सम्पादकीय

दोस्तो, अच्छी सैलरी और अच्छी नौकरी के दिन चले गए

Gulabi
22 Sep 2021 7:30 AM GMT
दोस्तो, अच्छी सैलरी और अच्छी नौकरी के दिन चले गए
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गोदी मीडिया और आईटी सेल के ज़रिए कितनी मेहनत हुई है कि युवाओं का ध्यान हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस से न हटे लेकिन लगता है इनका ध्यान हट गया है

रविश कुमार।

क्या आप जानते हैं कि कोरोना के इन पौने दो साल के दौरान स्कूल और कॉलेज की फीस कितनी बढ़ी है? हम भी नहीं जानते हैं. मान कर चला जा सकता है कि जो अमीर जनता सौ रुपये लीटर आराम से ख़रीद रही है वही अमीर जनता महंगी फीस भी आराम से ही दे रही होगी. जनता के बीच इतनी स्वीकृति है कि सरकार को अफसोस ही हो रहा होगा कि पेट्रोल का दाम 200 रुपये करना चाहिए था. हालात से हारी हुई जनता के बीच अगर न्यूज़ चैनलों के ऐंकर वीर रस में प्रदर्शन नहीं करते तो राष्ट्र आज कितना कमज़ोर लगता. इन एंकरों की बुलंद और बेशर्म आवाज़ ही इस वक्त हारे का सहारा है. एंकरों की ललकार न होती तो दर्शकों को ताकत की दवा न मिलती. बहुत दिनों के बाद बड़ों को कार्टून के रुप में न्यूज़ चैनल मिल गए हैं. जिस पर टॉम एंड जेरी का खेल चल रहा है . टॉम जेरी का पीछा कर रहा है और जेरी टॉम का. आप इस इंतज़ार में देखे जा रहे हैं कि टॉम को जेरी पकड़ेगा या जेरी को टॉम.


गोदी मीडिया और आईटी सेल के ज़रिए कितनी मेहनत हुई है कि युवाओं का ध्यान हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस से न हटे लेकिन लगता है इनका ध्यान हट गया है. उत्तराखंड के दो मेडिकल कालेज के छात्र 26 दिनों से अथक प्रदर्शन कर रहे हैं कि फीस वृद्धि वापस हो. राज्य के नियम के अनुसार इन छात्रों को सरकारी नौकरी करने के बॉन्ड भरने होते थे और फीस होती थी पचास हज़ार. छात्रों का कहना है कि बान्ड भरने का यह विकल्प हटा दिया गया है ताकि महंगी फीस ली जा सके.अब सभी को फीस के तौर पर हर साल चार लाख देने होंगे. छात्रों का कहना है इस तरह पांच साल की फीस 18 लाख हो जाती है. इसमें दो लाख रुपये इंटर्नशिप के भी शामिल हैं. हल्द्वानी और दून मेडिकल कालेज में पांचों वर्ष के कुल 700 छात्र हैं. इस तरह से पांच साल में इन 700 छात्रों से सरकार 126 करोड़ रुपये वसूल लेगी. क्या यह ज़्यादा नहीं है? छात्रों का कहना है कि कई राज्यों के सरकारी मेडिकल कालेज में फीस बहुत कम है केवल उत्तराखंड में बहुत ज़्यादा है. छात्र एक साल की फीस चार लाख दे भी चुके हैं. इनकी मुलाकात मुख्यमंत्री से हो चुकी है और फीस कम करने का आश्वासन भी मिला है. स्वास्थ्य मंत्री ने भी कैबिनेट में तय होने की बात कही थी लेकिन अब वह बैठक 24 सितंबर को होनी है. छात्र इससे और नाराज़ हो गए और कैंडल मार्च करने का कार्यक्रम बना लिया. अच्छी बात है कि इन छात्रों को एक बात समझ आ रही होगी कि सरकारी कालेजों का होना और उनका सस्ता होना कितना ज़रूरी है. लेकिन यही छात्र जब बाहर की दुनिया में जाएंगे तो वकालत करते मिलेंगे कि सरकार को प्राइवेट कालेज ज्‍यादा से ज्यादा खोलने चाहिए. आज प्राइवेट मेडिकल कालेजों की फीस लाखों करोड़ों में पहुंच गई है. अभी हमने इन सरकारी कालेजों में पढ़ाई के स्तर की बात नहीं की है. फाइनल ईयर के मेडिकल छात्रों को PG की भी कोचिंग करनी पड़ती है. मेडिकल में जाने के लिए कोचिंग, मेडिकल की ऊंची पढ़ाई के लिए कोचिंग. क्या यह अच्छा नहीं हो कि कोचिंग क्लास को ही मेडिकल कालेज बना दिया जाए.

