सम्पादकीय

कोरोना से महंगाई तक, कितना अंधेरा मिटा पाएगी ये दिवाली?

Gulabi
4 Nov 2021 11:15 AM GMT
कोरोना से महंगाई तक, कितना अंधेरा मिटा पाएगी ये दिवाली?
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अफसोसनाक है कि लोग अभी भी मास्क लगाने को अदात का हिस्सा नहीं बना सके हैं

नमस्कार मैं रवीश कुमार, याद कीजिए जब लोग क्वारंटीन सेंटर से लौट कर घर आया करते थे, तब उनका स्वागत ऐसे होता था जैसे दिवाली मन रही हो, कोई युद्ध से जीत कर लौट रहा हो. अब जब दिवाली आ गई है तो इस मौके पर उन्हें भी याद करना चाहिए जिनके अपने कभी नहीं लौट सकेंगे. कोरोना की दूसरी लहर के बाद की इस दिवाली में उनकी याद भी शामिल होनी चाहिए. जिन्हें भुला देने की कोशिश में उस पूरे दौर पर ही अंधेरी चादर ओढ़ा दी गई है. जिन्हें हटा कर रोशनी में लाने की ज़रूरत है. वैसे भी प्रथा है कि जिसके घर मातम हो, उसके घर पड़ोसी दिया रख जाते हैं ताकि कोई घर अंधेरा न छूटे. किसी का मकान ख़ाली हो तो वहां भी कोई मोमबत्ती जला आता है. त्योहार इसी से बड़ा और अच्छा होता है जब वह अपने भीतर उन सभी को समेट लेता है जो किसी वजह से छूट जाते हैं। और इस वजह से बहुत रुलाता भी है क्योंकि इन मौकों पर अपनों की याद बहुत आती है.


गोपाल अग्रवाल के बाद उनके परिवार की दुनिया ही बदल गई है. 6 मई को गोपाल की कोरोना से मौत हो गई. दो बच्चों और गोपाल की मां की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए माया अग्रवाल दुकान पर बैठने लगी हैं. बच्चे भी मां के साथ दवा की इस दुकान को चलाने की कोशिश कर रहे हैं. 22 साल की श्रेया और बेटे श्रेयांश अग्रवाल के लिए ज़िंदगी पटरी पर भले लौट आई हो लेकिन पिता की याद तो आती ही होगी. जब हम दिवाली की ख़ुशियों में डूबे हों तो माया अग्रवाल और उनके जैसे लाखों परिवारों को भी याद करें जो इस साल दिवाली नहीं मना रहे हैं. आयुष भी इस साल दिवाली नहीं मना रहे हैं. उनके पिता कैलाश तिवारी की कोरोना से मौत हो गई थी। परिवार की ज़िम्मेदारी आयुष पर आ गई है.

आगरा के गोवर चौकी इलाका है .यह स्वर्गीय श्री मुन्नालाल का घर है। मुन्नालाल गाइड थे और रशियन भाषा बोलते थे. कोरोना से उनकी मौत हो गई. परिवार में तीन बच्चे हैं। दो बेटे एक बेटी. पहली दिवाली है. परिवार के लोगों का कहना है कि जब मुखिया नहीं है तो दिवाली किस काम की.यह आगरा के बसई खुर्द में साइबर कैफे है, जहां देव साइबर कैफे चला कर अपने परिवार का पालन पोषण करते थे कोरो ना उनकी डेथ हो गई उनके साथ ही उनके जीजा जी की भी कोरोना से डेथ हुई है, परिवार में मातम है. ऐसे न जाने कितने परिवार होंगे, जो इस साल दिवाली पर अपनों की याद में कोरोना की दूसरी लहर को याद कर सिहर रहे होंगे. हम और आप ठीक से जानते भी नहीं कि उस दौरान कोविड से मरने वालों की सही संख्या क्या थी? सरकारी आंकड़ों से अलग तमाम दावे किए गए लेकिन कोई ठोस जांच नहीं हुई और आज भी लोग आधिकारिक रुप से नहीं जानते कि कितने लोग मरे थे. कोरोना के समय का यह सबसे बड़ा सवाल है जो आज भी अंधेरे में है. एक और सवाल अंधेरे में है. ऑक्सीजन से लोगों की मौत हुई थी या नहीं हुई थी.

