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पर्यावरण बचाने के लिए हर साल की तरह इस बार भी दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश ब्रिटेन के ग्लासगो में जुटे हैं।
पर्यावरण बचाने के लिए हर साल की तरह इस बार भी दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश ब्रिटेन के ग्लासगो में जुटे हैं। सीओपी (कांफ्रेंस आॅफ पार्टीज) 26 सम्मेलन में सभी देश एक बार फिर इस मुद्दे पर गहन चर्चा करेंगे कि कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि धरती का पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा। इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं चेती तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा।
ग्लासगो में हो रहे इस पर्यावरण सम्मेलन का महत्त्व इसलिए भी बढ़ गया है क्योंकि अब पर्यावरण बिगाड़ने के जिम्मेदार देशों को भविष्य का खाका तैयार करना है। उन्हें बताना है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए वे क्या करने जा रहे हैं। धरती को बचाने के प्रयासों में सबसे बड़ी मुश्किल यह आ रही है कि अमीर देश अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन के लिए गरीब मुल्कों को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। इसलिए सम्मेलनों का मकसद कभी पूरा नहीं हो पाता।
दुनिया का शायद ही कोई देश होगा जो जलवायु संकट की मार नहीं झेल रहा होगा। हालांकि यह संकट कोई एकाध दशक की देन नहीं है। पिछली दो सदियों में हुए औद्योगिक विकास की अति ने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर पिछले करीब पांच दशकों में यह संकट कहीं ज्यादा गहराया है। इसी का नतीजा है कि अब हम बेमौसम की बारिश, बाढ़, सूखा, धधकते जंगल, पिघलते ग्लेशियर, समुद्रों का बढ़ता जलस्तर और इससे तटीय शहरों और द्वीपों के डूबने के खतरे और बढ़ते वायु प्रदूषण जैसे संकट झेल रहे हैं।
कुछ महीने पहले यूरोप के देशों में जैसी बाढ़ आई, वैसी तो कई सदियों में नहीं देखी गई। अमेरिका सहित कई देशों में जंगलों में आग की घटनाएं वायुमंडल में कितनी कार्बन आक्साइड छोड़ रही होंगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। ये घटनाएं हमें चेतावनी दे रही हैं। पर हैरानी की बात की बात यह कि दुनिया के ताकतवर मुल्क सम्मेलनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे।
धरती को बचाने के लिए काम किसी एक देश को नहीं, बल्कि सबको मिल कर करना है। इसलिए यह जिम्मेदारी सबकी बनती है कि सम्मेलन में जो सहमति बने और समझौते हों, उन पर ईमानदारी से अमल हो। पर व्यवहार में ऐसा देखने में आता कहां है! अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य दूसरे देशों पर तो थोप रहे हैं, पर वही इस दिशा में बढ़ने से कन्नी काट रहे हैं। सवाल है कि आखिर क्यों अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देश अपने यहां कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को बंद कर नहीं कर रहे। यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका 2017 में पेरिस समझौते से सिर्फ अपने हितों के कारण पीछे हट गया था।
कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विकसित और विकासशील देशों के लक्ष्य भी स्पष्ट होने चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को जितना पैसा मिलना चाहिए, वह मिल नहीं रहा। ऐसे में वे अपने यहां उन योजनाओं को लागू ही नहीं कर पा रहे, जिनसे कार्बन उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। वैश्विक पर्यावरण सम्मेलनों की सार्थकता तभी है जब इसे अमीर बनाम गरीब न बनाया जाए। सारे देश मिल कर साझा एजंडे पर बढ़ें। वरना पर्यावरण बिगाड़ने का ठीकरा गरीब देशों पर फूटता रहेगा और धरती का खतरा बढ़ता जाएगा।
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