सम्पादकीय

भाषा व साहित्य पर गांधी की दृष्टि

Rani Sahu
19 Sep 2022 6:55 PM GMT
भाषा व साहित्य पर गांधी की दृष्टि
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महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बहु-आयामी था। शायद ही कोई क्षेत्र था, जिसके लिए उन्होंने कार्य नहीं किया, जो उनसे प्रभावित नहीं रहा हो। उनके विभिन्न आयामों पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं, लेकिन महात्मा गांधी के साहित्य और भाषा चिंतन पर बहुत कम लिखा गया है। इस दृष्टिकोण से श्री भगवान सिंह की किताब 'महात्मा गांधी का साहित्य और भाषा चिंतन' (सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी) एक महत्वपूर्ण रचना है। इस पुस्तक के दो भाग हैं, पहले भाग में चार अध्याय हैं। पहला अध्याय साहित्य और कला, दूसरा गांधी के चिंतन में तुलसीदास, तीसरा शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और चौथा हिंदी का राष्ट्रव्यापी जागरण है। दूसरे भाग में गांधीजी के कुछ महत्वपूर्ण भाषणों तथा पत्राचार को शामिल किया गया है। गांधीजी की औपचारिक शिक्षा मैट्रिकुलेशन के बाद कानून की पढ़ाई तक सीमित थी, लेकिन उन्होंने राजनीति, इतिहास, धर्म, दर्शन तथा साहित्य-कला से जुड़ी सामग्रियों का गहरा अध्ययन किया था। हिंद स्वराज, आत्मकथा (सत्य के प्रयोग), दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास जैसी पुस्तकें तथा नियमित रूप से धर्म, संस्कृति, भाषा, शिक्षा, राजनीति तथा समाज से जुड़े सवालों पर विचारोत्तेजक लेख उनके श्रेष्ठ लेखक होने का प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीका में 'इंडियन ओपिनियन' तथा भारत में 'यंग इंडिया', 'हरिजन' व 'हरिजन सेवक' जैसे पत्रों को निकालना उनके श्रेष्ठ पत्रकार होने का भी प्रमाण है। इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से वे अन्य विषयों के अलावा साहित्य-कला के संबंध में अपने विचार प्रकट करते रहे। इसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक में पढऩे को मिलता है। गांधी जी का जुड़ाव अतीत के साहित्य के साथ-साथ समकालीन साहित्यकारों से भी था। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उनका गहरा लगाव था। समकालीन साहित्यकारों में विश्व के श्रेष्ठ उपन्यासकार माने जाने वाले रूसी लेखक टॉलस्टॉय से उनका गहरा परिचय था। फ्रांस के प्रसिद्ध साहित्यकार रोम्या रोला से भी उनका गहरा आत्मीय लगाव था। कुछ मुद्दों पर मतभेद के बावजूद गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर से भी उनका घनिष्ठ संबंध था। उसी प्रकार गुजराती, मराठी, तमिल, हिंदी आदि के कई साहित्यकारों से गांधीजी का निकट का संबंध रहा। हिंदी के मैथिलीशरण गुप्त, बनारसीदास चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, निराला, पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी, वियोगी हरि आदि कितने लेखक-कवि थे जिनकी सोच के तार गांधी के किसी न किसी विचार से जुड़े थे।
गांधी जी स्वयं भी प्राचीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य के गंभीर अध्येता थे। साहित्य के बारे में उनकी अपनी एक समझ एवं दृष्टि थी। गांधीजी साहित्य एवं कला को लोक, समाज एवं जीवन की परिधि में ही देखने के पक्षधर थे। गांधीजी के लिए कला या साहित्य जीवन की सेवा करने के साधन थे। वह ऐसी कला के पक्षधर थे जो मनुष्य को ऊंचा उठाए। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि साहित्य जनता के नैतिक, आध्यात्मिक उत्थान के लिए लिखा जाए। इसके साथ ही वे जनसाधारण की समस्याओं की तरफ ध्यान देना भी साहित्यकारों का महत्वपूर्ण कार्य मानते थे। इस पुस्तक का दूसरा अध्याय गांधी जी के चिंतन में तुलसीदास पर है। यह सर्वविदित है कि गांधीजी का मध्यकालीन भक्त कवियों के साथ गहरा लगाव था। उसमें नरसी मेहता, अखा भगत, मीरा बाई, कबीर, तुलसी आदि शामिल हैं। गांधीजी को सत्याग्रह की प्रेरणा मीराबाई से मिली और रामराज्य की कल्पना तुलसीदास से। उनका चरखा कबीर का है और 'पराई पीर' अनुभव करने वाली संवेदनशीलता नरसी मेहता की। भारत की भाषा समस्या के समाधान की दिशा में भी गांधीजी को तुलसी से बहुत मदद मिली। कोलकाता में राष्ट्रीय महाविद्यालय के उद्घाटन अवसर पर बोलते हुए गांधीजी ने कहा 'आप हिंदी भाषा की साहित्यिक दरिद्रता की बात करते हैं, किंतु यदि आप तुलसी की रामायण को गहराई से पढ़ें तो शायद आप मेरी इस राय से सहमत होंगे कि संसार की आधुनिक भाषाओं के साहित्य में उसके मुकाबले कोई दूसरी किताब नहीं ठहरती। उस एक ही ग्रंथ ने मुझे जितनी श्रद्धा और आशा दी है, उतनी किसी दूसरी किताब से मुझे नहीं मिली।' पुस्तक के तीसरे अध्याय में शिक्षा के माध्यम पर महात्मा गांधी के विचारों का बहुत ही विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है। गांधीजी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा के पक्षधर थे। इसकी झलक उनकी किताब 'हिंद स्वराज्य' में मिलती है।