IIM की फीस भी काफी महंगी हो गई है. Quint में एक रिपोर्ट छपी है कि पुराने IIM में औसत फीस 20 लाख से अधिक हो गई है. दो साल की पढ़ाई के लिए 20 लाख से अधिक फीस देनी पड़ रही है. नए IIM की औसत फीस 13.7 लाख हो गई है. उम्मीद है नए IIM के छात्रों को भी अच्छी सैलरी मिल जाती होगी. ब्रांड के नाम पर एडमिशन लेकर फीस वसूली शुरू हो जाती है और नए IIM का कैंपस बनने में दो तीन बैच बिना कैंपस के ही पढ़ कर निकल जाता है. IIM बोधगया का कैंपस भी 4-5 साल बाद भी नहीं मिला है. अच्छी बात है कि भारत के युवाओं के लिए ये सब प्रश्न महत्वपूर्ण है जिससे अंदाज़ा होता है कि उनके जीवन में कितनी शांति है. युवाओं को लगता होगा कि IIM में हो गया भाग्य सुधर जाएगा. लोन ले लो.

इसी महीने हिन्दुस्तान टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी है. IIM संस्थानों के अलावा All India Council for Technical Education (AICTE) से मान्यता प्राप्त जितने भी मैनेजमेंट संस्थान हैं, वहां से पढ़े छात्रों को नौकरियां मिलनी काफी कम हो चुकी हैं. 2019-20 की तुलना में 2020-21 में मैनेजमेंट स्कूल के बाद नौकरी मिलने की दर में 23 प्रतिशत की गिरावट आई है. दिल्ली में 40 संस्थानों में प्रबंधन की पढ़ाई होती है. यहां 2019-20 की तुलना में 2020-21 में 37 प्रतिशत की गिरावट आई है. 4,053 छात्रों की जगह 2, 569 छात्रों को ही नौकरियां मिली हैं. इसके बाद भी युवाओं के बीच नौकरी मुद्दा नहीं है तो ये ग़लती युवाओं की नहीं, नेहरू की है.

एक ऐसे दौर में जब दिन रात अतीत के गौरव की बहाली का अभियान चल रहा है भारत के युवा यहां अपनी बहाली की तैयारी में लगे हैं. एक ऐसे दौर में जब अतीत के गौरव की बहाली के नाम पर महापुरुषों की मूर्तियां ऊंची,बलिष्ठ और भीमकाय होती जा रही हैं, भारत के युवा अपनी बहाली के इंतज़ार में दुबले हुए जा रहे हैं.

किसी भी सरकार ने सरकारी भर्ती के आंकड़ों को पारदर्शी तरीके से नहीं बताया है लेकिन उसकी तरफ से अनाप शनाप दावे किए जाते हैं कि लाखों नौकरियां दे दी गई हैं. यूपी में तो साढ़े चार लाख से साढ़े पांच लाख सरकारी नौकरी देने के दावे किए जा रहे हैं. अब इसकी जांच कैसे हो इस बारे में सोचने का मतलब है देश के युवाओं से बहुत उम्मीद करना जो कि बहुत घातक हो सकता है. नेता कोचिंग सेंटर नहीं जाते हैं. लोक सेवा आयोग के दफ्तर नहीं जाते हैं. इन युवाओं को गौरव होता रहे इसलिए नेता मंदिर ज़रूर जाते हैं. वहां से लौट कर आए नेताजी के सामने रोज़गार का मुद्दा धूप अगरबत्ती के सुगंध में धुंधला हो जाता है.

कैथल से सुनील रवीश ने कुछ युवाओं से वगैरह वगैरह मुद्दों पर वगैरह वगैरह बात की. CMIE की रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में बेरोज़गारी की दर 35.7 प्रतिशत से अधिक है. सरल हिन्दी में भयावह है. भारत के एक औद्योगिक और समृद्ध माने जाने वाले राज्य में बेरोज़गारी की दर 35 प्रतिशत से अधिक है. यहां पर आईटी सेल को काफी मेहनत करनी होगी देखना होगा कि हर युवा के मोबाइल में नेहरू के मुसलमान होने वाला मीम पहुंच जाए. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है लेकिन वहां भी बेरोज़गारी 26 प्रतिशत से अधिक है. यह भी भयावह है. बिहार और जम्मू कश्मीर में 13.6 प्रतिशत है. यह भी भयावह है. आम तौर पर 4 प्रतिशत की दर सामान्य मानी जाती है लेकिन अब इतनी भयावह दरों को भी कोई नोटिस नहीं लेता है.

