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- प्रेम से विश्व के मंगल...

रवींद्रनाथ टैगोर। मानव जीवन की धारा के दो विपरीत तट हैं। एक ओर, मनुष्य की अपनी स्वतंत्रता है, दूसरी ओर, अन्य लोगों के साथ उसका मिलन। इसमें से किसी एक तट को अलग करके हमारा काम नहीं चल सकता। हमारा मंगल नहीं हो सकता। स्वाधीनता का मूल्य मनुष्य के लिए बहुत बड़ा है। स्वाधीनता की रक्षा के लिए मनुष्य क्या कुछ नहीं करता। कौन-कौन से युद्ध नहीं छेड़ता? अपनी संपत्ति देकर अपने प्राण तक का बलिदान करके वह आज आजादी को बनाए रखना चाहता है, अपनी विशेषता को परिपूर्ण करने के लिए वह किसी भी बाधा को नहीं मानता। जब उसके रास्ते में बाधा आती है, तो वह क्रोध और वेदना का अनुभव करता है। बाधाओं पर विजय पाने के लिए वह हत्या और अपहरण तक कर सकता है, लेकिन स्वाधीनता के रास्ते में बाधाएं तो अनिवार्य हैं। जिन उपादानों को लेकर मनुष्य अपने आप को गढ़ता है, उनकी भी अपनी स्वाधीनता होती है, उन पर हमारी इच्छा या बाहुबल का जोर पूरी तरह नहीं चलता। इसलिए अपनी स्वतंत्रता और उपादानों की स्वतंत्रता के बीच हम समझौता कर लेते हैं। इसमें हमें बुद्धि और विज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। यह समझौता तभी सफल हो सकता है, जब दूसरों की स्वाधीनता के लिए अपनी स्वाधीनता का किसी सीमा तक त्याग करना हमें मंजूर हो। ऐसा लगता है कि इस समझौते में कोई सुख नहीं है, क्योंकि यह हमारी विवशता का परिणाम है, लेकिन वास्तव में ऐसी बात नहीं है। समझौते में भी सुख है। बाधाओं से यथासंभव पार पाने की क्रिया में बुद्धि और शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है और उसमें हमें सुख मिलता है। यह केवल पाने का सुख नहीं है, वरन अपनी क्षमता को काम में लगाने का सुख है। इसमें हम अपनी स्वाधीनता का अनुभव करते हैं और यह स्वाधीनता हमें गौरवमय प्रतीत होती है। बाधा न होती, तो हमें यह अनुभव न मिलता। बाधाओं से हममें जो अहंकार आता है, उससे प्रतियोगिता और विजय की इच्छा तीव्रतर हो जाती है। झरने के सामने पत्थर की रुकावट आती है, तो उसमें से फेन निकलता है और वह उछलकर पत्थर को लांघ जाता है। इसी तरह से बाधाओं से हमारी स्वतंत्रता भी विकसित होती है।
