सम्पादकीय

पोलीगैमी से सोलोगैमी तक: घूमती दुनिया में गेम बनते रिश्ते, कितना उचित-कितना अनुचित?

Rani Sahu
24 Jun 2022 3:17 PM GMT
पोलीगैमी से सोलोगैमी तक: घूमती दुनिया में गेम बनते रिश्ते, कितना उचित-कितना अनुचित?
x
घूमती दुनिया में गेम बनते रिश्ते, कितना उचित-कितना अनुचित?

स्वाति शैवाल

सोर्स- अमर उजाला

जब आदम-हौव्वा थे तब भी रिप्रोडक्शन यानी संतान उत्पत्ति या मनुष्य के पैदा होने लायक परिस्थितियां थीं। उन्हें न अपने रिश्ते को समझने की जरूरत थी, न ही किसी को समझाने की। लेकिन फिर ईश्वर ने या कहें प्रकृति ने उनको मनुष्य होने का फल दिया, सेब के रूप में, दिमाग के रूप में, विचार के रूप में। उस विचार ने उनको समझाया कि वे शरीर से कहीं ऊपर हैं, कहीं आगे हैं।
उनकी जिम्मेदारी केवल शरीर तक सीमित नहीं उन्हें आगे पूरे समाज और दुनिया की रचना में प्रतिभागी होना है। और उससे भी आगे, उन्हें उस प्रेम को दुनिया तक पहुंचाना है जो हवा, पानी, जमीन, आकाश सबकी ऊर्जा को समेटे उतना ही विस्तृत और गहरा है, और इस तरह आदम-हौव्वा में पनपीं भावनाएं, संवेदनाएं। अगर आदम-हौव्वा यूं ही रह जाते तो आज हम समाज, विकास और इंसान होने से इतर सिर्फ शरीर ही रह जाते।
इस इतनी लंबी भमिका की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि आदम-हौव्वा के पास अब दिमाग तो है लेकिन उस फल से मिली विचार करने की शक्ति और भावनाओं की एक्सपायरी डेट खत्म हो गई लगती है। इसलिए रिश्ते, भावनाएं सबकुछ गौण होने लगे हैं और इच्छाएं केवल शरीर बनकर रह गई हैं, फिर चाहे शरीर खुद का हो या किसी और का।
ये पिछले साल की बात है। ब्राजील के एक आदमी जिनका नाम आर्थर ओ ओर्सु है, उनको लगा कि प्रेम तो बिना बंदिशों, बिना सीमाओं के महसूस करने की चीज है। इसके लिए किसी एक के साथ विवाह बंधन में बंधना व्यर्थ है, तो उन्होने कुछ करने की ठानी। लेकिन उन्होंने क्यूपिड बनकर बिछड़े प्रेमियों को नहीं मिलाया, न ही लोगों के बीच बिना किसी भेदभाव के प्रेम से रहने का सन्देश दिया और न ही उन्होंने किसी ऐसी प्रेमिका के साथ जीवन बिताने के सपने देखे जो सुंदर भी नहीं थी, अमीर भी नहीं थी और औसत बुद्धि वाली थी।
इन सब रास्तों के बजाय उन महाशय ने प्रेम को असीमित बनाने के लिए एक साथ, एक ही दिन 8 लड़कियों से बकायदा चर्च में शादी कर ली। इन 8 नई-नवेलियों के अलावा इन जनाब के पास पहले से एक अदद पत्नी मौजूद थी। कहानी बड़ी रोचक थी और यही रोमांच शायद उन 8 लड़कियों को इस रिश्ते में खींच लाया।
पॉलिगैमी से मोनोगैमी का विरोध
पॉलिगैमी (बहुविवाह) में विश्वास करने वाले ऑर्थर महाशय का कहना था कि वे अपने इस कदम से मोनोगैमी (एक विवाह) के खिलाफ विरोध दर्शाना चाहते थे। बहरहाल, कुछ दिन बड़े अच्छे से बीते लेकिन ऑर्थर की एक बीवी को पति और अपने रिश्ते का यूं बंट जाना कुछ जमा नहीं और वे उनसे अलग हो गईं।
आर्थर जी उदास हो गए क्योंकि उन्होंने तो तय किया था कि वे 1 और युवती से शादी करके इस संख्या को राउंड फिगर में 10 पर पहुंचा देंगे। अब उनको एक की बजाय 2 बीवियां ढूंढने की मशक्कत करनी होगी! इससे भी ऊपर ऑर्थर की ये शादियां गैरकानूनी भी हैं क्योंकि ब्राजील में बहुविवाह गैरकानूनी है।
सोलोगैमी का देश में पहला मामला
चलिए अब दूसरे किस्से पर आते हैं। यह किस्सा पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में है। गुजरात की रहने वाली एक युवती क्षमा बिंदु ने भारत में सोलोगैमी की पहली मिसाल बनते हुए खुद से प्यार किया और खुद से शादी भी कर ली।
अब वह खुद के साथ हनीमून पर हैं। पढ़ी-लिखी, अच्छी नौकरी कर रही इस स्वाबलंबी युवती का मानना है कि उन्हें जीवन में सिर्फ खुद से प्रेम करना है, खुद के लिए जीना है और इसके लिए उन्हें किसी पार्टनर की जरूरत नहीं। उन्होंने अपनी इस शादी और प्रेम को अपना निजी मामला बताते हुए सबसे इस निजता का सम्मान करने का निवेदन किया और महज कुछ अखबारों, छिटपुट चैनल्स और सोशल मीडिया पर डले थोड़े से फोटोग्राफ्स के जरिए ही देश-दुनिया को पता चल गया वरना तो ये उनका अपना निजी मामला ही था।
