सम्पादकीय

ग्लास्गो में दांव पर भविष्य

Rani Sahu
29 Oct 2021 6:23 PM GMT
ग्लास्गो में दांव पर भविष्य
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जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए जब तमाम वैश्विक नेता कॉप-26 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन) के लिए ब्रिटेन में मिलें

सुनीता नारायणजलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए जब तमाम वैश्विक नेता कॉप-26 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन) के लिए ब्रिटेन में मिलें, तब यह मन बनाकर बैठें कि इस बार संकट से निपटने के लिए तत्काल और कठोर कार्रवाई की जरूरत से कतई पीछे नहीं हटना है। जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरे को समझने के लिए हमें अब किसी विज्ञान की दरकार नहीं है। हम इसे अपने आसपास देख रहे हैं। चरम मौसमी घटनाओं की आमद बढ़ रही है, और वे अर्थव्यवस्था व जान-माल के लिए भी विनाशकारी साबित होने लगी हैं। तो कॉप-26 का एजेंडा क्या होना चाहिए?

सबसे पहला और महत्वपूर्ण एजेंडा तो यही हो कि यह सम्मेलन जलवायु न्याय की अनिवार्यता को समझे। यह सिर्फ नैतिकता का मसला नहीं है। इसके कारण बेशक असहज करते हैं, लेकिन काफी सरल हैं। कार्बन डाई-ऑक्साइड लंबे समय तक आबोहवा में बना रहता है, इसलिए अतीत में जो उत्सर्जन हुआ है, वह वायुमंडल में जमा है और तापमान को बढ़ाता है। फिर, कार्बन डाई-ऑक्साइड का जुड़ाव दुनिया के आर्थिक पहिए से भी है। जीवाश्म ईंधन अब भी विकास का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। और, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि लाखों लोग अब भी आर्थिक प्रगति का लाभ पाने का इंतजार कर रहे हैं, यानी सस्ती ऊर्जा तक पहुंच बनाने के लिए उनकी जद्दोजहद जारी है। यह बैठक ऐसे समय में हो रही है, जब दुनिया ने विकास की जरूरत को पूरा करने के लिए कार्बन स्पेस (वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ाने की सीमा) खत्म कर दी है।
तब उभरते राष्ट्र आखिर क्या करें? उनका विकास (जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल शामिल है) संकट को बढ़ा सकता है। सवाल यह भी है कि इस विकास का किस तरह से कायांतरण किया जाए कि कार्बन का कम से कम उत्सर्जन हो या वह वहन के योग्य हो? महज उभरती अर्थव्यवस्थाओं (इसमें भारत भी शामिल है) के कान खींचना उचित नहीं है। उन्हें नीतिगत मोर्चे पर सहायता की जरूरत है और बदलाव को संभव बनाने के लिए उनको वैश्विक आर्थिक मदद भी चाहिए।
काफी अरसे से वार्ताओं में जलवायु समानता को खत्म करने या कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यही कारण है कि 2015 के पेरिस समझौते की भरपूर सराहना की गई, जबकि इसने यह सोच भी खत्म कर दी कि जलवायु संकट के कारण देशों को जो नुकसान हुआ है, उसका उनको 'मुआवजा' मिलना चाहिए। इतना ही नहीं, इसने जलवायु कार्रवाई का एक कमजोर और अर्थहीन ढांचा तैयार किया है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि कोई देश क्या कर सकता है? कार्बन उत्सर्जन के आधार पर उसे क्या करना चाहिए, इसकी उम्मीद इसमें नहीं की गई है।
लिहाजा, यह आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) दुनिया को न्यूनतम तीन डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि या उससे भी अधिक की ओर ले जाता है। एनडीसी राष्ट्र के स्तर पर कमी लाने संबंधी लक्ष्य के लिए संयुक्त राष्ट्र का महज शब्दजाल है। यही कारण है कि भविष्य की कार्रवाइयां इस सच को जानते-समझते हुए तय की जानी चाहिए कि हमें जलवायु समानता की जरूरत है और इस पर हर हाल में काम होना चाहिए।
दूसरा एजेंडा, कॉप-26 को 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का खोखला वादा नहीं करना चाहिए। इसमें इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि देश 2030 तक अपने उत्सर्जन में कमी कैसे लाएंगे। तथ्य यही है कि पुराने औद्योगिक देश और नए-नवेले औद्योगिक राष्ट्र चीन ने 2019 तक 73 फीसदी कार्बन स्पेस का इस्तेमाल कर लिया है, और कमी संबंधी लक्ष्य के बावजूद वे 2030 तक बजट का 70 फीसदी हिस्सा हथिया लेंगे।
अकेले चीन 2020 और 2030 के बीच उपलब्ध कार्बन बजट का 33 फीसदी हिस्सा उपयोग करेगा। उसने अभी तक उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है, मगर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने के बड़े-बड़े वायदे जरूर करने लगा है। वास्तव में, 2019 में चीन में गैर-जीवाश्म ईंधन से होने वाला ऊर्जा उत्पादन भारत की तुलना में कम था। लिहाजा, समय आ गया है कि चीन को ग्रुप-77 से अलग कर दिया जाए। कॉप-26 को इसे बाहर निकालने के लिए साहस दिखाना होगा।
तीसरा एजेंडा, कॉप-26 को बदलाव संबंधी योजनाओं पर जोर देना चाहिए। यहां कोयले के मुद्दे की चर्चा होनी चाहिए। ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग अतीत में उत्सर्जन का सबसे बड़ा कारक रहा है। आज 40 फीसदी उत्सर्जन की वजह यही है और भविष्य में भी कमोबेश यही तस्वीर रहेगी। लिहाजा, औद्योगिक हो चुके राष्ट्र के लिए सबसे पहले और फिर चीन के लिए सिलसिलेवार तरीके से कोयले का इस्तेमाल बंद हो जाना चाहिए। इसके साथ-साथ इस पर भी काम होना चाहिए कि भारत या अफ्रीकी देशों में नए कोयला संयंत्र न लगें। यह बदलाव तभी संभव है, जब इनको आर्थिक मदद मिलेगी, ताकि वे अपने यहां ऐसा तंत्र बना सकें, जिसमें गरीब से गरीब आदमी को भी सस्ती बिजली मिले।
भारत के लिए कोयले का सवाल घरेलू वजहों से भी खासा महत्वपूर्ण है। हमें पुराने व बेकार हो चुके बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना होगा और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि सभी मौजूदा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से सुसज्जित हों, ताकि प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में सफलता मिले। सच यह भी है कि हमारा ऊर्जा संकट केवल कोयले से नहीं जुड़ा, बल्कि वितरण प्रणाली की खामियों से भी नत्थी है। हम आज बिजली पैदा करने के लिए सबसे सस्ते और गंदे कच्चे माल का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जब बिजली की आपूर्ति होती है, तब यह दुनिया में सबसे महंगी सेवा बन जाती है। यही वजह है कि बिजली संयंत्रों में छोटे व कमजोर बॉयलरों में कोयले जलाए जाते हैं और ओबाहवा धुएं से जहरीली हो जाती है। यह समस्या जल्द दूर होनी चाहिए, ताकि हमारी बिजली स्वच्छ हो। जलवायु संकट व स्थानीय वायु प्रदूषण से मुकाबला करने और वंचितों तक बिजली की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए ऐसा किया जाना अति-आवश्यक है।
साफ है, जलवायु संकट अब हमारे अस्तित्व को डिगाने लगा है। कॉप-26 में यही दांव पर है। इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


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