जो चीज़ नहीं है, उसकी तैयारी करने में भारत के युवाओं का जवाब नहीं है. हर तरह से दिख रहा है कि प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में अच्छी नौकरी नहीं है लेकिन भारत का युवा हर तरह से कोचिंग में पैसे लगा रहा है. जुलाई महीने में बेरोज़गारी की दर 6.95 प्रतिशत थी जो अगस्त में बढ़ कर 8.32 प्रतिशत हो गई. CMIE के आंकड़े बता रहे हैं कि संगठित क्षेत्र के रोज़गार खत्म हो रहे हैं. 2020 में संगठित क्षेत्र की आधी नौकरियां असंगठित क्षेत्र में चली गईं. यह बात इसी अगस्त में आई संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी लिखी है. इसका मतलब यह नहीं कि भारत के युवा प्राइम टाइम देखते हुए जागृत हो जाएं. बिल्कुल ऐसा न करें. बल्कि यह जो समय है वह आराम से सोने और जागने पर अतीत पर गौरव करने का समय है.

डिलिवरी ब्वॉय. कम से कम पैसे में अधिक से अधिक सामान लाद कर घर पहुंचाने का यही काम है जो इन दिनों मिल रहा है. इन बाइक सवार डिलिवरी ब्वॉय की पीठ पर अर्थव्यवस्था का बोझ है या उनके जीवन का हिसाब करना मुश्किल है. घटिया जगहों में भी हाउसिंग सोसायटी में रहने वालों का गौरव भाव होता है. उनकी इतनी ठसक होती है कि डिलिवरी ब्वाय के लिए लिफ्ट के इस्तेमाल की मनाही होती है. इन्हीं सोसायटी वालों को जब बिल्डर ठगता है तो अंधेरा छा जाता है लेकिन डिलिवरी ब्वाय को देखते ही ये दादा बन जाते हैं कि लिफ्ट में नहीं जा सकते. कोई नेता इसकी बात नहीं करेगा कि पिछले सात साल में संगठित क्षेत्र की अच्छी सैलरी वाली नौकरियां बढ़ी हैं या असंगठित क्षेत्र की कम सैलरी वाली नौकरियां बढ़ी हैं.

महेश व्यास ने लिखा है कि हर तरह का काम सम्मान का पात्र है लेकिन कोई देश नहीं चाहेगा कि ऊंची उत्पादकता, अच्छी सैलरी वाली नौकरी की जगह कम उत्पादकता और कम सैलरी वाली नौकरियां बढ़ें. यही हाल खेती का भी है. लोग शहरों की फैक्ट्रियों का काम छोड़ गांवों की तरफ जा रहे हैं. खेती के पास भी इनके लिए काम नहीं है तो मजबूरी में ये लोग कम पैसे में भी कुछ भी कर रहे हैं. चुनावों के समय बेरोज़गारों के खाते में दो हज़ार या पांच हज़ार देने की होड़ मची रहती है लेकिन कोई पार्टी ये वादा नहीं करती कि कितने युवाओं को नौकरी देगी. कोई नेता रोज़गार पर बात नहीं करता है और युवाओं के प्रिय नेता तो बिल्कुल ही बात नहीं करते हैं. युवाओं को नेताओं से अतीत के गौरव की बहाली चाहिए, अपनी बहाली नहीं.

महेश व्यास ने लिखा है कि 2017-18 के पहले बेरोज़गारी की दर 3 प्रतिशत हुआ करती थी लेकिन अब 7-8 प्रतिशत की दर सामान्य लगने लगी है. लोगो को लगता है कि बेरोज़गार है तो उसकी अपनी कोई कमी होगी. आर्थिक नीतियों की नहीं. लोग काम भी कम मांगने आ रहे हैं. 2019-20 में भारत जितने लोगों को काम दे रहा था आज उससे एक करोड़ कम लोगों को काम दे पा रहा है. क्या आप इसी सुपर पावर भारत का इंतज़ार कर रहे थे?

भारत के युवाओं के सामने पहाड़ जैसी मुश्किलें हैं. नौकरी नहीं है और है भी तो बहुत कम पैसे की. उन्हें यकीन दिला दिया जाएगा कि उनमें स्किल की कमी है. वे लायक नहीं है ताकि उनका ध्यान आर्थिक नीतियों की विफलता पर न जाए.
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