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उप चुनाव के परिणाम
मध्यप्रदेश में एक लोकसभा और तीन विधानसभा क्षेत्रों के उप चुनाव के परिणाम राज्य की राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण रहने वाले हैं. राज्य के दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं की आगे की रणनीति इन चुनाव परिणामों पर ही निर्भर कर रही है. राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खाते में सबसे ज्यादा चुनाव जीतने का रिकार्ड है. मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में ही वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पंद्रह साल बाद सरकार में वापसी की थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद कांग्रेस पर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का वर्चस्व हो गया है. अन्य नेता पूरी तरह अलग-थलग दिखाई दे रहे हैं.
लोकसभा उप चुनाव असंतुष्ट की ताकत बताएंगे नतीजे
राज्य में लोकसभा का उप चुनाव खंडवा सीट पर हो रहा है. भाजपा सांसद नंदकुमार चौहान के निधन के कारण इस सीट पर उपचुनाव हो रहा है. मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे अरुण यादव इसी सीट से चुनाव लड़ते रहे हैं. उनके खाते में जीत से ज्यादा हार दर्ज हैं. अरुण यादव प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के विरोधी माने जाते हैं. उप चुनाव में टिकट के वे मजबूत दावेदार थे. लेकिन, सर्वे में पिछड़ जाने के बाद उन्होंने अपनी दावेदारी वापस ले ली. बाद में यह बयान भी दिया कि फसल मैं लगता हूं, काट कोई और ले जाता है. भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया. बाद में, यादव के पक्ष में सहानुभूति बनते देख कदम पीछे खींच लिए. कांग्रेस ने इस सीट पर क्षेत्र के पुराने नेता राजनारायण सिंह पूनिया को मैदान में उतारा है. वे दिग्विजय सिंह के समर्थक हैं.
कांग्रेस के चुनाव संचालक अरुण यादव ही हैं. इसके बाद भी यादव के समर्थक माने जाने वाले बड़वाह विधायक सचिन बिडला कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए. बिडला गुर्जर समुदाय के हैं. नतीजा यह हुआ है कि कांग्रेस ने चुनाव मैदान में मनोवैज्ञानिक तौर पर कमजोर दिखाई देने लगी. कांग्रेस ने क्षेत्र के गुर्जर वोटरों को साधने के लिए सचिन पायलट की सभा भी प्रचार के आखिरी दिन कराई. क्षत्रिय वोटरों को बांधे रखने के लिए दिग्विजय सिंह को मैदान संभालना पड़ा. कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ सिर्फ मंच सभाएं लेते ही दिखाई दिए. मैदानी रणनीति पूरी तरह से स्थानीय समीकरणों में उलझी रही. बिडला के कांग्रेस छोड़ने से कमलनाथ के नेतृत्व पर सवाल खड़े करने का मौका भाजपा को मिल गया.
राजी-नाराजी का प्रबंधन भी अहम
यह दावा भाजपा का कोई भी नेता करने की स्थिति में नहीं है कि भितरघात उनकी पार्टी में नहीं हो रहा. भाजपा ने ने ज्ञानेश्वर पाटिल को मैदान में उतारा है. वे ओबीसी से हैं. क्षेत्र भी ओबीसी बाहुल्य है. इस सीट पर मजबूत दावेदारी स्वर्गीय नंदकुमार चौहान के पुत्र हर्ष सिंह चौहान की थी. शिवराज सिंह चौहान भी अपने मित्र के पुत्र के ही पक्ष में थे. लेकिन, परिवारवाद के आधार पर टिकट न देने की पार्टी की नीति आडे आ गई. हर्ष चौहान का रूठना और पार्टी नेताओं का मानना रस्मी दिखाई दिया. दूसरी मजबूत दावेदार पूर्व मंत्री अर्चना चिटनीस ने भी अपनी सुविधा के अनुसार प्रचार किया. भाजपा को अपनी सीट को बचाए रखने के लिए पूरी दम लगाना पड़ रही है. कारण क्षेत्र के आदिवासी वोटर हैं. इन वोटों के लिए ही घर-घर अनाज की योजना शुरू की गई.
आदिवासी वोट की दिशा किस और?