वे कहते हैं कि 'करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। उसने इस इरादे से यह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किंतु उनके कार्य का परिणाम यही हुआ है। हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी दरिद्रता है।' दक्षिण अफ्रीका से जनवरी 1915 में लौटने के बाद गांधी जी ने मातृभाषा में भारतीय परंपराओं के अनुसार शिक्षा पद्धति के प्रचार के अभियान को तेजी से आगे बढ़ाया। इस संदर्भ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में दिया उनका भाषण काफी महत्वपूर्ण है। चार फरवरी 1916 को हुए इस समारोह में उन्होंने कहा 'इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है।…..मुझे आशा है कि इस विद्यापीठ में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा।' गांधीजी के शिक्षा एवं भाषा संबंधी विचारों के आलोक में स्पष्ट है कि औपनिवेशिक शासन का उनके द्वारा विरोध केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं था। वे उसे भाषा एवं शिक्षा की दृष्टि से भी भारतीयों को पराधीन बनाने वाली व्यवस्था के रूप में देख रहे थे। इसलिए राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति से पहले उन्होंने शिक्षा एवं भाषा के क्षेत्र में स्थापित विदेशी प्रभुत्व को हटाना आवश्यक समझा। दूसरी बात, अंग्रेजी शिक्षा का मॉडल कुछ इस ढंग का गढ़ा गया था जिससे कुछ भारतीय ही पढ़-लिखकर साम्राज्यवादी हितों की दृष्टि से काबिल बन सके। आम जनता शिक्षित हो, यह कतई अंग्रेजी मॉडल का उद्देश्य नहीं था। दक्षिण अफ्रीका में काम करते हुए गांधी जी ने यह अनुभव किया था कि भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग भाषाएं एवं बोलियां बोली जाती हैं।
उन्हें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई जो संपर्क-संवाद एवं राजकाज की भाषा हो। निश्चित ही गांधी जी की दृष्टि में हिंदी ही वह भाषा थी जो उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक बोली जाती थी। हिंदी का विकास देश के विभिन्न भागों में भक्तिकाल से ही होता आ रहा था, लेकिन जो काम बाकी था, वह था समस्त भारतवर्ष में हिंदी को सामान्य संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करने की मानसिकता तैयार करना, और यह काम किया गांधी ने। गांधी जी ने 1920 में जिस राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन को चलाया उसके दौरान उन्होंने तीन चीजों का राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार किया। सबसे पहले तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना को पूरे देश में फैलाने का काम किया, क्योंकि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में असहयोग आंदोलन के रूप में पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पूरा देश एक साथ आंदोलित हुआ था। दूसरा सवाल अस्पृश्यता का था जिसके विरुद्ध उन्होंने पूरे देश में जागरूकता पैदा करने का काम किया। तीसरा मुद्दा हिंदी का था जिसे पूरे भारत की राष्ट्रभाषा, सामान्य संपर्क भाषा के रूप में अपनाने की मुहिम गांधी जी ने राष्ट्रीय स्तर पर चलाई। गांधी के कार्यों के रूप में भारतीय नवजागरण ने जो अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति पाई, उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष था सांस्कृतिक जागरण। कोई भी सांस्कृतिक जागरण भाषा एवं साहित्य के जागरण के बगैर परिपूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। किसी भी देश के सांस्कृतिक जागरण में वहां की भाषा एवं साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यही कारण था कि उन्होंने सबसे पहले देशी भाषाओं के उत्थान की, विकास की बात की। इसके लिए जनजागृति पैदा करने के लिए आंदोलन चलाया। -(सप्रेस)
अशोक भारत
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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