सम्पादकीय

आक्सीजन से ईमान तक : सब बिक रहा है

Gulabi
27 April 2021 2:00 PM GMT
आक्सीजन से ईमान तक : सब बिक रहा है
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कोरोना काल में एक बार फिर इंसान के दो चेहरों को बेनकाब कर दिया है

कोरोना काल में एक बार फिर इंसान के दो चेहरों को बेनकाब कर दिया है। एक तरफ डाक्टर और हैल्थ वर्कर दिन-रात अपना कर्त्तव्य निभा कर, अपनी जान जोखिम में डालकर मरीजों की जान बचा रहे हैं तो दूसरी तरफ लोग है वान बन रहे हैं जो इस आपदा में भी इंसानियत के मुंह पर कालिख पोत रहे हैं। दवाइयों की कालाबाजारी कोई नई बात नहीं लेकिन कोरोना काल में जीवन के लिए जरूरी प्राणवायु और अस्पतालों के बेड की कालाबाजारी और लूट दोनों की जा रही है जो भूतो न भविष्यति।


लोगों की संवेदनाएं मर चुकी हैं। सांसें टूटने से सांसें छीन लेने की कोशिश की जा रही है। लोग अपने परिवार की सांसों के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं लेकिन आक्सीजन का सिलैंडर नहीं मिल रहा। मिल रहा है तो उसके दाम दोगुना या तीन गुना मांगे जा रहे हैं। सांसों के अभाव में लोग अपने परिजनों को अपनी आंखों के सामने दम तोड़ता देख रहे हैं। आक्सीजन से लेकर इमान तक बिक रहा है। दवाइयों की दुकान पर लगी लम्बी कतारें लगी हुई हैं। बुखार की दवाइयां नदारद हैं। मल्टी विटामिन की गोलियां नदारद हैं नेबुलाइजर तक ब्लैक में मिल रहा है। रेमडेसिविर इंजैक्शन की किल्लत पूरे देश में है। आक्सीजन के साथ-साथ ब्लैकमेलिंग उन रेम​डेसिविर इंजेक्शनों की भी है जिसकी उपयोगिता के बारे में खुद डाक्टरों में भी मतभेद हैं लेकिन एक हवा चल गई है कि रेमडेसििवर ही रामबाण है। लिहाजा अस्पतालों से चुराकर , गायब करवाकर रेमडेसिविर इंजेक्शनों की जमकर कालाबाजारी की जा रही है। हर इंजेक्शन पर मौत का बेशर्म सौदा किया जा रहा है। बेबस लोग परिजन की जान बचाने के लिए मुंहमांगा पैसा दे रहे हैं, फिर भी मरीज शायद ही बच रहा है। दूसरी तरफ मुर्दे के बाकी बचे इंजेक्शनों पर भी दुष्टात्माएं कमाई कर रही हैं। आश्चर्य नहीं कि रेमडेसिविर जैसा हाल वैक्सीनों का भी हो, क्योंकि जरूरत के मुताबिक वैक्सीन का उत्पादन अभी नहीं है। विदेश से आयात करने या भारत में ही उनके पर्याप्त उत्पादन में वक्त लगेना।

यूं सरकार ने वैक्सीन निर्माता कंप​िनयों को 4500 करोड़ रुपए दे भी दिए हैं लेकिन वैक्सीन की मांग में एकदम उछाल आने से कालाबाजारियों की दिवाली नहीं मनेगी, इसकी गारंटी देने की स्थिति में कोई नहीं है, क्योंकि मांग के अनुपात में रातोंरात उत्पादन बढ़ाने का चमत्कार असंभव है। हकीकत यह है कि देश के कई राज्यों में पूरा मेडिकल सिस्टम ध्वस्त होने की कगार पर है, क्योंकि पूरे चिकित्सा तंत्र पर इतना अधिक दबाव है कि उसके झेलने की क्षमता भी खत्म सी हो गई है।

सरकारें दौड़ रही हैं। उच्च स्तर पर आक्सीजन के लिए काम किया जा रहा है। विदेशों से कंटेनर मंगाए जा रहे हैं। सांसें बचाने के लिए महामिशन पर रेलवे से लेकर वायुसेना तक जुट चुुकी है। अस्पतालों में आक्सीजन की कमी को दूर करने के लिए हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। उम्मीद है कि कुछ दिनों में आक्सीजन का संकट हल हो जाएगा।

