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- कांग्रेस से तृणमूल...
ऐसा लगता है कि प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दीदी के रूप में कांग्रेसियों को एक ऐसा योद्धा मिल गया है जो विपक्ष की ताकत को ऊंचाई तक ले जा सके। इसी वजह से एक के बाद एक कांग्रेसी नेता इस पार्टी की सदस्यता ग्रहण किये जा रहे हैं और ममता दी के जुझारू स्वभाव की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि लोकतन्त्र में नेता एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आते-जाते रहते हैं मगर महत्व समय का होता है किस वक्त पर यह एक दल से दूसरे दल में जाने की कार्रवाई होती है। पांच राज्यों के चुनावों में अब केवल तीन-चार महीने ही बचे हैं और ऐसे समय में कांग्रेस नेताओं का अपनी पार्टी से बिदा लेना सन्देश देता है कि पार्टी उन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रही है जिसकी अपेक्षा पार्टी नेता प्रायः करते हैं। ममता दी की खूबी यह है कि वह हर राजनीतिक लड़ाई को जनता से बांध कर लड़ती हैं जिसकी वजह से उनका जनाधार लगातार मजबूत होता जाता है। वैसे इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि अभी तक वह पूर्वोत्तर राज्यों में ही सिमटी हुई हैं और इन्ही में अपनी ताकत बढ़ा रही हैं। मगर जिस प्रकार हरियाणा के कांग्रेसी नेता अशोक तंवर व बिहार के जनता दल (यू) नेता पूर्व राज्यसभा सांसद पवन कुमार ने उनकी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की है उसे देख कर कहा जा सकता है कि ममता दी की योजना अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने की है। इससे पहले उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के महारथी रहे स्व. कमलापति त्रिपाठी के पुत्र व पौत्र भी ममता दी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता प्राप्त कर चुके हैं। अभी हाल ही में मेघालय राज्य के कुल 18 विधायकों में से 12 विधायकों ने जिस तरह उनकी पार्टी में प्रवेश किया है उससे लगता है कि पूर्वोत्तर के लोगों को लग रहा है कि भाजपा का मुकाबला करने में केवल वह ही सक्षम हो सकती हैं। गौर से देखा जाये तो कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में सैद्धान्तिक रूप से ज्यादा अन्तर नहीं है क्योंकि इस पार्टी का जन्म 1996 में कांग्रेस पार्टी से ही हुआ है। कांग्रेस से अलग होते हुए उस समय ममता दी ने कहा था कि कांग्रेस को जनता से जोड़े जाने की जरूरत है। तब कांग्रेस के अध्यक्ष स्व. सीताराम केसरी थे। मगर इसके बाद ममता दी ने अपने गृहराज्य प. बंगाल में जिस तरह सत्तारूढ़ वाम मोर्चे का मुकाबला किया उससे उनका जनाधार लगातार बढ़ता गया और वह बंगाली अस्मिता की प्रतीक बन गईं। हालांकि यह बहुत ही दुखद है कि कांग्रेस को 1885 में जन्म देने वाले राज्य प. बंगाल में आज कांग्रेस का नामोनिशान केवल दो सांसदों के रूप में बचा है जिनमें से एक लोकसभा में इसके नेता अधीर रंजन चौधरी हैं। यह भी विस्मयकारी है कि चौधरी के रहते ही इस राज्य में कांग्रेस का सफाया हो गया और स्व. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र पूर्व सांसद अभिजीत मुखर्जी तक को कांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस में जाना पड़ा। उनके अलावा और भी कई कद्दावर नेता कांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस में गये। मगर इसे ममता दी का करिश्मा ही कहा जायेगा कि उन्होंने अपनी पार्टी को बंगाल में असली कांग्रेस की तरह खड़ा करने में सफलता प्राप्त की जिसके पीछे उनके संघर्षशील व्यक्तित्व का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। प. बंगाल एक से बढ़कर एक बुद्धिजीवी का राज्य रहा है और आज हालत यह है कि इस राज्य के अधिसंख्य बुद्धिजीवी ममता दी के साथ हैं। इतना ही नहीं फिल्मी जगत से लेकर खेलों तक की हस्तियां ममता दी की प्रशंसक हैं। राजनीतिक रूप से निश्चित रूप से यह ममता दी की ही जीत है क्योंकि उनकी पार्टी में उनके बाद फिलहाल कोई एेसा नेता नहीं है जो जनता का तूफानी समर्थन पाने में सफल हो सके। मेघालय से पहले छोटे से राज्य त्रिपुरा में भी ममता दी ने अपना झंडा फहराने की कोशिश की थी मगर इसे भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनावों में रोक दिया था। अब इस राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव हो रहे हैं जिन्हें लेकर तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के बीच भारी उठा-पटक टल रही है। संपादकीय :जनसंख्या के मोर्चे पर अच्छी खबरसैंट्रल विस्टा : देश कीकच्चे तेल के वैश्विकदलित युवक प्रिंस को न्याय !निजी डाटा सुरक्षा विधेयककिसान आन्दोलन के स्वरूप ?दरअसल ममता दी की अपने राज्य के विधानसभा चुनावों में हुई भारी विजय से पूरे देश के कांग्रेसियों को यह सन्देश चला गया कि भाजपा को परास्त करने के लिए ममता दी जैसी नेता के हौंसले और तेवरों की जरूरत है जिसकी वजह से वे उनकी पार्टी की तरफ तेजी से आकृष्ठ हो रहे हैं। बेशक ममता दी का उत्तर भारत के राज्यों में कोई खास वजूद नहीं है मगर उनके व्यक्तित्व की धमक जरूर है जो दूसरे राजनीतिक दलों खास कर कांग्रेस के नेताओं को आकर्षित करती है। वरना क्या वजह थी कि असम की नेता सुष्मिता देव भी उनकी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करती और गोवा के पूर्व मुख्यमन्त्री कांग्रेसी नेता भी इस राज्य में होने वाले चुनावों से पहले अपनी पार्टी छोड़ कर ममता दी की शरण में जाते। लोकतन्त्र का यह नियम भी होता है कि इसमे विकल्पों की कभी कोई कमी नहीं रहती यदि शिखर राजनीतिक स्तर पर कोई विकल्प पैदा नहीं हो पाता तो जनता स्वयं विकल्प खड़ा कर देती है। इससे कांग्रेस को सबक लेने की जरूरत है। कोई भी राजनीतिक दल कार्यकर्ताओं की ऊर्जा से ही चलता है क्योंकि वे ही अपने नेता के नेतृत्व में आम जनता को जोड़ने की कला में माहिर होते हैं। और जनता तब जुड़ती है जब नेता अपने गले से उसकी आवाज निकाल कर जन अपेक्षाओं का आह्वान करता है।