सम्पादकीय

Ganesh Chaturthi 2021: गणेशोत्सव शुरू करने में बाल गंगाधर तिलक को भारी विरोध का करना पड़ा था सामना

Gulabi
10 Sep 2021 8:06 AM GMT
Ganesh Chaturthi 2021: गणेशोत्सव शुरू करने में बाल गंगाधर तिलक को भारी विरोध का करना पड़ा था सामना
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जिस सार्वजनिक गणेशोत्सव को आजकल लोग इतनी धूमधाम से मनाते हैं

हरगोविंद विश्वकर्मा।

जिस सार्वजनिक गणेशोत्सव को आजकल लोग इतनी धूमधाम से मनाते हैं, उस पब्लिक फंक्शन को शुरू करने में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलात और विरोध का सामना करना पड़ा था। हालांकि सन् 1894 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना दृढ़निश्चय कर चुके लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रख ही दी। बाद में सावर्जनिक गणेशोत्सव स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट करने का जरिया बना। 1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकजुट किया जाए।

अचानक उनके दिमाग में आइडिया आया, क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। विघ्नहर्ता गणेश पूजा भारत में प्राचीन काल से होती रही है। पेशवाओं ने गणेशोत्सव का त्यौहार मनाने की परंपरा शुरू की और सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करने का श्रेय तिलक को जाता है। तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत की।
हालांकि कांग्रेस पर 1885 से 1905 पर वर्चस्व रखने वाला व्योमेशचंद्र बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे नेताओं का उदारवादी खेमा नहीं चाहता था कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करें।
दरअसल, उदारवादी धड़ा इसलिए भी सार्वजनिक गणेशोत्सव का विरोध कर रहा था, क्योंकि 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे। लिहाजा, किसी भी दूसरे कांग्रेसी ने तिलक का साथ नहीं दिया। लेकिन तिलक ने चिंता नहीं की। वह मानते थे कि लक्ष्य पाने के लिए जीवन के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए।
बहरहाल, जब उदारवादियों की बात तिलक नहीं माने, तब कांग्रेस ने आशंका जताई कि गणेशोत्सव को सार्वजनिक करने से दंगे हो सकते हैं। यह दीगर बात है कि आयोजन के बाद हुए दंगे के लिए गणेशोत्सव को ही जिम्मेदार माना गया।
हालांकि उस समय तिलक का राष्ट्रीय स्तर पर साथ लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनरायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त ने दिया था। जो भी हो, तिलक इसके बाद तो अपने जमाने के सबसे ज्यादा प्रखर कांग्रेस नेता के रूप में लोकप्रिय हो गए।
बीसवीं सदी में तो सार्वजनिक गणेशोत्सव बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हो गया। वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला संस्था बनाई थी। इसका काम था देशभक्तिपूर्ण मराठी लोकगीत पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी।
कवि गोविंद को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। लिहाजा, गणेशोत्सव के जरिए आजादी की लड़ाई को मजबूत किया जाने लगा.
इस तरह नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का आंदोलन छेड़ दिया था। बताया जाता है कि सार्वजनिक गणेशोत्सव से अंग्रेज घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी गंभीर चिंता जताई गई थी।
रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूमकर अंग्रेजी शासन का विरोध करती हैं और ब्रिटेन के खिलाफ गीत गाती हैं। स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने और शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष ज़रूरी बताया जाता है। सार्वजनिक गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता तिलक, सावकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रेंगलर परांजपे, मौलिकचंद्र शर्मा, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू होते थे।
तिलक उस समय युवा क्रांतिकारी दल के नेता बन गए थे। वह स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है।
