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सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि सरकार पर सवाल उठाना राजद्रोह नहीं होता। हर पत्रकार को इस मामले में संरक्षण प्राप्त है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि सरकार पर सवाल उठाना राजद्रोह नहीं होता। हर पत्रकार को इस मामले में संरक्षण प्राप्त है। देखना है, इसे सरकारें कहां तक समझ पाती हैं। अदालत का ताजा फैसला पत्रकार विनोद दुआ को लेकर आया है। गौरतलब है कि विनोद दुआ ने दिल्ली दंगों को लेकर अपने एक यू-ट्यूब कार्यक्रम में केंद्र सरकार को कुछ असहज करने वाले सवाल उठाए थे। उसे लेकर हिमाचल प्रदेश के एक भाजपा कार्यकर्ता ने उनके खिलाफ स्थानीय थाने में विभिन्न धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज करा दी थी।
उस कार्यकर्ता का आरोप था कि दुआ ने अपने कार्यक्रम के जरिए लोगों को उपद्रव के लिए उकसाने, प्रधानमंत्री की मानहानि करने, झूठी खबर फैलाने और राजद्रोह का प्रयास किया है। उस प्राथमिकी के खिलाफ दुआ ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई और अदालत ने हिमाचल प्रदेश पुलिस के उनसे किसी तरह के पूरक प्रश्न करने और अगले आदेश तक उनके खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई पर रोक लगा दी थी। अब अदालत ने उन्हें दोषमुक्त करार दे दिया है, साथ ही टिप्पणी की है कि सरकारों के खिलाफ असहमति को लेकर पत्रकारों को संरक्षण प्राप्त है।
हालांकि विनोद दुआ का मामला कोई नया या अकेला नहीं है। पत्रकारों के सवालों और टिप्पणियों से सरकारें पहले भी आहत होती और उनके खिलाफ बदले की भावना से कार्रवाई करने का प्रयास करती देखी जाती रही हैं। ऐसे ही बिहार के एक मामले में 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि सरकार के फैसलों या उसकी तरफ से अपनाए गए उपायों से असहमति रखना राजद्रोह नहीं होता। इसके लिए पत्रकारों को संरक्षण प्राप्त होना चाहिए।
मगर अदालतों के निर्देशों या आदेशों को सरकारें भला कहां तक मानती और याद रखती हैं। उसके बाद भी कई ऐसे मौके आए, जब सरकार की आलोचना करने पर पत्रकारों को दंडित करने के प्रयास हुए। मगर पिछले छह-सात सालों में ऐसे प्रयास कुछ अधिक देखे गए हैं। सरकार के विरुद्ध बोलने या लिखने पर कई पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराए गए, कई को जेल भी जाना पड़ा। कई पत्रकारों को सीधे दंडित न करके परोक्ष रूप से किया गया। इसे लेकर बहस शुरू हो गई कि राजद्रोह या देशद्रोह के दायरे में कौन-सी बातें आती हैं।
जिन पत्रकारों को मुख्यधारा मीडिया में जगह मिलनी बंद हो गई, वे सोशल मीडिया मंचों, यू-ट्यूब चैनलों आदि के माध्यम से अपने बेबाक विचार प्रकट करने लगे। मगर ये मंच भी सरकार को खटकने लगे, तो उन पर लगाम कसने के लिए नया कानून बना दिया। अब वह कानून भी बहस के केंद्र में है।
कोई भी देश सही अर्थों में तब तक लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता, जब तक वहां के संचार माध्यमों, पत्रकारों को अभिव्यक्ति की आजादी हासिल न हो। पत्रकारिता सरकारों को सही दिशा में कदम उठाने में मददगार साबित होती है। उसकी आलोचनाओं को अगर सरकारें सुनें और समझने का प्रयास करें, तो वे शायद अपनी जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वाह कर सकेंगी। मगर हमारे यहां इस तकाजे को कभी ठीक से नहीं समझा गया।
यह अकारण नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में पिछले कुछ सालों से भारत दुनिया की सूची में निरंतर नीचे खिसकता गया है। विनोद दुआ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला न सिर्फ केंद्र के लिए, बल्कि तमाम राज्य सरकारों के लिए भी एक सबक है। उनमें अपने प्रति असहमति की आवाजों को सुनने का साहस होना ही चाहिए।
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