सम्पादकीय

विवाह की बुनियाद और सहजीवन

Subhi
25 Nov 2022 5:54 AM GMT
विवाह की बुनियाद और सहजीवन
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मूल्यहीनता के जिस भंवर में समाज धंसता जा रहा है उसे समय रहते उससे निकाला जाए, क्योंकि प्रभुत्व, प्रभाव और वर्चस्व की लड़ाई में कुंठित मानसिकता हावी होती है, धर्म विशेष की हठधर्मिता नहीं।

बिभा त्रिपाठी; मूल्यहीनता के जिस भंवर में समाज धंसता जा रहा है उसे समय रहते उससे निकाला जाए, क्योंकि प्रभुत्व, प्रभाव और वर्चस्व की लड़ाई में कुंठित मानसिकता हावी होती है, धर्म विशेष की हठधर्मिता नहीं।

समाजशास्त्री एमिले दुर्खीम का मानना था कि जब समाज में अत्यधिक तेजी से असंगत परिवर्तन होगा, तो पुराने मूल्य और परंपराएं ध्वस्त हो जाएंगी, समाज नए मूल्यों को प्रतिस्थापित नहीं कर पाएगा। ऐसा संक्रमणग्रस्त समाज मूल्य और नैतिकता से परे एक बीमार समाज को जन्म देगा। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, पर जब-जब परिवर्तन की गति अनियंत्रित, अनियमित और अनुशासित रही है, प्रकृति ने कहर बरपाए हैं। नए प्रकार की सामाजिक संरचना नई मान्यताओं को गढ़ती, नए तरीके की सोच रखती, नए रास्तों और विकल्पों की तलाश करती और समाज के लिए नई चुनौतियां पैदा करती है।

भारत के विशेष संदर्भ में अगर बात करें तो यहां विवाह और परिवार को उच्च स्तरीय सामाजिक संस्था का दर्जा प्राप्त है, जिसका विकास एक लंबे कालखंड के दौरान हुआ है। हिंदू विधि में विवाह को एक संस्कार माना जाता है और मुसलिम विधि में एक संविदा। जब संस्कार की बात करते हैं तो पता चलता है कि एक वैध विवाह की कानून में कुछ शर्तें बताई गई हैं।

मसलन, होम और सप्तपदी। अगर उनका अनुपालन नहीं किया गया, तो विवाह वैध नहीं माना जाएगा। यानी अगर वर-वधू अपने इष्ट मित्रों को साक्षी मान कर मंदिर में माला आदान-प्रदान कर विवाह करते हैं तो उसे वैध विवाह नहीं माना जाएगा। यही कारण है कि द्विविवाह के जिन मुकदमों में न्यायालय को दोनों विवाह वैध नहीं मिलते, वहां द्विविवाह का अपराध भी सिद्ध नहीं माना जाता और फिर उस विवाह संबंध में आई महिला की सामाजिक विधिक स्थिति पर प्रश्न चिह्न लगता है। उसके भरण-पोषण के बाबत न्यायपालिका का निर्णय कैसा होगा, यह उस न्यायाधीश के उदारवादी दृष्टिकोण के अधीन होता है।

इससे अलग हट कर वैध रीति से ऐसे विवाहित दंपति का प्रसंग लिया जाए, जहां विवाह दहेज प्रतिषेध अधिनियम के प्रावधानों को धता बताते हुए दहेज की मांग और पूर्ति के अधीन संपन्न किया जाता है, वहां विवाह के बाद की जाने वाली मांग, प्रताड़ना और हत्याओं के मद्देनजर आपराधिक विधि में बड़े परिवर्तन किए जाते हैं और क्रूरता तथा दहेज हत्या को अपराध घोषित किया जाता है।

समय के साथ बदलते समाज में पति और पत्नी दोनों को नौकरी करने की आवश्यकता पड़ी और नौकरी की शर्तों और दशाओं को पूरा करते हुए पारिवारिक दायित्वों का बोझ अकेले पत्नी द्वारा उठाना कठिन प्रतीत होने लगा, तो इस परिस्थिति को भांपते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के प्रति हर प्रकार के विभेद को समाप्त करने के लिए एक अभिसमय अस्तित्व में आया (सीडा)। उसमें स्पष्ट कहा गया कि मातृत्व एक सामाजिक जिम्मेदारी है।

यानी समय के साथ समाज और सामाजिक संबंधों को समझौतों की सीढ़ी पर ही चलना होता है। अन्यथा एक पक्ष द्वारा झेले जा रहे तनाव, अवसाद और कुंठा को उसकी अगली पीढ़ी न सिर्फ सिरे से खारिज करती, बल्कि इस संस्था की चूलें तक हिला देती है। अब सब कुछ बदल चुका है। अब लड़की लड़कों के साथ उच्च शैक्षिक संस्थान में पढ़ती है और कई बार उसे अपने शहर से दूर जाकर रहना पड़ता है। फिर आत्मनिर्भर बनने की प्रक्रिया में सरकारी, निजी, गैरसरकारी, संगठित या असंगठित क्षेत्र में नौकरी करनी पड़ती है।

