सम्पादकीय

चार बनाम पच्चीस लाख

Rani Sahu
27 Feb 2022 7:00 PM GMT
चार बनाम पच्चीस लाख
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आखिर माहौल की तल्खियों ने हिमाचल विधानसभा सत्र में पहली बार यह रेखांकित कर ही दिया कि अंदर और बाहर के शोर-शराबे के कारणों मंे प्रदेश की कार्य संस्कृति का बिगड़ता मिजाज भी शामिल है

आखिर माहौल की तल्खियों ने हिमाचल विधानसभा सत्र में पहली बार यह रेखांकित कर ही दिया कि अंदर और बाहर के शोर-शराबे के कारणों मंे प्रदेश की कार्य संस्कृति का बिगड़ता मिजाज भी शामिल है। इसमें दो राय नहीं कि वर्तमान सरकार या इससे पूर्ववर्ती सरकारें कर्मचारी हितैषी रही हैं, लेकिन चुनाव की चुगलखोरी में हमेशा सरकारों के कान कच्चे पाए गए। प्रदेश में अब एक नई बहस शुरू हो रही है। यानी चार बनाम पच्चीस लाख। चार लाख सरकारी कर्मचारी एवं पेंशनर्स के सामने पच्चीस लाख निजी क्षेत्र का रोजगार खड़ा है और सदैव तत्परता के साथ मेहनत-मशक्कत करता हुआ प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद में अपना योगदान कर रहा है। ऐसे में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अगर कड़ाई से सरकारी कार्य संस्कृति के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए विपक्ष की भूमिका और कर्मचारी आंदोलनों की तरफ इशारा किया है, तो यह हिमाचल की वास्तविकता है। हिमाचल की कार्य संस्कृति का बिगड़ता स्वरूप हर जगह अंगीकार हो रहा है और इसके लिए प्रदेश की राजनीति, मिशन रिपीट के झूले और कर्मचारी सियासत पूरी तरह दोषी है। यह पहला प्रदेश है जहां कर्मचारी अधिकार, नागरिक समाज के अधिकारों से भी ऊपर है। यह पहला राज्य है जहां सरकारी नौकरी के चमत्कार व आविष्कार की सियासत भूल जाती है कि हिमाचल का रोजगार केवल निजी क्षेत्र की खुशहाली से ही संभव है।

यह पहला राज्य है जहां सरकारी खजाने पर पलते चार लाख लोगों के सामने निजी क्षेत्र के पच्चीस लाख रोजगार को दरकिनार किया जाता है। घाटे में एचआरटीसी के वजूद पर नित नए डिपो टांग कर जब उचित व अनुचित पर गौर नहीं होता, तो कार्य संस्कृति का पतन होता है। जब पर्यटन की सरकारी इकाइयां बंद होती हैं या लीज पर जाती हैं, तब कहीं सोचना होगा कि कार्य संस्कृति बेहाल है। जहां शहरी सरकारी स्कूलों की बेहतरीन अधोसंरचना, कार्यरत उच्च संपर्कों या राजनीति के लाभार्थी अध्यापक अपने दम पर औसत छात्र भी आकर्षित नहीं कर पाते, तो वहां कार्य संस्कृति डूब रही होती है। क्या इस डूबती कार्य संस्कृति की नैया पार लगाने के लिए कभी पक्ष या प्रतिपक्ष ने मिल बैठकर विचार किया या सत्ता के खेल में विपक्ष को केवल प्रश्न ही उठाने हैं। आश्चर्य यह भी कि हिमाचल में मौजूदा दौर का शासक वर्ग केवल सरकारी कर्मचारी ही साबित हो रहा है। प्रदेश के सारे आंदोलन इसी की जागीर और सरकारी खजाने के उपकार भी इसी के लिए हो रहे हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था में हिमाचल का सबसे नखरेबाज वर्ग अगर कोई है तो वही कर्मचारी कार्य संस्कृति का तीया पांचा भी कर रहा है। पहले कभी बागबान या प्रगतिशील किसान के हिस्से हिमाचल की राजनीति आती थी, लेकिन आज कुल सियासत का सत्तर फीसदी भाग कर्मचारी हथिया चुके हैं और यह दर और बढ़ेगी यदि पक्ष-विपक्ष इसे सुविधाजनक बनाते रहेंगे।
कार्य संस्कृति सुधारने के लिए वित्तीय अनुशासन, आर्थिक पहरेदारी, लक्ष्य आधारित पारदर्शिता, जवाबदेही, कर्मचारी चयन व पदोन्नति में न्याय पद्धति तथा एक सशक्त स्थानांतरण नीति व नियमों की जरूरत है। वर्तमान सरकार ने आरंभ में शिक्षा विभाग में हरियाणा की तर्ज पर स्थानांतरण प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने का बीड़ा उठाया, लेकिन यह भी ड्रामा ही सिद्ध हुआ। इससे पूर्व कई समितियां बनीं, लेकिन स्थानांतरण के मसले और इसके बहाने, बंदरबांट के इरादों में फंसी राजनीति के कारण कमजोर साबित हुए। जब सदन में कार्य संस्कृति के उजड़ने की बात हो रही थी, तो वास्तव में वहां कर्मचारी राजनीति जीत चुकी थी। अतीत बताता है कि कर्मचारी राजनीति कभी सत्ता का पक्ष हो ही नहीं सकती, लेकिन मिशन रिपीट के चौराहे पर फंसी पिछली सारी सरकारों ने कर्मचारियों को चम्मच से खिलाते-खिलाते अपने खजाने जाया कर दिए। मिशन रिपीट केवल सुशासन के दम पर होगा और सुशासन यह मांग करता है कि सरकारी कर्मचारियों को नीति-नियम और अनुशासन पर चलाते हुए कार्य संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध किया जाए। बिगडै़ल कर्मचारी राजनीति से लाख दर्जे बेहतर निजी क्षेत्र का योगदान है। यही पच्चीस लाख लोग हैं जो निजी क्षेत्र के जरिए प्रदेश के परिवहन, पर्यटन, शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग, व्यापार और सेवा क्षेत्र को बेहतर बना रहे हैं। .

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

Rani Sahu

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