सम्पादकीय

संवेदना से शून्य की ओर

Subhi
5 Oct 2022 6:15 AM GMT
संवेदना से शून्य की ओर
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जिस जिंदगी में भाव और संवेदना मूल तत्त्व होते थे, अब उन्हें या तो दरकिनार किया जा रहा है या फिर उनका होना जरूरी नहीं समझा जा रहा। क्या पता कि ऐसा करने वाले लोगों को खुद भी अंदाजा नहीं हो

निधि गोयल: जिस जिंदगी में भाव और संवेदना मूल तत्त्व होते थे, अब उन्हें या तो दरकिनार किया जा रहा है या फिर उनका होना जरूरी नहीं समझा जा रहा। क्या पता कि ऐसा करने वाले लोगों को खुद भी अंदाजा नहीं हो कि वे अपने इंसान होने के एक बुनियादी मूल्य को खो रहे हैं! दरअसल, आजकल इंसान की शक्ल में हम सब जो जिंदगी जी रहे हैं, शायद इसके बहुत से पहलू कभी सपनों की तरह लगते थे हमें। और जब इसके कुछ हिस्से हमें सच होते हुए दिख भर रहे हैं तो हम भी इसी घमंड में किसी जिद्दी बच्चे की तरह बस जीए जा रहे हैं, जिसमें बस सब कुछ पा लेने की इच्छा हो।

इस क्रम में यह भूल जा रहे कि इस तरह की जिंदगी में सिर्फ दिखावा और दूसरों से आगे बढ़ने की होड़ हमें किसी संवेदनहीन व्यक्ति या इससे आगे क्रूर के बराबर नहीं तो इससे कम भी नहीं बना रही। कुछ समय पहले एक खबर सुर्खियों में आई थी, जिसमें किसी सोसाइटी की लिफ्ट के बाहर एक छोटे बच्चे को एक पालतू कुत्ते ने काट लिया।

लेकिन वीडियो के मुताबिक कुत्ते के काटने के बाद भी कुत्ते की मालकिन उस महिला की प्रतिक्रिया बहुत ही संवेदनहीन लगी। चूंकि इस घटना का वीडियो बहुत सारे लोगों तक पहुंच गया था, इसलिए आमतौर पर सबको उस महिला की संवेदनहीनता विचित्र लगी होगी। दरअसल, हमारे समाज में महिलाओं को जिस तरह ममता के भाव से भरे हुए व्यक्तित्व और आचरण के लिए जाना जाता है, कुत्ता साथ लिए महिला ने उसके बिल्कुल विपरीत उदाहरण पेश किया।

उस महिला को न तो अपने काटने वाले कुत्ते के खतरनाक होने की फिक्र थी और न ही उस बच्चे के दर्द की परवाह थी। उसने बच्चे को उसके माता-पिता या डाक्टर के पास ले जाने की कोई कोशिश नहीं की। बल्कि वहां मूक बनी इस तरह खड़ी रही, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो, जबकि वहीं वह बच्चा दर्द से तड़पता रहा, शायद उस महिला से मदद की उम्मीद में।

संभव है कि यह घटना सुर्खियों में आई, इसलिए चारों तरफ चर्चा का विषय बन गई। लेकिन सच यह है कि हमारे आसपास ऐसी घटनाओं में लोगों का रवैया लगभग यही होता चला जा रहा है। कोई हादसा होता है या कोई आपराधिक घटना, आसपास खड़े लोग या तो चुपचाप वहां से निकल जाते हैं या फिर हाथ में मौजूद कैमरे से लैस मोबाइल से फोटो या वीडियो बनाने लगते हैं।

ज्यादातर लोग किसी को दुख में देखकर भी अनदेखा कर आसानी से वहां से बचकर निकल जाते हैं। क्या यह व्यक्ति के भीतर संवेदनाओं के सूखने का संकेत है? ऐसा क्यों हो रहा है कि संवेदनाओं की बुनियाद पर टिके हमारे समाज में हर किसी के भीतर एक दूसरे के प्रति भावनाएं खत्म होती जा रही हैं? जिस बच्चे को कुत्ते ने काटा, क्या वह बच्चा कभी इतनी आसानी से किसी पर विश्वास कर पाएगा? किसी की मदद करने के लिए व्यक्ति के भीतर जो जरूरी संवेदना होनी चाहिए, वह उसके भीतर कैसे निर्मित होगी या वह किसी की मदद कैसे कर पाएगा?

किसी-किसी घटना का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर कई बार गहरा असर पड़ता है। बच्चे के ऊपर भी पड़ा होगा। लेकिन इस घटना का दूसरा पहलू यह भी रहा कि वीडियो देख कर चारों तरफ एक जैसी ही प्रतिक्रिया सामने आई कि उस महिला के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। किसी ने यह भी कहा कि महिला शायद किसी मनोविकार से गुजर रही होगी, इसलिए वह मूकदर्शक और भावशून्य रही।

लेकिन आए दिन हम अपने आसपास छोटे से बड़े मामलों के दौरान लोगों के बीच भावशून्यता देखते हैं, उसके पीछे क्या कारण होगा? क्या इतने बड़े पैमाने पर लोग मनोविकार से गुजर रहे हैं? या फिर हमारे सामाजिक प्रशिक्षण में ही कोई बड़ी कमी है जो व्यक्ति के भीतर से जरूरी संवेदनाएं छीन रहा है?

कुछ समय पहले जब चारों ओर महामारी फैली हुई थी, उस दौरान कितने ही उदाहरण ऐसे सामने आए, जिसमें इंसान का एक अलग ही चरित्र देखने को मिला। सभी लोग एक दूसरे पर शक रहे थे और बहुत कम लोग मदद का हाथ बढ़ा रहे थे। बहुत जगहों पर तो संक्रमित होने के डर से मरीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।

हम ऐसी चीजों का समर्थन नहीं भी करें तब भी कई बार लगता है कि कहीं हम भी तो ऐसे ही लोगों में शुमार नहीं हो चुके हैं! अब ईमानदारी से इसका आकलन करना बहुत जरूरी हो गया है। दिखने वाली हर चीज इतनी जरूरी नहीं, जितना कि इंसान का इंसान बने रहना जरूरी है। अगर हमारे भीतर इंसानियत और इसकी संवेदना ही मर जाए तो मनुष्य जीवन का क्या फायदा। अगर हमने इस पहलू पर गौर नहीं किया तो आने वाले वक्त में जिस तरह के इंसान का निर्माण होगा, वह कल्पना से भी परे होगा।


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