खैर, माय लाइफ, माय वे। ये आज की वह लाइन है जो कई लोगों के जीवन का हिस्सा है। खासकर युवाओं के जीवन का। वाकई हर इंसान को पूरा अधिकार है कि वह अपना जीवन अपने हिसाब से जिए। वह करे जिससे उसे खुशी मिलती है। लेकिन कुछ देर जरा रुककर सोचिए अगर हर व्यक्ति सिर्फ अपनी ही खुशी के बारे में सोचने लगेगा तो परिवार, समाज और दुनिया का क्या होगा?
बात सिर्फ भारत की भी करें तो पिछले एक दशक में युवाओं में जिस एक डर ने तेजी से जगह बनाई है, वह है कमिटमेंट फोबिया। वह किसी भी रिश्ते में बंधकर नहीं रहना चाहता।
यह स्थिति विदेशों में भी आम रही है। लेकिन यहां यह सोचना और समझना जरूरी है कि अधिकांश पाश्चात्य देशों में बच्चे 14 साल की उम्र के बाद घर छोड़कर अपने दम पर कुछ करने चले जाते हैं, वे कभी अपने परिवार से महीने में एक बार मिलते हैं, कभी साल में तो कभी 5-6 सालों में एक बार।
वहां होमलेस व्यक्ति हो या बुजुर्ग, उनकी सुध लेने के लिए परिवार का कोई व्यक्ति साथ नहीं होता। परिवार और समाज की जैसी संरचना भारत में है वह सबसे अलग है। लेकिन पिछले कुछ सालों में हमारे यहां भी युवाओं की सोच में तेजी से परिवर्तन आया है और इसका स्पष्ट उदाहरण रोज होते ब्रेकअप्स, विवाहेत्तर सम्बंध, वर्चुअल दुनिया में रिश्ते ढूंढते फ्रस्ट्रेटेड युवाओं और संख्या में बढ़ते ओल्ड एज होम्स के रूप में दिखाई दे रहा है।
कमजोर होती रिश्तों की डोर
विवाह और रिश्ते अब ज्यादातर अधेड़ों की जिम्मेदारी बनकर रह गए हैं। अच्छी शिक्षा, नौकरी और लक्जरी लाइफस्टाइल आपको सुख तो दिला सकती है लेकिन संतुष्टि और प्रेम नहीं। आज जहां रिश्ते हैं वहां भी दबाव, उलझनें और अहम चरम पर है।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चाहे आप वर्चुअल दुनिया में गुम हों, किसी रिश्ते में नहीं बढ़ना चाहते या सिर्फ अपने लिए जीना चाहते हैं तो भी इंसान होने के नाते आपकी बुनियादी बायोलॉजिकल जरूरतों के लिए तो मन में सैलाब उठेगा ही और यही सैलाब अधीरता, व्यग्रता, उग्रता और अपराध को भी जन्म देगा।
बीते वर्षों में यौन हिंसा के बढ़ते अपराधों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह एक तरह की मानसिक अस्थिरता है। इसका बुरा प्रभाव, आने वाले कुछ सालों में और स्पष्ट नजर आयेगा।
मनोवैज्ञानिकों की मानें तो भौतिकतावादी और छद्म दुनिया के जाल में फंसे ज्यादातर युवा एक असमंजस की जिंदगी जी रहे हैं। वे करियर, जॉब और इंटरनेशनल पॉलिटिक्स पर तो पूरे आत्मविश्वास से बात कर लेते हैं लेकिन जहां रिश्ते निभाने की बात आती है, उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। वे अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर रिश्तों की जिम्मेदारी उठाने से डरने लगते हैं और यही उहापोह उन्हें भटका देती है।
कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका पार्टनर कौन है। फर्क इससे पड़ता है कि क्या भावनात्मक स्तर पर आप उसके प्रति एक सांस लेते इंसान होने का सम्बंध स्थापित कर पाते हैं? क्या आपको लगता है कि सुख से भी ज्यादा दुख और तकलीफ में आपके पार्टनर का खामोश हाथ आपके हाथों को कसकर पकड़े रहता है और उसकी आंखें आपकी तकलीफ से भर जाती हैं। अगर अभी आपमें यह संवेदना बाकी है तो इंसान के इंसान बने रहने की उम्मीद भी बाकी है।
विवाह के रिश्ते में आप सिर्फ प्रेम और शरीर ही नहीं बांटते, आप एक-दूसरे की कमियां बांटते हैं, खूबियां बांटते हैं, पीड़ा बांटते हैं, जिम्मेदारियां बांटते हैं, झगड़े भी बांटते हैं और बहस भी बांटते हैं। शादी के शुरुआती कुछ महीनों की सुखद यादों को आप ताउम्र बांटते हैं। सिर्फ इसलिए क्योंकि आपका साथ होना एक परिवार को साथ रखता है।
इसका यह मतलब नहीं कि प्रताड़ना, अपमान और खमोश पड़े रिश्ते को भी किसी भी हद तक ढोया जाए। लेकिन अगर रोज शाम को घर लौटने पर थकान के बावजूद आपके मन में परिवार के साथ होने का सुकून हो, मुश्किल में परिवार का मजबूत साथ आपके पास हो तो ये परिवार बहुत जरूरी है। आखिर तो इंसान होने के नाते, सबके साथ, सबके लिए जीना, खुद के जीने के लिए भी जरूरी होता है।


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story