सम्पादकीय

बुनियादी परिवर्तन नारीवादी नजरिए से ही संभव; हर तबके की महिलाओं को राजनीतिक मंच पर परिपूर्ण यानी 50% स्थान चाहिए

Gulabi
4 March 2022 8:49 AM GMT
बुनियादी परिवर्तन नारीवादी नजरिए से ही संभव; हर तबके की महिलाओं को राजनीतिक मंच पर परिपूर्ण यानी 50% स्थान चाहिए
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बुनियादी परिवर्तन नारीवादी नजरिए से ही संभव
मेधा पाटकर का कॉलम:
आज आम जनता के सामने चुनौतियां हैं-अपनी जिंदगी को आजीविका के साथ जीने की। इसी दौरान महिला दिवस हमें नारीवादी नजरिए को उजागर करने का मौका देता है। परिवार से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक महिलाओं का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक योगदान भी क्या नकारा जा सकता है? बच्चे को जन्म देने वाली मातृत्व शक्ति कर्तत्व में भी अपना अवकाश पाकर नई पीढ़ी के निर्माण में भी सबसे अधिक सहभागी रहती है।
पुरुष-प्रधान समाज में व्यवस्थित स्थान और सम्मान के लिए ही नहीं, अपने और समाज के अस्तित्व की समस्याओं को लेकर चले हर संघर्ष में उसे लड़ना भी पड़ता है। जिंदगी के कई मोड़ पर आवाज उठानी पड़ती है- 'मैं न देवी हूं, न दासी, इंसान हूं मैं! इंसानियत बचाने, हर इंसान को शांतिपूर्ण, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के साथ-साथ इंसानी रिश्ते-नातों के साथ जीने का अधिकार मिले, इसलिए चल रहे संघर्षों में नारी शक्ति का योगदान एक आधार स्तंभ बनता है। 'नारी के सहभाग बिना, हर बदलाव अधूरा है।'
इस नारे के साथ वह उतरती है धरातल पर जब, तब सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने वाली जनशक्ति में जीवटता का उभार लाती है। हमने अपने ऐसे ही जीवनभर के संघर्षों में यह महसूस किया है कि महिलाओं की सृजनशीलता एक नया रंग लाती है। नर्मदा घाटी के पिछले 36 साल के अहिंसक संघर्ष में सतपुड़ा-विन्ध्य की पहाड़ी महिलाओं के साथ मैदानी निमाड़ की महिलाओं का सहभाग ताकतवर रहा। हर कार्यक्रम में महिलाओं की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।
हर वक्त उनके नारे, उनकी कृतियां, गीत और अधिकारियों से या किसी मंत्री-मुख्यमंत्री के साथ बहस में नम्रता के साथ एक जिद और आत्मविश्वास रहता आया है। उनके माध्यम और अभिव्यक्ति में भरा होता है अनोखापन-दर्द के साथ। याद आती है जब विश्व बैंक के एक अधिकारी के साथ दिल्ली के उनके कार्यालय के बाहर बातचीत करते वक्त अचानक भगवान भाई की बूढ़ी मां ने उनकी कॉलर पकड़ी तो मैं चौंक गई। लेकिन कुछ ही क्षणों में स्पष्ट हुआ कि वह हिंसा नहीं, प्यार की आग्रही बात थी- 'बेटा, तुम्हारे घर में मां, बहन कोई है या नहीं?'
यह नारीवादी ऐलान था, महिलाओं पर पड़ी विस्थापन की गाज के साथ। देशभर में जारी किसान-मजदूरों का संघर्ष महिलाओं को अपना स्थान, सम्मान और हक के प्रति जागरूकता ला रहा है। दलित-खेत मजदूर हो या आदिवासी, प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की लड़ाई आज भी जारी है। 13 महीनों के किसान आंदोलन में पिछले साल महिला दिवस पर 40 हजार महिलाएं दिल्ली की सीमाओं पर पहुंची थीं। आंदोलन में भी अपना हक और अवकाश पाने की लंबी प्रक्रिया महिलाओं को चलानी पड़ती है, यह भी हमने जाना है।
आज कुछ मनुवादी, सांप्रदायिक तत्व जब महिलाओं को लक्ष्य बनाकर अपना विभाजन का उद्देश्य बढ़ाते हैं तो महिलाओं पर अत्याचार, स्त्रीत्व के वस्तुकरण का नतीजा भी होता है। दोयम दर्जे की उपभोग्य वस्तु की यह पहचान नकारने के लिए स्त्री को जरूरी होती है एक नई पहचान। किसी भी प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा का सबसे बुरा असर महिलाओं पर होता है। कोरोना जैसी आपदा में महिलाओं को घरेलू हिंसा और भ्रूण हत्या से बाल विवाह तक का आघात भुगतना पड़ा है। मात्र 500 रु. का जनधन नहीं, महिला सुरक्षा के लिए रोजगार जरूरी है।
बेटी बचाओ-पढ़ाओ का नारा नहीं, गरीबों की बेटियों को अच्छे दर्जे की शिक्षा भी मुफ्त में मिलना चाहिए। गृहोद्योग, ग्रामोद्योग व छोटे उद्योगों में महिलाओं को प्राथमिकता, मनरेगा से हर साल 200 दिन के रोजगार सुनिश्चित करने के लिए बजट कम करने के बदले बढ़ाई क्यों नहीं? देश की या राज्य की नीतियां और कानून मनमाने तरीके से बदलना न हो, इसलिए भी हर तबके की महिलाओं को हर राजनीतिक मंच पर परिपूर्ण यानी 50% स्थान चाहिए।
75 साल तक आजाद भारत में यह न मिलने से 8 मार्च के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को ही मानो भूला जा रहा है। ऐसी स्थिति में संसद बाह्य राजनीति और जनांदोलन की आजादी और अधिकार हम जरूर लेकर रहेंगे।
आंदोलन जरूरी है...
किसान आंदोलन के बाद महिला हक आंदोलन जरूरी है। समता, न्याय, शांति, अहिंसा, जनतंत्र द्वारा संवैधानिक दायरे में हमें बुिनयादी परिवर्तन चाहिए। तो आइए, नारीवादी नजरिए को अपनाने का संकल्प लेकर आगे बढ़ें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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