सम्पादकीय

आम से खास तक : बड़े, अमीर और गैरजवाबदेह

Gulabi
28 Nov 2021 4:24 AM GMT
आम से खास तक : बड़े, अमीर और गैरजवाबदेह
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बड़े लोग अमीर होते हैं और अमीर लोग बड़े होते हैं। और एक बार जब वह बड़े और अमीर हो जाते
पी. चिदंबरम।
बड़े लोग अमीर होते हैं और अमीर लोग बड़े होते हैं। और एक बार जब वह बड़े और अमीर हो जाते हैं, तब स्पष्ट खतरा होता है कि वह जवाबदेह नहीं होंगे। अमेरिकी सीनेटर जॉन शर्मन (पहला एंटीट्रस्ट एक्ट 1890 आमतौर पर शर्मन एक्ट के नाम से जाना जाता है) ने कहा था, 'यदि हम एक राजा को राजनीतिक ताकत के रूप में बर्दाश्त नहीं करना चाहते, तो हमें जीवन से जुड़ी किसी भी जरूरत के उत्पादन, परिवहन और बिक्री को लेकर भी राजा को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।'
अमेरिका में स्टैंडर्ड ऑयल और एटी ऐंड टी बिखर गया, तो चीन ने अलीबाबा, टेंसेंट और दीदी पर सख्ती की है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और फेसबुक को कई देशों में गुस्से का सामना करना पड़ रहा है? क्यों? इसलिए, क्योंकि ये सब बहुत बड़े और बहुत अमीर और गैरजवाबदेह हो गए।
ठीक उसी तरह जैसे हम एक राजा को एक शासक के रूप में बर्दाश्त नहीं करेंगे, वैसे ही हमें उस शासक को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए जो कि राजा बनना चाहता है। इसीलिए अनेक देशों में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के लिए कार्यकाल की सीमा तय है, क्योंकि वह पूर्ण सत्ता हासिल कर सकता/सकती है।
लोकतांत्रिक और अमीर
व्लादिमीर पुतिन ने राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता में बने रहने का रास्ता ढूंढ़ लिया है। शी जिनपिंग ने अपनी सत्ता और मजबूत की है और कार्यकाल की सीमा खत्म कर ली है और अगले साल अपना तीसरा कार्यकाल शुरू करने की तैयारी में हैं। किसी भी परिभाषा से ये दोनों देश लोकतंत्र नहीं हैं। न ही वे अमीर देशों की श्रेणी में आते हैं।
प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से दुनिया के दस शीर्ष देश हैं: 1. लक्समबर्ग, 2. आयरलैंड, 3. स्विट्जरलैंड, 4. नॉर्वे, 5. अमेरिका, 6. आइसलैंड, 7. डेनमार्क, 8. सिंगापुर, 9. ऑस्ट्रेलिया, 10. कतर। कतर और सिंगापुर को छोड़कर आठ अन्य देश पूरी तरह से लोकतांत्रिक हैं। कतर में राजशाही, जबकि सिंगापुर लोकतंत्र की योग्यता रखता है। मैं इन आठों में से अमेरिका को छोड़कर और कुछ प्रयास के साथ ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर, किसी अन्य देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का नाम नहीं ले सकता।
सबक यह है कि एक देश और उसके लोग अमीर और लोकतांत्रिक हो सकते हैं, हालांकि उनका नेतृत्व शांत, संकोची और अनजाने नेताओं द्वारा किया जाता है। मेरी जानकारी में इनमें से किसी भी नेता पर अक्खड़ या अहंकारी होने का आरोप नहीं लगाया गया है।
गैरजवाबदेही की ओर
पूर्ण सत्ता या संसद और मीडिया के प्रति तिरस्कार ने लोकतंत्र को बीमार कर दिया है। 'मैं सब जानता हूं' या 'मैं ही उद्धारक हूं', जैसी बयानबाजी के लिए लोकतंत्र में जगह नहीं होनी चाहिए। जब कोई राजनीतिक दल बहुत बड़ा, बहुत अमीर और गैरजवाबदेह हो जाए तो ये बुराइयां आ जाती हैं।
