सम्पादकीय

उत्पादन से विपणन तक

Rani Sahu
14 July 2022 7:02 PM GMT
उत्पादन से विपणन तक
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सियासत जिन्हें ढूंढ रही है, वे गलियां अब भी तमाशबीन मंजर में गुम हैं

By: divyahimachal

सियासत जिन्हें ढूंढ रही है, वे गलियां अब भी तमाशबीन मंजर में गुम हैं। राजनीति अपनी प्रवृत्ति बदलती है, क्योंकि जनता की आंखें भी कुछ और देखती हैं, इसलिए हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में कृषि-बागबानी अब मुख्य मुद्दे नहीं, बल्कि मुद्दों की जिरह की तरह अब 'अज़र् किया है' की कैटेगिरी में आते हैं। वह दौर अलग था जब तत्कालीन मुख्यमंत्री शांता कुमार की सरकार को सेब डराता था या शिमला की तल्खियों में 'सेब' तन के घूमता था। तब बात सेब लॉबी की होती थी और यह भी एक हकीकत थी कि हिमाचल के सारे फलों का सेब ही देवता था। बहरहाल सेब के इर्द-गिर्द बागबानों की उम्मीदें सीधे मुखातिब हैं और चुनाव की दहलीज पर फल राज्य ने अपना कद बताना शुरू किया है। ऐसे में एचपीएमसी के कार्टन ने अपनी कीमत बढ़ाकर कुछ तो ऐसी सूचना दी है कि सेब आर्थिकी की जमीन पर फिर एक मुद्दा पैदा हो सकता है, हालांकि हिमाचल में आम उपभोक्ता का बाजार भाव ऊंचा है। सेब देश की मंडियों में अपना भाव तय करता है, फिर भी हिमाचल के प्रतिनिधित्व में राज्य का दखल इसे बेहतर प्स्तुति दे सकता है।
पैकेजिंग और माल ढुलाई के मसले पर, सेब की हैसियत का कुछ तो ऐसा दारोमदार है जो बागबान की बिक्री क्षमता को पुख्ता कर सकता है, लेकिन हर साल कुछ स्थायी प्रश्न गिड़गिड़ाते हैं। दूसरी ओर अन्य फलों के उत्पादकों का जिक्र तक नहीं होता। आम की फसल हो या इस बार की लीची, दोनों फल रणनीतिक अभाव में बुरी तरह परास्त हुए। इसी तरह बेमौसमी सब्जियों और फूलों के उत्पादक को भी इस बार की गर्मी ने ठेंगा दिखाया है। दरअसल उत्पादन से विपणन तक की श्रेष्ठ शृंखला खड़ी करने में हिमाचल आज भी खुद को चिन्हित नहीं कर पा रहा।
फल-सब्जी तथा फूल मंडियों के हिसाब से स्थिति भले ही इतनी खराब नहीं दिखाई देती, लेकिन सीधे किसान-बागबान से जुड़ने के लिए रास्ते अभी तंग हैं। दूसरी ओर हिमाचल के उपभोक्ता को अपने राज्य के उत्पादों का कोई सीधा लाभ नहीं मिलता, नतीजतन खुदरा कीमतों पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं। मंडी से निकलते ही फल और सब्जियों के दाम तर्कहीन आधार पर इतने बढ़ जाते हैं कि हर कोई खुले में चांदी कूट लेता है। काफी पहले मंडी जिला प्रशासन ने मंडियों के भाव में एक सीमित लाभ जोड़ने की पद्धति बनाई और जिसके तहत उत्पादक से उपभोक्ता तक कीमतों का न्यायोचित वितरण हुआ। विडंबना यह है कि उस पद्धति को खुर्द-बुर्द करती दो सरकारें निकल गईं, लेकिन उत्पादक से खरीददार के रिश्ते आपस में नहीं जुड़े। इसलिए एचपीएमसी अगर कार्टन का रेट दस से पंद्रह फीसदी बढ़ा भी रहा है, तो इससे बढ़ने वाली कीमतों की वसूली ग्राहक से ही होगी, जबकि सरकार से मिलने वाली रियायतें या तो कुछ हद तक उत्पादक को मिलती हैं या इन्हें आढ़ती हड़प जाता है। ऐसे में राजनीति अपने मुद्दे खोजती हुए फिर से खेत का चक्कर लगा आए या किसी बागीचे की छांव में बैठकर पक्ष में आ जाए, लेकिन हिमाचल में आम उपभोक्ता या आम जनता के चूल्हे का हिसाब नहीं होता। पूरे प्रदेश में उपभोक्ता मांग की प्रति व्यक्ति दर सारे देश में टॉप पर है और इसी का फायदा उठाता बाजार हिमाचल के उत्पादों को ही घुमा-फिरा कर हद से ज्यादा महंगा कर देता है। विडंबना यह है कि मंत्रिमंडलीय फैसलों में सरकारी कर्मचारियों के मसले, विकास के चिन्ह और लोकप्रियता के फरमान तो होते हैं, लेकिन कभी यह नीति सामने नहीं आती कि ग्राहक को बाजार की लूट से कैसे बचाएं। उपभोक्ता के लिए सेब कार्टन की सरकारी छूट के कोई मायने नहीं, क्योंकि बाजार की शक्तियां उससे अति लाभ वसूलने के लिए निरंकुश हैं।
Rani Sahu

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