ऐसे में इस युवा पीढ़ी के साथ जाने-अनजाने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जब इन्हें अपने विपरीत लिंगी व्यक्ति के साथ भी रहना पड़ता है। इसका कानूनी संदर्भ में देखें तो लगता है कि हमारे यहां कानून में इस आशय का कोई भी विधान नहीं है, जो दो वयस्क लोगों को स्वेच्छा से साथ रहने में किसी प्रकार की कोई रोक लगाता हो। यहां कानून नैतिकता के साथ कदमताल में पीछे छूट जाता है।

हांलाकि कानूनी तौर पर किसी कृत्य को अपराध न मानना एक बात है और रूढ़िवादिता की जड़ों में पनपते पितृसत्तात्मक समाज का घृणास्पद पहलू दूसरी बात। ऐसी परिस्थितियां भी समाज में बनने लगी हैं कि वयस्क युवक-युवतियां बिना विवाह के एक साथ एक छत के नीचे पति-पत्नी की तरह रहने लगे हैं, लेकिन सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करने को तैयार नहीं हैं।

नतीजतन, ऐसे संबंधों में भी हर प्रकार की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और लैंगिक हिंसा की घटनाएं सामने आने लगीं। इसके मद्देनजर 2005 में महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करने के लिए अधिनियम बनाया गया। उसमें कहा गया कि ऐसे जोड़े, जो बिना विवाह के भी साथ रह रहे हैं और स्त्री हिंसा की शिकार हो रही है, उसे संरक्षण प्रदान किया जाएगा।

उक्त अधिनियम में हिंसा को रोकने की व्यवस्था की गई थी, न कि बिना विवाह के पति-पत्नी की तरह रहने वालों को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। यानी कानूनी रूप से विवाहित पत्नी तो होती है, मगर कानूनी रूप से सहजीवन नहीं सुना गया है। कहने का तात्पर्य यह कि वर्तमान समाज की संक्रमण कालीन विभीषिका ने पुरानी संस्थाओं को तिरस्कृत कर उससे बगावत करने को उत्प्रेरित कर दिया।

युवा पीढ़ी की लड़कियों को लगा कि अगर विवाह का बंधन नहीं होगा तो उससे जुड़ी पेचीदगियां भी नहीं झेलनी पड़ेंगी, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि महिलाओं के उत्पीड़न की मूल जड़ विवाह है। पर ऐसा नहीं हुआ, बल्कि एक नए प्रकार की समस्या उत्पन्न हुई कि ऐसी लड़कियों के अपने अभिभावकों से संबंध टूट गए। इस तरह आधुनिक बनने की होड़ और समूहगत दबाव में जब युवा पीढ़ी ने प्रेम, विश्वास, त्याग और समर्पण जैसे मूल्यों को तिलांजलि दे दी, तो उनके समक्ष कोई विकल्प नहीं बचा।

आजकल श्रद्धा हत्याकांड के विविध पक्षों पर बहस हो रही है और कहीं 'लव जिहाद' और 'घर वापसी' जैसे मुद्दों पर दंगल चल रहा है। गौरतलब है कि आज से बीस वर्ष पहले नैना साहनी तंदूर कांड भी इससे कुछ अलग नहीं था। सुशील शर्मा ने नैना साहनी के साथ अपने संबंधों को सार्वजनिक मान्यता देने की जगह नैना के एक मुसलिम मित्र से संबंध के शक में गोली मार दी और सबूत मिटाने के लिए उसके शरीर की बोटी-बोटी बगिया रेस्तरां के तंदूर में जला दी। आज की तारीख में अभियुक्त की मृत्युदंड की सजा आजीवन कारावास में बदली जा चुकी है।

ऐसे में न सिर्फ समाज के ठेकेदारों, बल्कि इस उदीयमान युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि हमें आधुनिकता, भौतिकता और विकृत पूंजीवादिता की अंधी खाई में कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला। अब यह भी समझना होगा कि अगर एक स्तर पर आकर यह आरोप लगाया जाता है कि अमुक व्यक्ति द्वारा विवाह का आश्वासन देकर शारीरिक संबंध बनाए गए थे, तो न्यायालय भी मदद कर पाने की स्थिति में नहीं रह जाता है।

वह पूछता है कि अगर आप वयस्क थे और स्वतंत्र सहमति के मायने जानते थे तो आपको यह भी समझना चाहिए कि ठहराव कहां और कब आना चाहिए। अगर हम उन मानवीय मूल्यों की तलाश एक अंधे कुएं में करेंगे तो हमें सफलता नहीं मिलेगी। अगर विवाह को महिला उत्पीड़न की मूल वजह मानने वालों से पूछा जाए कि इसका समाधान क्या नैना साहनी या श्रद्धा हत्याकांड में दिखाई देता है, तो आवाज आएगी कि नहीं।

यानी आज आवश्यकता इस बात की है कि उस वैवाहिक संबंध को पुन: परिभाषित किया जाए और अधिकारों और कर्तव्यों का पारदर्शी तरीके से परिमार्जन किया जाए। मूल्यहीनता के जिस भंवर में समाज धंसता जा रहा है उसे समय रहते उससे निकाला जाए, क्योंकि प्रभुत्व, प्रभाव और वर्चस्व की लड़ाई में कुंठित मानसिकता हावी होती है, धर्म विशेष की हठधर्मिता नहीं।


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