भाजपा दुनिया का सबसे बड़ा दल होने का दावा करती है और हम जानते हैं कि वह भारत का सबसे अमीर दल है। उसके पास लोकसभा की 543 में से 300 सीटें हैं और विधानसभा की 4,036 सीटों में से 1,435 सीटें हैं। 28 में से 17 राज्यों में उसकी सत्ता है। इस मामले में भी वह बहुत बड़ी पार्टी है। भाजपा बहुत अमीर भी है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के मुताबिक, 2019-20 में भाजपा ने अज्ञात स्रोतों से 2,642 करोड़ रुपये (सभी दलों को मिले 3,377 करोड़ रुपये में से) प्राप्त किए जिनमें कुख्यात इलेक्टोरल बांड्स भी शामिल है। पांच राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 252 करोड़ रुपये खर्च किए; इसमें से 151 करोड़ रुपये अकेले पश्चिम बंगाल में खर्च किए गए!
पिछले सात सालों में भाजपा और अधिक गैरजवाबदेह हुई है। उसने संसद में बहस त्याग दी; संसदीय समितियों की जांच के बिना और अक्सर दोनों सदनों में बहस के बिना विधेयक पारित करवाए; प्रधानमंत्री संसद और मीडिया से बचते हैं; सरकार को अपने राजनीतिक विरोधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्यार्थियों के विरुद्ध सीबीआई, ईडी, आयकर, एनआईए और अब एनसीबी का इस्तेमाल करना पड़ता है।
बहुत बड़ा, बहुत अमीर और गैरजवाबदेह दल होने के बावजूद भाजपा ने अनेक चुनाव जीते हैं। जहां वह हार गई, वहां उसने विधायकों की खरीद और वफादार राज्यपालों की मदद से सरकार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने गर्व से इस घिनौने अभ्यास को नाम दिया है- ऑपरेशन लोटस!
केवल हारने का डर
तीन कृषि कानूनों को पारित करने और इन कानूनों का अड़ियल तरीके से बचाव करने में अहंकार का जमकर प्रदर्शन किया गया। ये कानून अध्यादेश के जरिये लाए गए थे और बाद में संसद में बहस के बिना इन्हें कानून में बदल दिया गया। किसान पंद्रह महीने से विरोध कर रहे थे, लेकिन सरकार नहीं झुकी। किसानों को बातचीत के लिए भेजे गए निमंत्रण में कोई गंभीरता नहीं थी और वार्ताएं राजनीतिक नाटक जैसी थीं।
किसानों और उनके समर्थकों के साथ गाली-गलौज (खालिस्तानी, राष्ट्रविरोधी) अशोभनीय सीमा तक पहुंच गई। राजनीतिक कार्रवाई बर्बर थी। सुप्रीम कोर्ट को दिया गया जवाब अपमानजनक था। जब तक खुफिया रिपोर्ट्स और सर्वे के नतीजों ने उच्च स्तर तक रिसकर पहुंच नहीं गए, सरकार आत्मसंतुष्ट बनी रही।
यह एकदम स्पष्ट है कि मोदी सरकार सिर्फ एक चीज से डरती है और वह है चुनाव में पराजय। विधानसभा की तीस सीटों के उपचुनाव के नतीजे आने के कुछ घंटों के भीतर ही पेट्रोल और डीजल के दाम कम किए गए, जिनमें भाजपा को सिर्फ सात सीटें मिलीं। कृषि कानूनों की वापसी का फैसला (कैबिनेट की मंजूरी के बिना मोदी ने लिया) इस बात का स्पष्ट संकेत था कि उन्हें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा (जहां आज उनकी पार्टी की सरकारें हैं) में भारी नुकसान होने और पंजाब में पूरी तरह सफाया हो जाने का डर था।
प्रधानमंत्री की 'स्टेट्मैनशिप' की उनके मंत्रियों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा यही दिखाती है कि वे कैसे गूंगे चीयरलीडर्स बन गए हैं: मोदी ने जब कानून पारित किया, तब वह एक राजनेता थे और जब उन्होंने उन्हें वापस लिया, तो वह और बड़े राजनेता हो गए!
भारत में लोकतंत्र तब तक जीवित रह सकता है, जब तक भाजपा को चुनाव हारने का डर सताता रहे। इससे भी अच्छा यह हो कि फरवरी 2022 में हार मिलने पर भाजपा का अक्खड़पन और अहंकार कुछ हद तक कम हो।

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