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- कश्मीर में गांधी जयंती...
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दो अक्तूबर को सारे देश में गांधी जयंती मनाई जाती है। यह कोई नया रहस्योद्घाटन नहीं है। जम्मू-कश्मीर में भी किसी न किसी रूप में यह जयंती मनाई ही जाती है। महात्मा गांधी का कश्मीर से वैसे भी विशेष संबंध रहा है। पाकिस्तान बनने से कुछ दिन पूर्व वे श्रीनगर जाकर महाराजा हरि सिंह व शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के परिवार सहित कश्मीरियों से मिल कर भी आए थे। उन्होंने कहा भी था कि अब की हालत में कश्मीर अंधेरे में आशा की किरण है। उन्होंने कोई सार्वजनिक कार्यक्रम तो नहीं किया था, लेकिन अपना प्रिय भजन 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' वे गाते रहे थे। अब की बार जम्मू-कश्मीर सरकार ने दो अक्तूबर को महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए निर्णय किया है कि सभी शैक्षणिक संस्थानों में सर्व धर्म संवाद का प्रतीक यह भजन गाया जाएगा। लेकिन इसको लेकर घाटी में दो गुट बन गए हैं। एक एटीएम यानी कश्मीर में रह रहे (अरब, तुर्क, मुगल) मूल के मुसलमानों का और दूसरा डीएम यानी देसी मुसलमान कश्मीरियों का। एटीएम की ओर से मोर्चा पीडीपी की अध्यक्षा सैयदा महबूबा मुफ़्ती ने संभाला है।
सैयद अरब मूल के मुसलमान हैं जिनके पूर्वज कश्मीर घाटी में तैमूरलंग की मार से डरते हुए कश्मीर घाटी में आए थे और यहां के स्थानीय शाहमीरी व दरद शासकों के साथ मिल कर कश्मीरियत को मतांतरित करने का काम किया था। अब 2022 में भी सैयदा महबूबा मुफ़्ती कह रही हैं कि कश्मीर के मुसलमान 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सम्मति दे भगवान' नहीं गा सकते क्योंकि इससे इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है। इस भजन के अर्थ समझने के लिए शायद महबूबा मुफ़्ती को अरबी भाषा की डिक्शनरी खोलने की जरूरत नहीं है। गुपकार रोड के पढ़े-लिखे बाशिंदे की बात छोड़ भी दें तो डल झील पर रहने वाला कोई हांजी भी आराम से बता देगा कि इस भजन में ख़तरे वाली कोई बात नहीं है, केवल परमात्मा से (जिसके नाम अलग-अलग हैं, मसलन अल्लाह, ईश्वर) गुज़ारिश की गई है कि सभी प्राणियों को अच्छी बुद्धि दें, ताकि वे अच्छे काम कर सकें। हांजियों का जिक़्र मैंने इसलिए किया है क्योंकि एटीएम की नजऱ में हांजी अरजाल या पसमांदा में आता है। एटीएम तो अपने आप को अशरफ कहता है यानी सबसे ऊंचा। पसमांदा यानी सबसे नीचे। अशरफ की नजऱ में जो पसमांदा है वह भी समझता है कि ईश्वर और अल्लाह एक ही चीज़ है। लेकिन महबूबा मुफ़्ती नहीं समझ सकती। बात स्पष्ट है। यदि अल्लाह से अशरफ को भी सम्मति मिल गई तो कश्मीर घाटी में उग्र अनेक समस्याओं का अंत नहीं हो जाएगा? हांजी, भंगी, गुज्जर और अशरफ एक दस्तरख़ान पर नहीं बैठ जाएंगे? किसी सैयदा की डोली गुज्जर के घर नहीं उतर आएगी? फिर गुपकार रोड और शेख या भंगी बस्ती रोड का फर्क नहीं मिट जाएगा? इसलिए महबूबा मुफ़्ती ने 'सम्मति' यानी निर्मल बुद्धि सभी को मिले, इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। लेकिन इसके लिए बहाना उन्होंने वही पुराना ही लिया है जो उनके बुजुर्ग भी लिया करते थे, यानी इससे इस्लाम ख़तरे में पड़ जाएगा। जबकि वे अच्छी तरह जानती हैं कि इससे इस्लाम नहीं बल्कि गुपकार रोड ख़तरे में पड़ जाएगा। लेकिन गुपकार रोड के ही फारूक अब्दुल्ला ने महबूबा मुफ़्ती के इस अभियान को ललकारा है। फारूक अब्दुल्ला का कहना है कि यह भजन गाने से इस्लाम के ख़तरे में पडऩे की बात कहां से आती है? उनका कहना है कि मैं तो राम के भजन गाता हूं। इससे इस्लाम ख़तरे में नहीं पड़ता। यानी फारूक अब्दुल्ला महबूबा मुफ़्ती के इस कश्मीर विरोधी चिंतन से सहमत नहीं हैं। लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि वे कश्मीर के डीएम यानी देसी मुसलमान हैं।