तिलक 'स्वराज' के लिए संघर्ष कर रहे थे। तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया।
दरअसल, सन् 1857 की क्रांति के बाद स्वाधीनता आंदोलन में तिलक का प्रमुख भूमिका में होना सबसे महत्वपूर्ण रहा। कई लोग कहते हैं कि तिलक न होते तो आजादी पाने में कई दशक और लगते। यह भी सत्य है कि कांग्रेस के भीतर तिलक की घोर अवहेलना हुई। वह मोतीलाल नेहरू जैसे समकालीन नेताओं की तरह ब्रिटिश राज से समझौते की मुद्रा में नहीं रहे।
लिहाजा, वह ब्रिटिश राज के लिए चुनौती बनकर उभरे। तिलक की राय थी कि अंग्रेजों को यहां से किसी भी कीमत पर भगाना है। लिहाजा उन्होंने दूसरे कांग्रेस नेताओं की तरह ब्रिटिश सत्ता के समक्ष हाथ फैलाने के बजाय उन्हें भारत से खदेड़ने की राह मजबूत करने में अपनी मेहनत लगाई।
'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा', इस घोषणा के जरिये सन् 1914 में तिलक ने जनमानस में जबरदस्त जोश भर दिया। तिलक से पहले समस्त भारतीय समाज में देश के लिए सम्मान और स्वराष्ट्रवाद का इतना उत्कट भाव इतने प्रभावी ढंग से कोई जगा नहीं पाया था। भारत से ब्रिटिश राज की समाप्ति के लिए उन्होंने सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रवाह तेज करके अंग्रेजी राज के खिलाफ जनमत का निर्माण किया।
तिलक के नेतृत्व में जनमानस में पनपते असंतोष को फूटने से रोकने के लिए 1885 में वायसराय लॉर्ड डफरिन की सलाह पर एनेल ऑक्टेवियन ह्यूम ने 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। लिहाजा, अपने जन्म से ही कांग्रेस ने तिलक को दरकिनार करने की पूरी कोशिश की अंग्रेज़ों को अहसास था कि अगर तिलक का सामाजिक चेतना का प्रयास मजबूत हुआ तो, उनकी विदाई का समय और जल्दी आ जाएगा। इसलिए शातिराना अंदाज में अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन पर नियंत्रण करने के लिए कांग्रेस की स्थापना की।
सन् 1995 में क्रिसमस के दौरान पुणे में कांग्रेस के 11वें अधिवेशन में तिलक को आम राय से 'स्वागत समिति' का प्रमुख बनाया गया। लेकिन कांग्रेस पंडाल में सामाजिक परिषद आयोजित किए जाने के नाम पर पार्टी में जबरदस्त विवाद हुआ। लिहाजा, तिलक को कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। उनका मानना था कि स्वतंत्रता मांगने से कभी नहीं मिलेगी। इसे लेने के लिए खुला संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहना होगा।
दरअसल, अगर गणेशोत्सव के पौराणिक इतिहास पर नजर डालें तो नारद पुराण की कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने शरीर के मैल से बालक की जीवंत मूर्ति बनाई और उसका नाम गणेश रखा तथा उन्हें दरवाजे पर खड़ा कर दिया। पार्वती ने कहा, 'मैं स्नान करने जा रही हूं', इसलिए इस बीच किसी को अंदर नहीं आने देना।'
गणेशजी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान शिव को ही अंदर नहीं आने दिया। क्रोध में शंकरजी ने उनका गला धड़ से अलग कर दिया। इस पर पार्वती विलाप करने लगीं। इसके बाद शिवजी ने हाथी के बच्चे का सिर बालक के शरीर में जोड़कर उसे जीवित कर दिया। उस दिन चतुर्थी थी और तब से भगवान गणेश का जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।
कालांतर में गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव बन गए। हिंदू धर्म में उनको विशष्टि स्थान प्राप्त हो गया। अब तो कोई भी धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ, पूजन सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव हो, निर्विध्न कार्य संपन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है।
अगर इतिहास की बात करें तो महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना राजमाता जीजाबाई ने की थी।
महाराष्ट्र का गणेशोत्सव सबसे बड़ा त्योहार है। यह उत्सव, हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। पहले गणेश पूजा घर में होती थी।
महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते समय तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छूआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। अंत में इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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