इस संकट की घड़ी में कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर और अनेक सामाजिक समस्याएं अपना माननीय कर्त्तव्य मान कर जरूरी सुविधाएं जुटाने और मुहैया कराने की कोशिश कर रही हैं लेकिन जरूरत की तुलना में यह राहत बहुत थोड़ी है। लोगों ने आक्सीजन सिलैंडर और बिना जरूरत के दवाइयां स्टाक कर ली हैं। इंदौर में तो रेडमेसिविर की शीशी में कुछ भी भरकर 40-40 हजार में बेचने की घटना खौफ पैदा करने वाली है लेकिन मदद हो और उसे भुनाया न जाए तो राजनेता ही क्या? चाहे शव वाहन हो या एम्बुलैंस, दवाइयां हों या पीपीई किट हो या कफन, कुछ भी देने या मुहैया कराने पर नेताओं के नाम का ठप्पा और फोटो उसी तरह प्रचारित की और करवाई जा रही है, मानो कोविड के कारण स्वर्गवासी होने वाले अपने साथ उसे ले जाकर परलोक में नेताओं के पक्ष में प्रचार करने वाले हैं।

सेवा को घटिया आत्मप्रचार का बूस्टर देने की यह सोच भी हैवानियत का ही दूसरा पहलू है। प्रचार तो कभी भी हो सकता है, 'यह हमने किया', इसका ढोल कभी भी पीटा जा सकता है, मगर कम से कम श्मशान घाटों को तो राजनीतिक वायरस से मुक्त रखें। वहां जाने वाला हर शख्स कोविड वायरस से पहले ही परेशान है।

एक डारावनी खबर और है। कोविड वायरस का तीसरा म्यूटेंट भी भारत में पाया गया है। यह कितना खतरनाक होगा, इसका अभी अंदाजा भी ठीक से नहीं लगाया जा सकता। कइयों के मन में सवाल होगा कि कोविड का दूसरा म्यूटेंट पहले से ज्यादा खतरनाक क्यों है, तो इसकी वजह यह है कि यह वायरस अपने में आनुवंशिक बदलाव तेजी से कर रहा है। यानी वैज्ञानिक एक का तोड़ खोज पाते हैं तो वह दूसरा रूप धर कर संहार शुरू कर देता है। परिणामस्वरूप शरीर में दुश्मन वायरस को नियंत्रित करने वाली रक्षक एंटीबॉडीज भी चकमा खा जाती है। निकृष्टता के नए मानदंड हमें देखने को मिलेंगे, यह सोचना भी मुश्किल था। शिवपुरी के एक अस्पताल मेंं वार्ड ब्वाय द्वारा पैसे लेकर एक का आक्सीजन मास्क हटाकर दूसरे को लगा देना शायद हैवानों को भी लजा देगा। चंद सांसों के लिए लोग गिड़गिड़ा रहे हैं और सांसों के अभाव में स्वजनों को अपनी आंखों के सामने दम तोड़ता हुआ देख रहे हैं।

कोविड जैसी संक्रामक महामारी से मरने वालों के शवों को छूने तक से परिजनों के परहेज की घटनाएं पिछले साल भी देखने को मिली थीं। कोविड से मरने वालों की लाश देखकर पड़ोसी दरवाजे बंद कर लेते हैं और शैतान मृतक के शरीर से गहने तक उतार ले जाते हैं। शायद इसलिए, क्योंकि दुनिया तो जीने वालों की है। उधर निजी अस्पतालों में शव देने के लिए भी लाखों रुपए मांगे जा रहे हैं। शव मिला तो अंतिम संस्कार के लाले हैं। श्मशान घाट और कब्रिस्तान में भी अंतिम संस्कार के लिए नंबर लग रहे हैं और अंत्येष्टि जरा जल्दी हो जाए, इसके लिए रसूखदारों से सिफारिश लगवाने की नौबत आ गई है। ऐसे में यमराज के यहां क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। ऐसे में असली देवदूत वही प्रशासन के लोग हैं जो सिर्फ मानवता के नाते अंजान शवों को भी अग्नि दे रहे हैं। अदृश्य वायरस के खिलाफ लड़ाई युद्ध की तरह है जिसे किसी भी कीमत पर जीतना जरूरी है। इसके साथ ही हैवहनों को चारों खाने चित करना भी जरूरी है। अगर हमने हैवानों को नहीं हराया तो फिर अराजकता फैल जाएगी। मानवता की रक्षा के लिए हमें इंसान बनना ही होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
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