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- महंगाई का ईंधन
Written by जनसत्ता: पिछले कुछ समय से रोजमर्रा की जरूरतों के सामान की कीमतें आम लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही हैं। ऐसे में सरकार की कोशिश यह होनी चाहिए थी कि वह लोगों को महंगाई से राहत दिलाने के लिए ऐसे उपाय निकाले, ताकि आम आबादी के बीच आय और खर्च को लेकर संतुलन बना रहे। मगर हालत यह है कि बाजार में अमूमन सभी वस्तुओं की कीमतों में कमी के बजाय इजाफा ही होता जा रहा है। खाने-पीने की चीजों तक के दाम लंबे समय से जिस स्तर पर हैं, उससे बहुत सारे लोगों के सामने अलग-अलग स्तर पर मुश्किलें खड़ी हो रही हैं।
इस बीच, डीजल की थोक खरीदारी में एक साथ पच्चीस रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी का बाजार पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। यों डीजल के दाम में वृद्धि के पीछे सरकार की दलील यह है कि बढ़ोतरी केवल थोक खरीदारी के लिए की गई है और खुदरा बिक्री पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। यह भी बताया जा रहा है कि ताजा कदम के पीछे रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में आई तेजी है। इसकी वजह से बस या माल जैसे व्यावसायिक परिसरों के लिए डीजल की खरीदारी से तेल कंपनियों को नुकसान हो रहा था।
विचित्र यह है कि अगर कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में किसी वजह से गिरावट आती है, तब शायद ही खुले बाजार में पेट्रोल या डीजल के दाम में कमी की जाती है। मगर अक्सर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के मूल्यों में तेजी हवाला देकर इसकी कीमतों में इजाफा कर दिया जाता है। सवाल है कि अगर बड़े वाहनों, व्यावसायिक परिसरों, हवाईअड्डों और औद्योगिक इस्तेमाल में खपत के लिए इतनी ऊंची कीमत पर डीजल खरीदा जाएगा, तो क्या इसका असर इनसे संबंधित व्यवसायों पर नहीं पड़ेगा?
क्या थोक में महंगे तेल की खरीदारी की भरपाई करने के लिए बड़े वाहन माल ढुलाई या यात्री किराया बढ़ा कर नहीं करेंगे? यह किसी से छिपा नहीं है कि समूचे देश में जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा सड़क परिवहन पर निर्भर है। डीजल की कीमतों में किसी भी इजाफे का सीधा असर खुले बाजार में बिकने वाली हर वस्तु पर पड़ता है। ऐसे में डीजल की खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी नहीं होने का आश्वासन सिर्फ दिलासा भर है।
दरअसल, बीते कुछ वक्त से पेट्रोल और डीजल के दाम स्थिर रहे थे। माना जा रहा है कि इसके पीछे विधानसभा चुनाव बड़ी वजह रहे, जिसमें महंगाई का असर वोटों पर पड़ सकता था। अब पांच राज्यों में चूंकि चुनाव खत्म हो गए हैं, इसलिए एक साथ पच्चीस रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी के बावजूद इसका कोई राजनीतिक जोखिम नहीं है। लेकिन क्या एक लोकतांत्रिक ढांचे में किसी भी सरकार के ऐसे रुख को जनपक्षीय कहा जा सकता है?
यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले दो सालों से महामारी पर काबू पाने के लिए लगाई गई पूर्णबंदी आदि वजहों से ज्यादातर आबादी की आय या तो रुक गई है या फिर खत्म हो गई है। करोड़ों लोगों के रोजगार पर आफत आई है। लोग किसी तरह अपना काम चला रहे हैं। ऐसे में परोक्ष रूप से बढ़ाई गई कीमतें पहले से ही महंगाई के मोर्चे पर जूझ रही आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए नई मुश्किलें खड़ी करेंगी। सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि वह आम जनता की माली हालत समझते हुए इस तरह के फैसलों के बजाय अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कोई वैकल्पिक उपाय करे।