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मीना बुद्धिराजा: समाज का अभिन्न अंग होने के कारण व्यक्ति विशाल जनसमूह का ही एक अटूट हिस्सा है। समाज के बहाव की दिशा में चलना उसकी नियति है। इस तथ्य के साथ ही व्यक्ति और समाज के सांमजस्य और अंतर्विरोधों को उनकी सार्थक भूमिका की कसौटी पर आंकना जरूरी है। तभी व्यक्ति अपने अस्तित्व और विचारों का अपने समाज और परिवेश से कोई अर्थवान सबंध बना सकता है, वरना एक निरर्थक और औपचारिक वस्तु बन कर रह और जी सकता है। औसत सामाजिक जीवन उपभोक्तावाद से इतना ग्रस्त है कि उसका बेशुमार दबाव मनुष्य की चेतना पर बढ़ रहा है।
इस अति महत्त्वाकांक्षी समय में जब परिवेश का आघात मन:स्थिति पर होता है, तो जीवन पर इस तीव्र और दोहरे दबाव के नीचे व्यक्ति की चेतना जिस द्वंद्वात्मकता से संघर्ष करती है, उसका असर संवेदना और वैचारिकता दोनों स्तरों पर होता है। इसलिए वह स्वयं को आसपास के समाज से भिन्न अनुभव करता है कि आत्मसंघर्ष ने उसकी सोच और दृष्टि को बदला है, लेकिन इन बदलावों, अनुभवों की सार्थकता ने उसे जो गतिशीलता दी है, नए विकल्पों की दिशा दिखाई है, उसका प्रभाव समाज पर नहीं दिखता।
वह अब भी जड़, गतिहीन और संवेदना रहित, विचारहीन है। वह बाहरी रूप से तो बदल रहा है, पर आंतरिक स्तर पर वही परंपराशील है, एक ही लीक पर चलने वाला, जिसमें दोहराव की सामान्य प्रवृत्ति है। इन विरोधी स्थितियों में समन्वय और सामाजिक अनूकूलता को न पा सकने की विवशता में अपने व्यक्तिगत सच की उपलब्धि और संघर्ष के साथ, समाज की स्वीकृत मान्यताओं से, सामूहिक सहयोग से उपेक्षित होकर भी वह अपने अस्तित्व की पहचान के लिए निर्मम होकर अपना रास्ता निकाल सकता है। फिर इस उद्देश्य में सफलता और विफलता की जो सामाजिक अपेक्षा है, इस बोझ से मुक्त होकर वह चल सकता है। यह उसके अनुभवों से निर्मित जीवन दृष्टि है, जिसका दायित्व भी उसे उठाना पड़ता है और इस प्रक्रिया में व्यक्ति से ही समाज का विस्तार होता है।
व्यक्ति की स्वाधीनता में ही समाज की स्वाधीनता छिपी होती है। जीवन के विविध अनुभवों, अंतर्विरोधों, तनावों, विडबंनाओं, संघर्षों और चुनौतियों से जूझ कर ही एक स्वाधीन अस्तित्व बनता है। इसी के चलते उसे जीवन की सतही समझ नहीं, बल्कि एक गहरी दृष्टि प्राप्त होती है। यह स्वतंत्र सोच और नजरिया कोई स्थिर वस्तु नहीं है, जो एक बार मिलने पर सहेज कर रख ली जाए। यह दृष्टि निरंतर नए विकल्पों और संभावनाओं के साथ-साथ विकसित होती है, जैसे कि रास्ता स्वंय उद्देश्य और साधन ही साध्य बन जाए।
व्यक्तित्व की यह स्वाधीनता जीवन की बहुत-सी संकीर्णताओं को छोड़ कर और कई बाधाओं को पार करती हुई ही अपने परिपक्व विकास के चरम बिंदु तक पहुंचती है। यह स्वतंत्रता किसी पर निर्भर नहीं है और अपने एकांत में भी समग्र और संपूर्ण रूप से स्वायत्त होती है। मगर समाज के लिए उत्तरदायी होकर वह उसे भी स्वाधीन सोच और नई दृष्टि दे सकती है। कोई व्यक्ति अकेला स्वाधीन हो सकता है, लेकिन उसकी परिणति व्यापक होकर सामूहिकता में ही सफल होती है।
समकालीन जीवन में यांत्रिकता का प्रभाव इतना अधिक हो चुका है कि दोहराव हमारी आदत और जीने की शैली का आधार बन गया है। इस कृत्रिमता ने हमारे अस्तित्वबोध की मौलिक प्रवृत्ति को नष्ट कर दिया है। अतिशय उपभोग और भीड़ के साथ चलने की विवशता ने मानवता की अन्य सभी संभावनाओं को समाप्त करने की दिशा में व्यक्ति को आगे बढ़ाया है। यह अनुकरण सभी के जीवन को एक ही लीक पर चलने की निरर्थक सोच का अभ्यस्त बनाती है, जिसमें कोई नया विकल्प खोजने के संघर्ष और चुनौतियों के लिए व्यक्ति और समाज तैयार नहीं है। बाह्य परिस्थितियों का दबाव, सफलता की तीव्र प्रतिस्पर्धा और सुविधाओं को किसी भी स्थिति में प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा जिस नीरस, अस्मिताहीन और सतही जीवनबोध को उत्पन्न करती है, उसमें अस्तित्व के बड़े प्रश्न और उनकी सार्थकता का महत्त्व जानने का प्रयास असंभव हो गया है।
औसत से ऊपर सोचने वाला सचेतन व्यक्ति इसलिए परिस्थितियों के अनचाहे दबाव और सामूहिक सोच के पीछे चलने की बाध्यता का अनुसरण नहीं कर सकता। अपने अस्तित्व की स्वाधीनता का अनुभव करते हुए वह इस आरोपित व्यवस्था की सोच के बंधन से बाहर आने की बेचैनी महसूस करता है। वह अपने अधूरेपन और रिक्तता को समाज में किसी और के निरर्थक प्रभाव से नहीं, बल्कि उसे सार्थक उद्देश्य के अर्थ से पूरा करना चाहता है। यह जरूरी नहीं कि उसके सभी विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं सामाजिक मान्यता और स्वीकृति पाएं या नहीं, पर जब तक व्यक्ति को अपने अस्तित्व की पहचान से संतुष्टि नहीं मिलती, तब तक वह समाज से कोई गहन संवाद और संबंध स्थापित नहीं कर सकता। इसलिए व्यक्ति और समाज की स्वाधीनता का सामंजस्य कोई सार्थक विकल्प और मौलिक विचारधारा की दिशा दे सकता है।