पांच महीना पहले लोग ऑक्सीजन सिलेंडर को लेकर यहां से वहां भाग रहे थे. अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी हो गई थी. लोग मर रहे थे, डॉक्टर मर रहे थे. लोग बदहवास थे कि ऑक्सीजन नहीं है. जुलाई में सरकार संसद में बयान देती है कि राज्यों ने बताया है कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है. ये वो सवाल है जो आज तक अंधेरे में है बल्कि देखा था सबने, इस पर अंधेरे की चादर डाल दी गई है जिसे अब कोई हटाना नहीं चाहता. ऑक्सीजन की कमी से लोगों को मरते देख सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टास्क फोर्स बनाया था. अगर सरकार काम कर रही थी तो फिर इस टास्क फोर्स की क्या ज़रूरत थी. इसलिए तमाम जगहों पर ऑक्सीजन प्लांट का उद्घाटन होने लगा है. पहले भी हो सकता था.

प्रधानमंत्री भी कई सारे ऑक्सीजन प्लांट राष्ट्र को समर्पित करने लगे हैं. बयानों में इसकी झलक है कि ऑक्सीजन की कमी नहीं होने दी जाएगी. जब ऑक्सीजन की कमी से कोई मरा ही नहीं था तो फिर ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देने की कसमों का क्या मतलब है. इसी तरह उस दौर को अंधेरे में धकेलने के लिए राजनीति अस्पतालों के उद्घाटन और शिलान्यास की बात करने लगी है. काश इसी तरह की तैयारी की बात पहले हुई होती तो ऐसी नौबत नहीं आती. अब यह बात अंधेरे में ही रहेगी कि आक्सीजन की कमी से लोग मरे या नहीं, भले ही उनके परिजन उजाले में आकर कहते रहें कि आक्सीजन की कमी से ही मौत हुई थी. कितनी जल्दी हम सबने इस झूठ को स्वीकार कर लिया.

ख़ुद को और देश को अंधेरे में रखकर आप दिवाली नहीं मना सकते. एक नया चलन देखने को मिल रहा है. कई तरह की असफलताओं को छिपाने के लिए किसी एक सफलता को लेकर देश भर में अभियान चला दिया जा रहा है, उसकी इतनी बातें हो रही हैं कि पिछली बातें पुरानी पड़ जाती हैं. क्या हमने अंधेरे के साथ जीना सीख लिया है? अगर नहीं तो कोरोना की दूसरी लहर के समय की सच्चाई कब रौशनी में आएगी.

सुप्रीम कोर्ट ने अगर सुनवाई न की होती, सरकार को घेरा नहीं होता तो सरकार कोरोना की दूसरी लहर में मारे गए लोगों को पचास हज़ार का मुआवज़ा देने के लिए तैयार नहीं होती. सरकार ने शुरू में तो हाथ ही खींच लिया था कि हम मुआवज़ा नहीं दे सकते हैं. सरकार मुआवज़ा ही नहीं देना चाहती थी. कब पैसा लोगों के हाथों में पहुंचेगा अभी इसका लंबा इंतज़ार करना होगा.

