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पूजा सिंहल के सीए के यहां से बरामद 20 करोड़ रुपये ने देश को पहली बार नहीं चौंकाया है
Faisal Anurag
पूजा सिंहल के सीए के यहां से बरामद 20 करोड़ रुपये ने देश को पहली बार नहीं चौंकाया है. राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के गठजोड़ से की गयी लूट ने देश को खोखला कर दिया है. लेकिन कुछ दिनों की सनसनी के बाद देश ने पहले भी देखा है कि सब कुछ यथावत ही चलने लगता है. नीचे से ऊपर तक लूट की साझेदार बिना किसी बाधा के जारी रहती है. कुछ राजनीतिज्ञों के लूट की दास्तान से लंबे समय से स्थिर हो चुके भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार करने में हर बार नाकामयाब ही साबित होती है. औद्योगिक जगत के किसी दिग्गज के खिलाफ कार्रवाई तो कम ही होती है. भ्रष्टाचार को जड़ से उन्मूलित करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति केवल अखबारी हेडलाइन बन कर रह जाती हैं.
2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था. नारा भी गढ़ा गया था बहुत हुआ भ्रष्टाचार अबकी बार मोदी सरकार. लेकिन पिछले आठ सालों में कालाधन और भ्रष्टाचार को खत्म करने के कितने कारगर प्रयास हुए हैं इसका लेखाजोखा भ्रष्टाचार करने वालों को निडर ही बना देता है. अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए हुए आंदोलन, 2014 में सत्ता परिवर्तन,2016 में कालाधान पर प्रहार के नाम से अचानक थोपी गयी नोटबंदी और सरकारी एजेंसियों की छापेमारी को लेकर उड़ते राजनैतिक प्रतिस्पर्धा के सवालों को यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इसके पहले 1974 का जयप्रकाश आंदोलन भी भ्रष्टाचार पर बहस खड़ा करने के बावजूद किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुचा. उसके गर्भ से निकले नेता हों या अफसर उनके भ्रष्टाचार की कहानियां किसी से छुपी नहीं हैं.
प्रख्यात भारतीय अर्थशास्त्री प्रो. अरूण कुमार की पुस्तक "अंडरस्टैंडिंग द ब्लैक इकॉनमी एंड ब्लैक मनी इन इंडिया" के अनुसार भारत की ब्लैक इकॉनमी का कुल मूल्य देश की GDP के 62 प्रतिशत के बराबर है. क्या नोटबंदी के बाद यह आंकड़ा बदल गया. बिल्कुल नहीं बदला. न ही विदेशों में कालाधान जाने की प्रक्रिया थमी या फिर विदेशी बैंकों से कालेधन की वापसी हुयी. ऐसा क्यों नहींआ.इन तमाम सवालों के उत्तर में ही निहित है कि देश का राजनैतिक निजाम किस तरह खोखले अंदाज में भ्रष्टाचार के औद्योगिक,नौकरशाही और राजनीतिक गठजोड़ को खत्म करने की दिशा में कदम उठा रहा है.
रिजर्व बैंक ने 2017-18 के लिये अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत की तो यह तथ्य सामने आया कि प्रतिबंधित नोटों में लगभग 99.3 प्रतिशत नोट बैंकों में वापस आ गए हैं. तो नोटबंदी के पहले जिस कालेधान को लेकर शोर मचाया गया था वह आखिर गया कहां. इसकी कितनी ईमानदारी और संजीदगी से जांच हुयी. वस्तुतः नोटबंदी के विकल्प के अतिरिक्त काला धन अधिनियम को भी एक महत्त्वपूर्ण उपकरण माना जा रहा था, जिससे लोगों को अपेक्षा थी कि सरकार को इससे काफी अधिक मात्रा में काले धन की राशि प्राप्त होगी. परंतु 2029 के मई माह में जारी आंकड़ों के अनुसार उन विदेशी संपत्तियों से मात्र 12,500 करोड़ रुपए ही प्राप्त किये जा सके. तो यह है वह वास्तविकता जो किसी पूजा सिंहल या फिर छत्तीसगढ़ के आइएस बाबूलाल अग्रवाल या फिर मध्य प्रदेश के टीत जोशी को निडर बना देता है.
यूपी के पियूष जैन के यहां प्राप्त किए गए 150 करोड़ ने राजनीति को भी बेपर्द किया. लेकिन जैन या किसी नेता के संबंधों को लेकर मीडिया चर्चा के बाद सवाल दबा दिए गए.राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में कितना भ्रष्टाचार से प्रप्त कालाधान हैं यह तो कभी सार्वजनिक नहीं होगा. लेकिन एडीआर जैसे अनेक संस्थानों ने राजनीतिक चंदों की पारदर्शिता का सवाल बारबार उठाया है. यूं ही नहीं है कि चुनावी अभियानों में काले धन की की प्रचुरता नौकरशाही, औद्योगिक घरानों और नेताओं को सामूहिक रूप से जिम्मेदार ठहराते हैं. संसद या विधानसभा चुनावों अथवा स्थानीय स्तर पर किसी अन्य प्रकार के चुनावों के लिये उम्मीदवारों द्वारा किये गए अभियानों के कारण करोड़ों की काली कमाई पैदा होती है.
आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने तकरीबन 3,166 करोड़ रुपए से अधिक नकद, शराब, ड्रग्स और ज्वैलरी जब्त की गयी थी.जो राज्य खनिज संपाद से परिपूर्ण हैं वहां गरीबों के मनरेगा को भी नहीं छोड़ने वाले अफसर और नेता किस तरह खुल कर राज्य संपदा की लूट करते हैं. किसी से छुपा नहीं है. शायद ही कोई ऐसी योजना हो जिसे मलाईदार समझ कर खोखला करने की होड़ नहीं हो. पूरी बीमारी के समूल इलाज के बगैर यह मर्ज तो कभी कभी खबरों की सुर्खियां बन कर भी भ्रष्टाचारमुक्त महौल बनाने में कारगर साबित नहीं होंगी.
Rani Sahu
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