतिमाओं को प्रोत्साहन देने के लिए देशव्यापी अभियान चलाया जाना चाहिए।
प्रकृति, पर्यावरण एवं संपूर्ण धरती के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रतिमाओं का जलराशियों में विसर्जन कदापि श्रेयस्कर नहीं है। हमें ध्यान रखना होगा कि नदियों के कम होते प्रवाह एवं अन्य समस्याओं के कारण कहीं हमारी श्रद्धा हमारी नदियों का ही श्रद्ध न कर दे। हमारे सेलिब्रेशन, ग्रीन सेलिब्रेशन बनें। हम यूज एंड थ्रो के कल्चर से बचें और यूज एंड ग्रो कल्चर की ओर बढ़ें। इससे शुभ भी होगा और लाभ भी। श्री गणेश की प्रतिमा के विसर्जन के समय हम सभी उत्साहित होते हैं, उमंग से भर जाते हैं, तेज आवाज में गाने बजाते हैं। सच मानें तो यह वक्त कानफोड़ू आवाज में गाने बजाने का नहीं, बल्कि खुद ही भीतर से झूम उठने का है।
कुल मिलाकर हमें अपनी परंपराओं को पर्यावरण की रक्षा करते हुए ही आगे बढ़ाना होगा, तभी गणेश उत्सव जैसे पर्व सार्थक, सफल और प्रेरक होंगे। आइए हम संकल्प लें कि हम अपने पर्व और त्योहारों को ईकोफ्रेंडली तरीके से मनाएंगे, ताकि हमारा पर्यावरण, परंपरा, प्रकृति और आने वाली पीढ़ियां भी बची रह सकें।