सम्पादकीय

चार तो बचे

Rani Sahu
1 Aug 2022 6:54 PM GMT
चार तो बचे
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कई बार लगता है कि आर्यावर्तियों के पास अब मज़ाक और आलोचना के सिवाय कोई काम नहीं बचा

कई बार लगता है कि आर्यावर्तियों के पास अब मज़ाक और आलोचना के सिवाय कोई काम नहीं बचा। युगपुरुष प्रधानमंत्री गम्भीर होकर जब भी कोई क़दम उठाते हैं, लोग उनके क़दमों पर मज़ाक और आलोचना के जाल फैंकना शुरू कर देते हैं। पर लोग भी क्या करें? युगपुरुष कब सीरियस होते हैं और कब मज़ाकिए, पता ही नहीं चलता। पता नहीं युगपुरुष सत्ता प्राप्ति से दशक भर पहले चुनावी रैलियों में जब डॉलर के मुक़ाबले रुपया गिरने की बात कर रहे थे, तब सीरियस थे या अब, जब रुपया हमारे चरित्र की भाँति हर रोज़ गिर रहा है। युगपुरुष उसे उन देशों के मुक़ाबले बेहतर बता रहे हैं जो हमारी फटी कमीज़ के बरअक्स चिथड़ों में या नंगे खड़े हैं। गिरने में भी महानता का सकारात्मक दृष्टिकोण राष्ट्रीय मज़ाक का परिचायक है। युगपुरुष की छाती छप्पन की बजाय भले टूक हो गई हो पर लोग अब तक उनकी सीरियसनेस और मज़ाक में भेद नहीं कर पाए हैं। लोग अभी तक कनफ्यूजिय़ाए हुए हैं कि युगपुरुष अग्निवीर पर सीरियस हैं या मज़ाक के मूड में।

नोटबंदी और जीएसटी के मज़ाक को लोग अभी तक सीरियसली ले रहे हैं। पर पन्द्रह लाख और अच्छे दिनों के मज़ाक को समझने के बावजूद हर दिन अपना खाता देखते हैं और अच्छे दिनों की चाह में रेड कारपेट बिछाए बैठे हैं। लेकिन बाबा रामदेव युगपुरुष के सत्ता पर विराजमान होने से पहले विदेशों से काला धन वापिस लाने, भ्रष्टाचार उन्मूलन और स्वदेशी अभियान पर देश से सालों मज़ाक करने के बाद सरकार से मिल रही हर वित्तीय और कर राहत के विलास योग को साध कर, गहन ध्यान में चले गए हैं। जीवन को क्षणभँगुर मानने लेकिन पौराणिक कल्पनाओं में जीने वाले आर्यावर्ती सीरियस होकर जब गोमूत्र और गोबर पर रिसर्च करते हुए देश के खोए गौरव को लौटाने की बात करते हैं तो लगता है कि मज़ाक कर रहे हैं। उधर, हमारी कथाओं में अक्सर बिना सिर का राजा शत्रुओं से लड़ता नजऱ आता है। इधर, वर्तमान में भी बिना सिर के लोग ज़ात और धर्म के आधार पर आपस में लड़ते नजऱ आ रहे हैं। इधर, बिना सिर के लोग बिना सिर के राजनीतिज्ञों को वोट देते हैं, फिर सीरियस होकर अपने महबूब नेताओं के भाषण और मन की बात सुनते हैं।
उधर, सत्ताधारी पार्टी का आईटी सेल शत्रु देश से लगती सीमा पर जवानों का हौंसला बढ़ाने गए सियासी सियारों की परछाई में बिना सिर के देश को सोशल मीडिया पर बिना पूँछ के शेर दिखाता है। राजसी का तो पता नहीं लेकिन सत्ताआई स्वभाव झगड़ालू ननद, सास या पड़ोसन की तरह सदा नया बखेड़ा खड़ा करने वाला होता है। इससे लोगों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने में मदद मिलती है। आलोचक भले कहें कि नए संसद भवन में लगे राष्ट्रीय प्रतीक के शेर अपने वास्तविक ऐतिहासिक 'लुक' के मुकाबले 'क्रूर' दिख रहे हैं, लेकिन इतिहास वही जो सत्ता लिखे। सत्ता इसे देश में उपनिवेशवाद की समाप्ति के युग के बाद का मील का पत्थर बता रही है। मानो देश इन शेरों की स्थापना के बाद ही आज़ाद हुआ हो। बेचारी सरकार तर्कों के सफऱ् एक्सेल से शेरों की शान में लगाए जा रहे विपक्षी धब्बों को धोने का कोशिश में बता रही है कि सारनाथ के अशोक स्तंभ से युगपुरुष का स्तंभ चार गुणा लम्बा है। स्तंभ की लंबाई और फोटो खींचने के कोण की वजह से शेर आक्रामक दिख रहे हैं। लम्बाई कम करने पर इन दोनों शेरों में कोई अंतर नहीं दिखेगा। पर शायद सरकार लोगों को देश में अपने कार्यकाल में बढ़े शेरों की संख्या के बारे में बताने की तरह भूल गई है कि युगपुरुष को वास्तव में शेरों की चिन्ता है। भविष्य में भले सारी दुनिया के शेर ख़त्म हो जाएं लेकिन संसद के नए भवन पर स्थापित ये चार शेर हमेशा जि़न्दा रहेंगे। इन शेरों के साथ फ़ोटो खिंचवाते या सेल्फी लेते आगन्तुक युगपुरुष को याद करते हुए कहेंगे, 'कम से कम चार तो बचे।'
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

By: divyahimachal

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