इस तरह कोरोना की दूसरी लहर को हमने झूठ के हवाले कर दिया. देश ने अंधेरा ओढ़ लिया. उस अंधेरे कोने में भी दिवाली का एक दीया जलाने की ज़रूरत है ताकि झूठ भागे और कुछ सच दिखे और ख़ुशी के इस मौके पर उनका भी ध्यान करें जो आपसे उम्मीद कर रहे थे कि आप याद रखेंगे. ख़ैर आप भूल गए कोई बात नहीं लकिन डॉ अजीत जैन नहीं भूले हैं. इसलिए इस दिवाली भी वे काम करते रहेंगे। ज़रूरी है कि हम उन लोगों को याद करें जो अभी तक कोरोना के घातक प्रहार से उबर नहीं पाए हैं और उस याद के प्रति ईमानदारी की मांग यह भी है कि हम सवाल करते रहें कि उस तबाही की जवाबदेही किसकी थी? सुप्रीम कोर्ट में टीकाकरण को लेकर चली तमाम दलीलों और बहसों को याद कीजिए. उस समय की लापरवाहियों पर जमती जा रही अंधेरे की हर परत को हटाइए.

"First evidence based medicine for covid-19" अर्थात कोविड-19 की पहली साक्ष्य आधारित दवा. यहां बैनर पर यह भी लिखा था कोरोना की दवाई, पतंजलि ने बनाई. पतंजलि का रिसर्च 158 देशों के लिए वरदान. इसकी लांच के लिए तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन और मौजूदा केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी गए थे. स्वास्थ्य मंत्री किस आधार पर लांच के लिए गए थे, क्या इन्होंने कोई जांच की थी, अपने विभाग से जांच कराई थी. बैनर पर मेडिसिन लिखा है और कोरोनिल के पैकेट पर इम्युनिटी बूस्टर. यह दवा कभी भी CMR और DGHS ने गाइडलाइन में शामिल नहीं थी और तत्कालीन शिक्षा मंत्री रमेश निशंक अपने क्षेत्र में इस दवा को बंटवा रहे थे. हरियाणा सरकार बंटवा रही थी जबकि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने तो बाकायदा इसके खिलाफ अभियान चला रहा था. आज तक हम नहीं जानते हैं कि कोरोनिल का क्या प्रभाव है, लेकिन यह दवा बिक रही है. अगर आप उस दौर पर जमी अंधेरे की परतों को हटाएंगे तो इस तरह की कई तस्वीरें दिखेंगी जिसके बारे में सरकार अब बात करना नहीं चाहेगा.

विश्व स्वास्थ्य संगठन को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि हमने इस दवा को मान्यता नहीं दी है, समीक्षा भी नहीं की है। हम सच्चे अर्थों में दिवाली मना रहे हैं, अंधेरे की परतों को हटा रहे हैं। पूछिए सरकार से कि क्या इस तरह से देश में कोरोना को लेकर रिसर्च हो रहा था? दवाइयां बन रही थीं? क्या सरकार ने कोरोनिल को लेकर कोई अध्ययन कराया है, इसका क्या असर है?

इस साल 9 मई को ऋषिेकेश एम्स की इमारत में रामदेव प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे. वहां पर एक मैसेज पढ़ते हैं और बताते हैं कि व्हाट्स एप फार्वर्ड है. इसमें लिखा है कि एलोपैथी स्टुपि़ड और दिवालिया साइंस है. लेकिन मैसेज पढ़ने के बाद रामदेव कहते हैं कि जितने लोगों की मौत हास्पिटल ना जाने से हुई और आक्सीजन न मिलने के कारण से हुई, उससे ज़्यादा मौत आक्सीजन के बावजूद हुईं और एलोपैथी दवाओं के बावजूद . इस बयान को लेकर IMA ने FIR कर दियाऔर कड़ी निंदा की . रामदेव ने माफी मांग ली मगर ये प्रसंग बता रहे हैं कि हम कोरोना को लेकर किस तरह की तैयारी कर रहे थे.

