सम्पादकीय

गांधीवाद: हमारी उड़ानें पुरखों के दिए पंखों से हैं

Neha Dani
6 Feb 2022 1:58 AM GMT
गांधीवाद: हमारी उड़ानें पुरखों के दिए पंखों से हैं
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लेखक स्वतंत्र इतिहासकार और हिंदी सिनेमा के स्क्रिप्ट राइटर-गीतकार हैं

जन्म और मृत्यु के दिन श्रद्धा और भावुकता भरे स्मरण के लिए होते हैं, उन दिनों के अलावा दिनों में थोड़ी आजाद, थोड़ी वस्तुनिष्ठ, थोड़ी आलोचनात्मक निगाह से व्यक्तित्वों को देख सकते हैं, देखा जाना चाहिए। विचार सत्ता प्राप्ति का हथियार बन जाए, तो विचार की अहमियत और मूल संवेदना रसातल में चली जाती है। घोर गांधी प्रेमी होकर स्वीकार करना चाहता हूं कि गांधीवाद भी उसका शिकार हुआ है।

गांधीप्रेमी के रूप में ही वैचारिक स्थापना यह है कि यों गांधीवाद दार्शनिक स्तर पर कोई मौलिक विचार नहीं था, सदियों में निर्मित भारतीयता की ऐसी अमोघ रेसिपी थी, जो बीसवीं सदी के गुलाम भारत को आजादी के आंदोलन के लिए यथासंभव अधिकाधिक एकजुट कर सकती थी। यानी यह राजनीतिक आविष्कार ही था। जब इसे राजनीतिक आविष्कार के रूप में देखेंगे, तो पाएंगे कि फिर इसका राजनीतिक हश्र स्वाभाविक ही था। तो इसके राजनीतिक पक्ष और विपक्ष बनना भी उतना ही स्वाभाविक था। हर राजनीति किसी न किसी स्तर पर आकर हिंसक हो जाती है, कर्मणा न भी हो, वाचिक हिंसा तो अवश्यंभावी हो ही जाती है। तो यह हमें गांधीवाद की सरकारी / एक दलीय क्रियान्विति में भी दिखाई देता है।
आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान निस्संदेह बड़ा था, परंतु स्वाधीनता आंदोलन और आधुनिक वैचारिकी के एकल नायक के रूप में उन्हें थोपे जाने की चेष्टाएं हुईं। नायक बनाने और निरंतरता देने में सरकारों की सीमित दृष्टि कई बार वृहद फलक पर कुछ बड़े नुकसान करती है, इसके उदाहरण भारत ही नहीं, दुनिया के हर हिस्से के इतिहास में मिलते हैं। हम जैसे बेस्टसेलर किताब को श्रेष्ठ साहित्य मानने की भूल कर बैठते हैं।
लेकिन साहित्य में उसका 'मूल्य' और उत्तरजीविता बिक्री से तय नहीं होते। प्रकाशक के रूप में उपमा दें, तो कांग्रेस के लिए गांधी बेस्टसेलर किताब थे गोया। हर बेस्टसेलर किताब में कुछ अच्छा भी होता है, जो गांधी में भी था, कुछ से कहीं ज्यादा था। राजनीतिक-सामाजिक- आर्थिक विचार की मौलिकता, दर्शन की गहराई और नवीनता जहां नहीं है, वह विचार की दुनिया में ज्यादा मूल्यवान नहीं होता। हिट कवि के उद्बोधन में कितनी ही सरोकार, मानवीयता की सतही-लुभाऊ बातें हों, कविता के मीडियम में नया कहने, नई तरह से कहने की अहमियत बड़ी होती है, चाहे उसे उसके समय में सुनने, समझने, सराहने वाला कोई न हो।
