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ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर केंद्र सरकार की खामोशी कई सवाल खड़े करती है
ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर केंद्र सरकार की खामोशी कई सवाल खड़े करती है। ऐसी घटनाओं के खिलाफ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है अन्यथा धार्मिक उन्माद फैलाकर देश की सत्ता तो प्राप्त की जा सकती है, परंतु विकास संभव नहीं है। धर्म का उद्देश्य समाज में विभेद पैदा करना नहीं, बल्कि लोगों के मध्य समरसता पैदा करना है। ऐसी धर्म-संसद से लोगों को बचकर रहने की आवश्यकता है। यह दुखद है कि राजनीतिक पार्टियां तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए ऐसी घटनाओं को प्रश्रय दे रही हैं। कांग्रेस पार्टी के सदस्य ने तो रायपुर की धर्म-संसद में भाग भी लिया…
आजकल महात्मा गांधी को सार्वजनिक तौर पर तरह-तरह से अपमानित करने का चलन हो गया है। मौजूदा सत्ता की शह पर गांधी को, उनकी धार्मिक मान्यताओं के लिए भी गरियाया जाता है। तो क्या गांधी के धार्मिक विश्वास तत्कालीन धार्मिक गिरोहों के विश्वासों से अलहदा थे? क्या आज भी गांधी का धर्म, धर्म की राजनीति करने वालों से नितांत भिन्न है? इस आलेख में इस विषय की पड़ताल करेंगे। महात्मा गांधी 12 अक्तूबर 1921 के 'यंग इंडियाÓ में लिखते हैं कि मैं अपने आपको सनातनी हिंदू कहता हूं, क्योंकि मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और समस्त हिंदू शास्त्रों में विश्वास करता हूं और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी मेरा विश्वास है। मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूं। इसे मैं उन अर्थों में मानता हूं जो पूरी तरह वेद सम्मत हैं, लेकिन उसके वर्तमान प्रचलित भोंडे रूप को नहीं मानता। मैं प्रचलित अर्थों से कहीं अधिक व्यापक अर्थ में गाय की रक्षा में विश्वास करता हूं। मूर्ति पूजा में मेरा विश्वास नहीं है। हिंदू धर्म के बारे में उनकी यह व्याख्या उस समय के हिंदुत्व से बिल्कुल अलग थी जिसका प्रतिपादन हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करते थे। गांधी की सर्व-धर्म-प्रार्थना में कुरान, बाइबल, गीता, बौद्ध, जैन, सिख धर्म का पाठन होता था और आज भी हो रहा है जिसमें आज की सत्ता के शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का भाग लेना अनिवार्य जैसा हो गया है।
गांधी का भारत हिंदू भारत न होकर देश के समस्त धर्मों, जीवन पद्धतियों, उपासना पद्धतियों, रीति-रिवाजों का समावेश था। गांधी जी स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्व धर्म संसद में दी गई हिंदू धर्म की उस परिभाषा के बिल्कुल निकट हैं जो उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में दी थी। 'मुझे गर्व है कि मैं उस हिंदू धर्म से हूं जिसने पूरी दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता की सीख दी। भारत की सभ्यता और संस्कृति सभी धर्मों को सच के रूप में मान्यता देती है और स्वीकार करती है। भारत एक ऐसा देश है जिसने सभी धर्मों और अन्य देशों में सताए हुए लोगों को भी अपने यहां शरण दी।' उन्होंने कहा 'हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़कर खंडहर में तब्दील कर दिया था। मुझे इस बात का भी गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और उन्हें पाल रहा है।' हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि हिंदू संगठनों के पास हिंदू भारत की अपनी कुछ व्याख्या थी जो उस समय स्पष्ट नहीं थी और आज भी बिल्कुल अस्पष्ट है। अभी हाल में हरिद्वार और रायपुर में संपन्न हुई धर्म-संसद में मुस्लिमों और ईसाइयों के प्रति जो घृणा फैलाई गई और मरने-मारने की बात कही गई, तो क्या ये माना जाए कि भारत के करोड़ों मुसलमानों को अरब सागर में बहा दिया जाएगा? क्या वे मानते हैं कि उनको आधुनिक हथियार से समाप्त कर दिया जाएगा? क्या वे मानते हैं कि ईसाई मतावलंबियों को देश से बाहर खदेड़ दिया जाएगा? यदि ऐसा संभव नहीं है तो क्या यह केवल राजनीतिक चालबाजियां हैं जो चुनाव के समय उभरकर आती हैं और वोटों का ध्रुवीकरण कर सत्ता प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा रखती हैं। यह देशहित में बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि आम हिंदू जन यह जानता है कि हिंदू धर्म सहिष्णु है और समानता के अधिकार पर इस धरती के सभी मतावलंबियों को जीने का अधिकार देता है।