टीकाकरण को लेकर तरह तरह के बयान आ रहे थे. तब सरकार ही कह रही थी कि सबको टीका लगाने की ज़रूरत नहीं है. कोई नहीं जानता कि इसका वैज्ञानिक आधार क्या था. 18 मार्च को हर्षवर्धन ने संसद में कहा था कि सभी को टीका दिए जाने की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने बताया था कि वैज्ञानिक आधार पर प्राथमिक समूहों का निर्धारण किया गया था.

सिर्फ एक सवाल पूछिए कि किस वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर तय हुआ कि सभी को टीका दिया जाएगा और वो कौन सा वैज्ञानिक अध्ययन था जिसके आधार पर तय हुआ था कि सभी को टीका नही दिया जाएगा. बाकायदा यह नीति थी कि सभी को टीका नहीं देना है. तभी तो अप्रैल में स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण का बयान आता है कि टीका उन्हें लगेगा जिन्हें ज़रूरत है, उन्हें नहीं जिन्हें चाहिए. पूरे देश के टीकाकरण की बात सरकार ने कभी नहीं की. आज सरकार घर घर टीका लगाने का अभियान चला रही है. अब यही सरकार 1 अरब डोज़ का जश्न मना रही है.

प्रधानमंत्री बैठकें कर रहे हैं कि जिन ज़िलों में लोग टीका लगाने से छूट गए हैं उनके घरों में दस्तक दी जाए ताकि सभी को टीका लगे. अगर इसी तरह की सक्रियता पहले होती तो कोरोना की दूसरी लहर में ये हाल नहीं होता. पूरी कोशिश है कि नई कामयाबी की कहानियों से उस पूरे दौर को अंधेरे में धकेल दिया जाए ताकि उस समय की जवाबदेही को लेकर सवाल ही न उठें. उस दौर के न जाने कितने वादे अधूरे पड़े हैं. बीच बीच में उस समय किए गए काम के भत्ते को लेकर हड़ताल धरना-प्रदर्शन की खबरें आती रहती हैं. कोरोना के समय आशा वर्करों ने शानदार काम किया, बाद में अपने हक को लेकर

सबको सड़कों पर उतरना पड़ा. मध्य प्रदेश में भी आशा वर्कर कोरोना के समय किए गए वादों को पूरा करने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं. 24 जून से मध्यप्रदेश की 84000 आशा वर्कर 7 बार आंदोलन कर चुकी हैं.

भोपाल एम्स में इंटर्न के रुप में काम कर रहे डॉक्टर 6 दिनों तक हड़ताल पर बैठे थे. तब सरकार ने कहा था कि हर इंटर्न को प्रति शिफ्ट 1000 रुपया मिलेगा. इंटर्न ने जान पर खेलकर काम किया था, लेकिन कई महीने बीत जाने के बाद भी इन्हें पैसे नहीं मिले. कई दिनों तक दफ्तरों के चक्कर लगाने के बाद जब पैसा नहीं मिला तो इन डॉक्टरों को हड़ताल पर जाना पड़ा. सरकार को बताना चाहिए कि कोविंड इंसेंटिव के नाम पर जो एलान हुआ था उसका भुगतान क्यों नहीं हुआ, किन किन अस्पतालों में इस तरह का पैसा बाकी है. किस बात के लिए एम्स प्रशासन ने तीन हफ्ते का और समय मांगा है, इन तीन महीनों में इंटर्न को पैसे क्यों नहीं दिए गए. कई इंटर्न ने पचास पचास दिन काम किए हैं, उनका 50 से 55 हज़ार तक का पैसा सरकार पर बाकी है. इतनी जल्दी इन कोरोना योद्धाओं को भुला दिया गया.