उप चुनाव के नतीजे आदिवासी वोटरों के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं. राज्य में पिछले कुछ माह से आदिवासी राजनीति के केंद्र में हैं. इस वोटर युवा आदिवासी संगठन जयस का प्रभाव भी है. भाजपा की उम्मीद के विपरीत जयस ने अपना कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा. कोई ऐसी गतिविधि भी दिखाई नहीं दी, जिससे लगे कि जयस नेता आदिवासी वोटों की दिशा मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. खंडवा लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से सिर्फ एक सीट ही कांग्रेस के पास बची है. एक निर्दलीय के पास है. बाकी पर भाजपा ने कब्जा कर रखा है. इस लिहाज से कांग्रेस की राह मुश्किल है. कांग्रेस चुनाव हारती है तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के खिलाफ अरुण यादव सक्रिय होंगे. उन्हें पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का साथ मिल सकता है.
अजय सिंह के विंध्य में कांग्रेस को मिलेगा नया जीवन?
अजय सिंह के लिए रैगांव विधानसभा सीट का उपचुनाव भी बेहद महत्वपूर्ण हैं. विधानसभा के आम चुनाव में विंध्य क्षेत्र में कांग्रेस की दुर्गति हुई थी. अजय सिंह खुद भी चुनाव हार गए थे. इससे पार्टी में उनकी राजनीतिक हैसियत भी गिरी. रैगांव विधानसभा क्षेत्र सतना जिले में हैं. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. भाजपा के कब्जे वाली सीट मानी जाती है. कांग्रेस को नुकसान बहुजन समाज पार्टी की मौजूदगी के कारण होता रहा है. उप चुनाव में बसपा उम्मीदवार के न होने से भाजपा- कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला हो गया. सतना शहर से विधानसभा सीट की सीमाएं लगे होने के बाद भी मूलभूत सुविधाएं क्षेत्र में नहीं हैं. इस कारण हवा में परिवर्तन की बात भी तैर रही है.
बागरी परिवार का असंतोष भी कांग्रेसियों में उम्मीद का दिया जला रहा है. जुगल किशोर बागरी इस क्षेत्र के विधायक थे. उनका निधन कोरोना में हो गया. भाजपा ने उनके परिवार के किसी सदस्य को टिकट नहीं दिया. उम्मीदवार बनाई गईं प्रतिभा बागरी नजदीकी रिश्तेदार हैं. कांग्रेस की उम्मीदवार कल्पना वर्मा हैं.
गैरों पर भरोसे से अपने छूटे तो बदल जाएगा रूख
भारतीय जनता पार्टी का संगठन देश में सबसे मजबूत और आदर्श संगठन माना जाता है. लेकिन तीन में से दो विधानसभा क्षेत्रों में उसे अपने उम्मीदवार अन्य दलों से आए चेहरों को बनाना पड़ा है. निवाड़ी जिले की पृथ्वीपुर विधानसभा सीट पर भाजपा ने शिशुपाल यादव को मैदान में उतारा हैं. आम चुनाव में वे समाजवादी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़े दूसरे नंबर पर रहे थे. यादव के मूल निवासी होने पर भी कई सवाल हैं. कांग्रेस का आरोप हैं कि वे उत्तरप्रदेश मूल के हैं. भाजपा के लिए यह सीट हमेशा मुश्किल भरी रही है. पार्टी की कोशिश जातिगत समीकरण बैठाने की चल ही है.
कांग्रेस के बृजेंद्र सिंह राठौर के निधन के कारण चुनाव हो रहे हैं. कांग्रेस उम्मीदवार नितेन्द्र सिंह राठौर उनके पुत्र हैं. सहानुभूति भी कहीं-कहीं देखी जा रही है. भाजपा के लिए उम्मीदवार का बाहरी होना है मुश्किल भरा है. उत्तरप्रदेश की राजनीति का असर यहां दिखाई देता है. पृथ्वीपुर की तरह जोबट में भी भाजपा उम्मीदवार अन्य दल से लाया हुआ है. सुलोचना रावत कांग्रेस की पुरानी नेता हैं. दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री रहीं. पिछले आम चुनाव में कांग्रेस ने टिकट नहीं दी तो बेटा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था. बाद में कांग्रेस में वापसी हो गई. अब फिर कांग्रेस छोड़ दी.
रावत के अपने जनाधार को भाजपा अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है. जोबट आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीट हैं. कांग्रेस अपनी इस सीट को बचाने के लिए सभी समीकरण बैठाने की कोशिश कर रही है. कांतिलाल भूरिया के लिए भी यह सीट महत्वपूर्ण हैं. मध्यप्रदेश के उप चुनाव हर लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. राज्य के सभी अंचलों की राजनीतिक फिजा का पता चुनाव नतीजों में चलेगा. कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के प्रभाव पर नतीजे असर डालने वाले हैं. भारतीय जनता पार्टी की सरकार और शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता भी चुनाव परिणामों में देखने को मिल सकती है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है.
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