सम्पादकीय

मन की आजादी सिर्फ उतनी ही कि आप अपना पिंजरा खुद चुन सके, मियाद खो चुकी राजनीतिक पार्टियां और आप

Gulabi
10 March 2022 8:30 AM GMT
मन की आजादी सिर्फ उतनी ही कि आप अपना पिंजरा खुद चुन सके, मियाद खो चुकी राजनीतिक पार्टियां और आप
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कई पिंजरों के कैदी हैं हम। कई पिंजरों में बसते हैं
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
कई पिंजरों के कैदी हैं हम। कई पिंजरों में बसते हैं। कैद काटना अच्छा लगता है। हर दो, ढाई या पांच साल में होने वाले चुनावों के हम मालिक नहीं हैं। हमने अपने मन को आजादी दी है तो सिर्फ इतनी कि अपनी मर्जी से चुनाव कर लें अपने पिंजरे का। रहना हमें कैद में ही है। हर तरह के कैदखाने हैं देश में... और हर तरह की कैदें। बच्चे अपनी वजन-बढ़ाऊ किताबों की बस्ताई-शिक्षा में कैद हैं।
बेटियां अपनी सुरक्षा के खतरे के कारण खुद में ही कैद रहने को मजबूर हैं। और महिलाओं, बुजुर्गों की कैदों का तो पारावार नहीं है। तथाकथित सभ्य समाज इन कैदों को घर, ऑफिस, मुहल्ला, खेत, खलिहान, सड़क, बाजार और जाने क्या-क्या कहता है। जब हर कोई कैद है, अलग-अलग कैदखानों में, फिर कैसी आजादी, कैसा लोकतंत्र, कैसा चुनाव?कोई नेता अगर सच में चुनाव जीतना चाहता है तो हमें इन कैदखानों से मुक्ति दिला दे। फिर करे राज। चतुर्दिक। एकतरफा। फिर किसी भी नेता को वोट के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। लोग खुद ही चुन लेंगे अपने मुक्तिदाता को।
खैर, सत्ता एक ऐसी किताब है, जो अक्षर-अक्षर बनती है और अक्षर-अक्षर टूटती, बिखरती और बदलती है। चुनाव इस किताब का मुखपृष्ठ है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, अकाली-दल, आप और भाजपा सभी पार्टियां अपनी-अपनी किताब के लिए आकर्षक मुखपृष्ठ बनाने में महीनों से लगी हुई थीं।
जैसे नदी के किनारे का पीपल बहते पानी को आईना बनाकर दिनभर उसमें अपना चेहरा देखता रहता है, वैसे ही ये नेता भी होते हैं। इनके अपने आईने होते हैं। अपने से मतलब, ये अपनी छवि वैसी ही देखते हैं, जैसी खुद देखना चाहते हैं। सभी प्रमुख दलों के नेता अपने-अपने आईने में, अपनी ही सरकार देख रहे हैं। वे सब ऐसा कर सकते हैं। उनकी मर्जी है। लेकिन सच इनमें से कोई एक ही है। सरकार किसी एक की ही बनने वाली है।
पंजाब ने इस बार सभी प्रमुखों को चकमा दे दिया, एग्जिट पोल से तो ऐसा ही लग रहा है। वो जो एक मियाद होती है, दवाओं की शीशियों पर लिखी हुई। दवा लेते वक्त ज्यादातर या लगभग सभी लोग उसे ही देखते हैं। मियाद बीत जाए तो बेअसर हो जाती है दवा। कभी-कभी जहरीली भी। आप पार्टी को देखकर अब कुछ हद तक लगने लगा है कि कम से कम पंजाब में तो पुरानी ज्यादातर पार्टियों की मियाद बीत चुकी है। हालाकि तर्क दिए जा रहे थे कि कोरे भाषणों के भरोसे चुनाव नहीं जीते जा सकते।
चुनाव जीतने के लिए जो संगठन चाहिए वो आप के पास नहीं है। लेकिन एग्जिट पोल सामने आने के बाद पंजाब में ये तमाम धारणाएं उल्टी होती दिखाई देने लगी हैं। कुल मिलाकर बाकी पार्टियों के पास आप की लहर की कोई तोड़ नहीं है। सिर्फ एक आस है कि आप बहुत दिन तक आप नहीं रह पाता। आप से तुम और तुम से तू होता ही है।
उत्तर प्रदेश में हालाकि भाजपा की जीत की संभावना प्रबल दिखाई दे रही है लेकिन मुकाबला बहुत कड़ा रहा। जैसे-जैसे चुनावों के चरण पूरे होते जा रहे थे, लग रहा था जैसे सिर पर रखा पहाड़ उतरता जा रहा है। जैसे परीक्षा देने के बाद और रिजल्ट आने के पहले विद्यार्थी का मन विचलित रहता है। जैसे फसल काटने और बेचने के पहले किसान का जी करता है। राजनीति और चुनाव में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति की हालत फिलहाल वैसी ही है।
सुबह होने से पहले रात और भी काली, डरावनी हो जाती है। चुनाव-चहेतों की हालत भी कुछ इसी तरह है। खैर, रात का समंदर हम इसीलिए पार करते हैं क्योंकि दूसरी तरफ सुबह होती है। सुबह हो भी चुकी है। देखना है- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में आज किसका तिलक होने वाला है।
जैसे-जैसे चुनावों के चरण पूरे होते जा रहे थे, लग रहा था सिर पर रखा पहाड़ उतरता जा रहा है। जैसे परीक्षा देने के बाद और रिजल्ट आने के पहले विद्यार्थी का मन विचलित रहता है। जैसे फसल काटने और बेचने के पहले किसान का जी करता है।
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