सम्पादकीय

जी का जंजाल बनी वन भूमि

Rani Sahu
26 Jun 2023 6:54 PM GMT
जी का जंजाल बनी वन भूमि
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By: divyahimachal
एक बार फिर पहाड़ अपनी ही परिभाषा से लड़ रहा है। पहाड़ के मायनों को वन संरक्षण के अधिनियम की जंजीरों से इतना बांध दिया गया है कि अब हिमाचल जैसे राज्यों को भी सोचना होगा कि भविष्य के लिए कितना जल, कितना जंगल और कितनी जमीन चाहिए। हिमाचल के कुछ स्वाभाविक प्रश्र जो पूछे जा सकते हैं, क्या पहाड़ जमीन नहीं? क्या पहाड़ जीवन नहीं? क्या पहाड़ में होना सिर्फ कानूनों की फेहरिस्त में जीना बना रहेगा। आबादी को अगर पेड़ चाहिए, तो चलने को रास्ता-खेलने को मैदान भी चाहिए। मैदानी राज्यों की आय अगर शहरीकरण, औद्योगीकरण, कनेक्टिविटी या आधुनिक अधोसंरचना निर्माण से बढ़ रही है, तो हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्य को कब तक बंधक बनाएंगे। ताजातरीन उदाहरण शिमला विकास योजना की परिधि में फंसी उस इच्छा शक्ति को लेकर है, जो विजन 2041 के तहत हिमाचल की राजधानी का नया आकार देख रही है। शहर मौजूदा ढाई लाख की आबादी को अगले दशकों में करीब सवा छह लाख तक पहुंचता हुआ देख रहा है। ऐसे में एनजीटी की आंख और विकास की आंख में ही अंतर नहीं, बल्कि वन संरक्षण अधिनियम नागरिक समाज के फैलते दायरे पर आंखें मूंदे बैठा है। अगले कुछ सालों में हिमाचल के कमोबेश हर शहर नहीं, बल्कि गांव को भी फैलना है। जाहिर है तब यह विकास नागरिक समाज की उत्कंठा में कई दबाव पैदा करेगा, जिसे अभी से संबोधित करना होगा। शिमला विकास परियोजना इन्हीं संकल्पों की बाट जो रही है, जिसे कबूल है-कबूल है सुनने से पहले एनजीटी के आगे माथा रगडऩा होगा। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट से मिली आरंभिक राहत से अब सुकून पाने का सबब पुख्ता हो रहा है।
ऐसी अनेक अनापत्तियों के दरम्यान पहाड़ के मायने कराहने लगे हैं या जीने की व्यावहारिकता में लग रही रोक से आजिज यह प्रदेश अब नए विकल्प खोजने लगा है। इसी विषय में कृषि मंत्री चंद्र कुमार का बयान भविष्य के अर्थ पढ़ रहा है। मंत्री के अनुसार सरकार एक प्रस्ताव के तहत केंद्र से जंगल की जमीन में फंस गई पारंपरिक घासनियों या चरागाहों को वापस लेना चाहती है, ताकि निचले क्षेत्रों के पशुधन को प्रचुर मात्रा में चारा मिल सके। यह बहुत पुरानी बात नहीं है, जब गांव के पशु एक साथ सार्वजनिक चरागाहों में अपने भोजन की तलाश नियमित रूप से पूरी करते थे। हिमाचल को अगर डेयरी के जरिए संसाधन पैदा करने हैं, तो जंगल की तफतीश में चरागाहों को मुक्त कराना होगा। दुर्भाग्यवश जंगल-जंगल के खेल में हिमाचल ने अमंगल को रसीद कर लिया। इस वजह से विकास का हर पांव जंगल में फंसा है, जबकि अब तो जीने का सामान भी वन भूमि के कब्जे में चला गया है। हद तो यह कि अगर श्मशानघाट भी बनाना हो तो अनुमति पाने तक कई मृतकों को सजा देनी पड़ती है। आश्चर्य यह भी कि जंगलों के प्रबंधन के लिए एक भारी अमला राज्य को ढोना पड़ता है और यह विभाग केवल मीन मेख निकालने का एक पुर्जा साबित हो रहा है।
धर्मशाला स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत स्ट्रीट लाइट के चार स्मार्ट पोल व स्मार्ट रोड की पूरी परिभाषा को सिर्फ वन विभाग बाधित कर रहा है, तो कहीं जनतंत्र पर यह विभाग भी भारी है। प्रदेश अपनी 70 फीसदी जमीन वन को देकर अगर तलबे चाट रहा है या इसके एवज में हमें आवारा पशु एवं वण्य प्राणी मिल रहे हैं, तो यह राज्य की तरक्की व नागरिक अधिकारों के लिए जी का जंजाल ही बन रहे हैं। वनों से भूमि को वापस लिए बिना हिमाचल के आर्थिक उत्थान का ढांचा मुकम्मल नहीं होगा और न ही नागरिक समाज के जीवन में खुशियों का आभास होगा। बेशक हिमाचल को अपने वनों के मार्फत पर्यावरणीय संतुलन, भैगोलिक परिस्थितियां तथा जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला करना होगा, लेकिन किसी भी सूरत प्रदेश की पचास फीसदी से अधिक जमीन जंगलों के अधीन नहीं आनी चाहिए। निचले इलाकों में तो कतई नहीं।
Rani Sahu

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