विचार और कविता स्वीकृति के लिटमस टेस्ट (सफलता) के मोहताज नहीं होते। कौन आजाद खयाल का व्यक्ति इससे इनकार कर सकता है कि सत्ता के गलियारों में गांधीवाद के नाम पर अंतहीन लूट हुई। उसे गांधीवादी आवरण में लपेटा भी गया, यानी जस्टिफाई किया गया। 'गांधी भवन' महानगरों में वातानुकूलित बने, जबकि उन्हें गांवों-जंगलों में आश्रम रूप में होना चाहिए था। यह त्रासदी गांधी देखते, तो बहुत दुखी होते। उन्हें यह अपने राजनीतिक आविष्कार का ऐसा दुरुपयोग लगता, जिसकी आशा तो क्या, कल्पना भी स्वयं उन्होंने न की होगी।
गांधी के मुकाबले मार्क्स का दर्शन कहीं मौलिक था, नवीन था, यानी दार्शनिकता में शीर्ष और गांधीवाद व्यावहारिकता में एवरेस्ट। यही वजह रही कि दशकों तक मार्क्सवादियों और गांधीवादियों में दूरी रही। आजादी के आंदोलन में वामपंथी धड़े अगर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे, तो गैर गांधीवादी आंदोलन में ही, जैसे गरम दल में भगत सिंह आदि लोग प्रमुख रूप से गिने जा सकते हैं। आजादी के बाद व्यावहारिक लाभ की आकांक्षा वाले कुछ मार्क्सवादी लोग गांधीवाद से सेतु स्थापित करने में लग गए। अब यह भी विचित्र है कि फासीवाद से लड़ाई के नाम पर प्रायः हर वामपंथी गांधी और गांधीवाद को एक शॉल की तरह लपेट लेना चाहता है, जिसके नीचे दास कैपिटल को छिपा लिया गया है। जबकि दर्शन के स्तर पर गांधी और मार्क्स में गहरे अंतर हैं। मसलन, गांधीवाद जिस तरह धर्म, जाति, वर्ण को स्वीकारता है, वह मार्क्सवादी दृष्टि में सुपाच्य तो क्या, गले से नीचे निगलने लायक भी नहीं है। जैसे गांधीवाद में सर्वधर्म सद्भाव है, मार्क्सवाद में धर्म विमुखता, जिसे अफीम के रूप में बहुप्रचारित किया जाता है।
कई वाममार्गी मित्र अब मार्क्स की आलोचना से उतने आहत नहीं होते, जितने गांधी की आलोचना से होते हैं, जबकि भारत के वाममार्गी पुरखे (पिछली पीढ़ियों के) अपने व्यवहार, विचार में गांधी को नकारने के ही भाव में दिखाई देते हैं। गांधी के विराट व्यक्तित्व का वैभव ही है कि वे आधुनिक भारतीय वैचारिकी के गणेश बनकर छा जाते हैं, और लाख कोशिश करके भी उन्हें कोई गोबर नहीं बना सकता। मेरी व्यक्तिगत समस्या यह है कि मेरी जहनी परवरिश जाने-अनजाने जिन लोगों के आसपास हुई, उनमें लगभग आधे गांधीवादी थे, आधे मार्क्सवादी। मैं इन दोनों के बीच झूलता रहा हूं, दर्शन का विद्यार्थी रहा हूं, तो दार्शनिक मौलिकता के प्रश्न सफलता से बड़े रहे हैं। गांधी भारतीय हैं, तो सगे दादा हैं, मार्क्स दादा के सिबलिंग। सिबलिंग राइवलरी तो दोनों में है ही। पर हम संतानें
भारत के लिए मार्क्स के बजाय गांधी का रेसिपी मूलक दर्शन ज्यादा व्यावहारिक रहा है। मुझे लगता है कि यह समझने में हमारे देश के मार्क्सवादियों को दशकों लग गए। पर पैराडाइम शिफ्ट था और है। इसी में फासीवाद के विराट दक्षिणपंथी उभार के बीज छिपे हुए हैं। -लेखक स्वतंत्र इतिहासकार और हिंदी सिनेमा के स्क्रिप्ट राइटर-गीतकार हैं

सोर्स: अमर उजाला


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