यह परंपरा पूर्व में रही है। प्रथम सहस्त्राब्दी में हिंदू राजाओं ने भी कभी हिंदू राष्ट्र की बात नहीं की। धर्मसत्ता और राजसत्ता अलग-अलग थी। मोहन भागवत के इस विचार की संघ में ही स्वीकृति कठिन जान पड़ती है कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों और उनकी पूजा-पद्धति कुछ भी हो। यदि यह मान भी लिया जाए तो क्या अन्य धर्म मतावलंबी इस परिभाषा को मानने के लिए तैयार होंगे? क्या वे स्वयं को हिंदू कहलाना पसंद करेंगे? वर्ष 2022 में विभिन्न राज्यों के चुनाव आते ही ध्रुवीकरण का खेल आरंभ हो गया है जो खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। हरिद्वार की धर्म-संसद में कई उग्र संतों ने मुस्लिमों के कत्लेआम का आह्वान किया है। हिंदू महासभा के महामंत्री और निरंजनी अखाड़े के महामंडलेश्वर अन्नपूर्णा ने हिंदू सनातन धर्म को बचाने के लिए हथियार के प्रयोग की धमकी दी है। डासना देवी मंदिर, गाजियाबाद के यति नर्सिंघानंद ने भी धर्म, समाज में नफरत फैलाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। धर्म-संसद में उपस्थित कई संतों ने नाथूराम गोडसे का गुणगान किया और धर्मदास महाराज ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि यदि वे लोकसभा में होते तो पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के सीने में छह गोली दाग देते, क्योंकि उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय संपदाओं पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। अभी हरिद्वार के धर्म संसद की सनसनी समाप्त नहीं हुई थी कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की धर्म-संसद में हिंदू नेता कालीचरण ने महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द कहते हुए उनके कातिल नाथूराम गोडसे की प्रशंसा की और उन्हें धन्यवाद दिया। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर केंद्र सरकार की खामोशी कई सवाल खड़े करती है। ऐसी घटनाओं के खिलाफ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है अन्यथा धार्मिक उन्माद फैलाकर देश की सत्ता तो प्राप्त की जा सकती है, परंतु विकास संभव नहीं है। धर्म का उद्देश्य समाज में विभेद पैदा करना नहीं, बल्कि लोगों के मध्य समरसता पैदा करना है। ऐसी धर्म-संसद से लोगों को बचकर रहने की आवश्यकता है। यह दुखद है कि राजनीतिक पार्टियां तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए ऐसी घटनाओं को प्रश्रय दे रही हैं।
कांग्रेस पार्टी के सदस्य ने तो रायपुर की धर्म-संसद में भाग भी लिया और मुख्यमंत्री समापन समारोह में भाग लेने वाले थे, पर विवाद की स्थिति में नहीं गए। आयोजन कर्ताओं में कांग्रेस और भाजपा दोनों के विधायक शामिल थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द कहने और नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है। भारत सहित पूरे विश्व में गांधीजी को मानने वाले लोग हैं। देश के जाने-माने वकीलों द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को स्वतः संज्ञान लेने के लिए लिखा गया पत्र यह जाहिर करता है कि देश में संवैधानिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए अभी भी प्रतिबद्धता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे उन्मादी लोगों की गिरफ्तारी में भी राजनीति की गई। ऐसे लोगों से सख्ती से निपटने की आवश्यकता है, चाहे वहां किसी भी दल की सरकार हो। ऐसी घटनाएं देश में नफरत की आंधी चला सकती हैं। यह एक अच्छी बात है कि हरिद्वार के विभिन्न अखाड़ों के संतों, जिनमें महानिर्वानी अखाड़ा के महंत रविंद्र पुरी व जयराम आश्रम के पीठाधीश्वर ब्रहमचारी ब्रह्मस्वरूप भी शामिल हैं, ने उन संतों के भड़काऊ और घृणित बयानों की निंदा की है जो धर्म-संसद में कहे गए। उनका कहना है कि सार्वजनिक स्थानों पर अपनी बात कहते हुए संतों को भाषा पर संयम रखना चाहिए। वे वास्तव में संत कहे जाने के योग्य नहीं हैं। देश के राजनीतिज्ञों को भी इन संतों का अनुसरण करते हुए ऐसी घटनाओं की निंदा करनी चाहिए।
अशोक शरण
स्वतंत्र लेखक
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