हम बस उन बातों को रौशनी में ला रहे हैं जिन्हें अंधेरे में रखे जाने की कोशिश हो रही है. इंडियन मेडिकल एसोसिशन का कहना है कि कोरोना के ड्यूटी करते हुए जिन डाक्टरों की मौत हुई है उनमें से केवल 180 डॉक्टरों को ही मुआवज़ा मिला है. डॉ जयेश लेले का कहना है कि दिसंबर 2020 तक 780 डाक्टरों की मौत हुई थी उसके बाद दूसरी लहर में 700 से अधिक डाक्टरों की मौत हो गई. फरवरी तक सरकार के पास कोई सूची नहीं थी कि कितने डाक्टर मरे जब संसद में सवाल हुआ तब इसकी जानकारी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से मांगी गई. ये उन डाक्टरों की हालत है जिन्हें सरकार ने कोरोना योद्धा कहा था.

कितने डॉक्टर मरे हैं, इसे लेकर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और सरकार के आंकड़े में अंतर है. अंधेरे की समझ जितनी बेहतर होगी, रौशनी का दायरा उतना ही बड़ा दिखेगा. अंधेरा कई प्रकार का होता है और उसका इलाज केवल रौशनी से नहीं होता है. सवालों के जवाब से भी अंधेरा छंटता है. इस दिवाली क्या आप दूसरी लहर से जुड़े सवालों से अंधेरा हटा पाएंगे कि कितने लोगों ने पैसे देकर टीका लिया? मुफ्त टीका के प्रचार में पैसे देकर टीका लेने वालों की गिनती क्यों नहीं बताई जाती है?यह बात भी अभी तक अंधेरे में है. तीसरी लहर की आशंकाएं बनी हुई हैं, मुमकिन है दूसरी लहर जैसा कुछ न हो लेकिन छोटे छोटे हिस्से में इसका मामूली तूफान भी चलती फिरती गाड़ियों को रोक देगा.

अफसोसनाक है कि लोग अभी भी मास्क लगाने को अदात का हिस्सा नहीं बना सके हैं. भीड़ में इस तरह बिना मास्क के जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है. सरकारों ने भी छोड़ दिया है. उसे एक ही तरीका आता है, फाइन यानी जुर्माने का. फाइन के कारण ग़रीब लोगों की जेब से पांच सौ से दो हज़ार की लूट हुई है. बजाए इसके मास्क की संस्कृति स्थापित करने का कोई और प्रयास किया गया होता. फाइन वसूल कर छोड़ दिया गया। साफ है कि फाइन फेल हो चुका है. दशहरे के समय से बाज़ारों में कमोवेश यही हालत है. दशहरा के बाद कुछ नहीं हुआ. दिवाली के बाद भी ऐसा न हो लेकिन जानबूझ कर खतरा मोल लेने का क्या मतलब है. दिवाली के मौके पर इस भीड़ का इंतज़ार सभी को था, ख़रीदार आएं और बाज़ार चले लेकिन अगर मास्क लगा ही लिया जाता तो इसे और भी सुरक्षित किया जा सकता है.

इसके बाद शादियों का सीजन आने वाला है जहां मास्क के नियमों की धज्जियां उड़ने वाली हैं. इसलिए मास्क लगाइये. बाज़ार भी जाइये मास्क लगाएंगे तो कोरोना कम फैलेगा और हो सकता है कि अगली दिवाली इससे और बेहतर हो. महंगाई के सपोर्टर. ये वो सपोर्टर हैं जो इस देश में पहली बार पाए जा रहे हैं, इसके पहले किसी ने महंगाई को सपोर्ट करते नहीं देखा था. इनके सामने महंगाई से परेशान जनता अपनी तकलीफ नहीं कह पाती और कहती है तो उसे ऐसे ऐसे तर्कों से सामना करना पड़ता है जिसका तथ्यों से कोई संबंध नहीं हैं. क्या आप किसी महंगाई के सपोर्टर को जानते हैं? क्या आप महंगाई को लेकर महंगाई के सपोर्टर से बहस जीत पा रहे हैं? उम्मीद कीजिए कि महंगाई को कम करने का नाटक भी जल्दी शुरू होगा, लेकिन जो निकला है वो वापस नहीं आएगा. आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं...
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