उनके पूर्वज न तो अरब के सैयद हैं और न ही मध्य एशिया के तुर्क व मुगल। वे खांटी कश्मीरी हैं। यह ठीक है कि जब उनके बुज़ुर्गों ने अपना पंथ छोडक़र अरब का मत ग्रहण किया तो उनको लगा होगा कि नाम के साथ कोई अरबी पंख लगा लिया जाए ताकि एटीएम के लोग उन्हें भी अपनी बिरादरी का मान लें। इसलिए उन्होंने अपने नाम के आगे अरबी टाइटल शेख लिखना शुरू कर दिया था। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें आभास होने लगा था कि अरबी टाइटल लगा लेने से भी एटीएम उन्हें अशरफ नहीं मानेगा, बल्कि अफजाल/अजलाफ, पसमांदा ही रहने देगा। फारूक अब्दुल्ला के पिता मोहम्मद अब्दुल्ला तक अपने नाम के आगे शेख लिखते रहे, लेकिन उनको शायद अपने जीवन काल में ही आभास हो गया था कि एटीएम देसी मुसलमान यानी डीएम को अपने बराबर बैठने नहीं देगा, इसलिए उन्होंने अपनी संतान के आगे शेख लिखना बंद कर दिया था। कश्मीर के देसी मुसलमान का जीना-मरना देसी के साथ ही संभव है, एटीएम के साथ नहीं जिनकी अपनी ही साम्राज्यवादी मानसिकता अभी भी बरकऱार है। वे अभी भी 'भारत पर हम शासक रहे हैं' की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा महाभारत सीरियल के संवाद लिखने वाले डा. राही मासूम रजा ने भी किया था जो पहले अपने आप को सैयद लिखते थे। उनके पूर्वज ब्राह्मण थे। लेकिन जब सैयद लिखने पर भी एटीएम ने घास नहीं डाली तो उन्होंने सैयद लिखना बंद कर दिया और देसी मुसलमानों की अपनी बिरादरी में वापस लौट आए थे। फारूक अब्दुल्ला का कि़स्सा भी कुछ ऐसा ही है। अब वे अपनी देसी कश्मीरी बिरादरी में लौट आए हैं। यही कारण है कि उनके लिए ईश्वर और अल्लाह एक समान हो गए हैं। सबको सम्मति मिलनी चाहिए, इसकी प्रार्थना तो कश्मीरी सदियों से करते आए हैं। कश्मीरी ने नुन्द ऋषि के आश्रम को अपना माना क्योंकि नुन्द ईश्वर और अल्लाह के अभेद होने का प्रचार करते थे, लेकिन एटीएम ने नुन्द ऋषि के चरारेशरीफ को जला दिया था क्योंकि उन्हें नुन्द ऋषि का यह आचरण पसंद नहीं था । ऋषि परम्परा की शुरुआत लल्लेश्वरी ने की थी जो शिव भक्त थी। आज कश्मीरियों को ईश्वर के अल्लाह स्वरूप को अपनाए हुए पांच-छह सौ साल हो गए हैं। लेकिन उसके बावजूद जेहलम के किनारे खड़े होकर क्या गाता है? ऊपर अल्लाह नीचे लल्ला। इसी का सरलीकरण किया जाए तो गांधी का वह भजन 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सम्मति दे भगवान' बनता है जिसे आज सारा कश्मीर गाना चाहता है, लेकिन एटीएम की महबूबा मुफ़्ती के गले नहीं उतर रहा। इन मुफ़्ितयों, मौलवियों और काजियों की यही सबसे बड़ी दिक्कत है। वे पांच सौ साल रह कर भी कश्मीरियों की संस्कृतियों को आत्मसात नहीं कर पाए। वे आज भी यही आशा लगाए बैठे हैं कि कश्मीरी कभी न कभी अपनी केसर क्यारियों में से केसर के पौधे उखाड़ कर यहां अरबी खजूरों के पेड़ लगा देंगे। लेकिन कश्मीर में यह संभव नहीं है। फारूक अब्दुल्ला इसको बख़ूबी समझते हैं। महबूबा मुफ़्ती चाह कर भी समझ नहीं सकतीं, क्योंकि उनका मन अभी भी कश्मीर की केसर क्यारियों की बजाय अरब के रेगिस्तानों में भटकता है। इसे कश्मीरियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि खांटी कश्मीरी शेख अब्दुल्ला अपने व्यक्तिगत राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए, कश्मीरियों की चिंता न करते हुए, बीच-बीच में एटीएम मूल के लोगों से हाथ मिलाते रहे। यहां तक कि फारूक अब्दुल्ला भी कुर्सी की ख़ातिर मीरवायजों की अवामी एक्शन कमेटी के चक्करों में फंसते रहे। यदि ऐसा न होता तो आज कश्मीर एटीएम मूल के देसी-विदेशी आतंकवादियों का शिकार न होता। कहा गया है, जब जागो तभी सवेरा।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल: Ñ[email protected]
By: Divyahimachal
Rani Sahu
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