सम्पादकीय

बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा के लिए अमेरिका में 'किड्स ऑनलाइन सेफ्टी बिल-2022' पेश किया गया है, क्या भारत में भी ऐसा होगा?

Gulabi
19 Feb 2022 9:09 AM GMT
बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा के लिए अमेरिका में किड्स ऑनलाइन सेफ्टी बिल-2022 पेश किया गया है, क्या भारत में भी ऐसा होगा?
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बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा
प्रवीण कुमार।
इस सत्य से कोई इनकार नहीं कि जो बच्‍चे (Childrens) सोशल मीडिया (Social Media) का इस्‍तेमाल करते हैं, उनके कम्‍युनिकेशन स्किल्‍स अच्‍छे होते हैं, लेकिन इस बात को भी कोई झुठला नहीं सकता है कि बाल मन बहुत नाजुक और चंचल होता है लिहाजा सोशल मीडिया बड़ी आसानी से उसकी सोच और व्‍यवहार को बदल दे रहा है. दरअसल, छोटी उम्र में बच्‍चे अच्‍छे और बुरे में फर्क नहीं कर पाते हैं. इसलिए अगर आप एक अभिभावक (Parents) हैं तो यह जानना जरूरी है कि सोशल मीडिया बच्चों पर अच्छा प्रभाव कम और बुरा प्रभाव ज्यादा छोड़ता है.
सोशल मीडिया का संसार इतना बड़ा है कि कोई भी बच्‍चा कब, कहां, क्या और कैसे जानकारी ले लेगा, आप उसे कंट्रोल ही नहीं कर सकते हैं. ऐसी स्थितियां बच्चों को अश्लील और हानिकारक वेबसाइटों तक पहुंचा सकती हैं, जो उसकी सोचने व समझने की प्रक्रिया को किसी भी हद तक प्रभावित कर सकती हैं. इन्हीं प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने के लिए दो अमेरिकी सीनेटर ने मिलकर वहां की संसद में किड्स ऑनलाइन सेफ्टी बिल-2022 (Kids Online Safety Bill) नाम से एक बिल पेश किया है. अब ये बिल कानून का आकार ले पाता है या नहीं यह अलग मसला है, लेकिन इससे इतनी बात तो समझ में आती ही है कि अमेरिका में बच्चों की ऑनलाइन शिक्षा और सुरक्षा को लेकर वहां की राजनीति काफी चिंतित है. तो क्या भारत की राजनीति भी इस संदर्भ में उतनी ही चिंतित है? इसे समझना बेहद जरूरी है.
किड्स ऑनलाइन सेफ्टी बिल 2022 में क्या है?
हाल में अमेरिकी कांग्रेस ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों पर सोशल मीडिया के असर से जुड़ी पांच सुनवाई की हैं. इसी को आधार बनाते हुए रिपब्लिकन पार्टी की सीनेटर मार्शा ब्लैकबर्न और डेमोक्रेटिक सीनेटर रिचर्ड ब्लूमेंथल ने 'किड्स ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट-2022' पेश किया है. मार्शा कहती हैं कि सोशल मीडिया का नकारात्मक असर बच्चों और किशोरों पर ज्यादा पड़ रहा है. तकनीकी क्षेत्र के दिग्गजों को इसकी बिल्कुल भी चिंता नहीं है. इसलिए नकेल कसना जरूरी है.
इस बिल की जो अहम बातें हैं उसमें सबसे पहले एक मजबूत प्राइवेसी विकल्प की बात कही गई है. कहने का मतलब यह कि सोशल मीडिया कंपनियों को यूजर्स को प्राइवेसी विकल्प देना होगा. 'लत' वाले फीचर्स को डिसेबल करने के साथ पेज या वीडियो को लाइक करने से ऑप्ट आउट करने की सहूलियत देनी होगी. यह अब तक का सबसे मजबूत प्राइवेसी विकल्प है, जो डिफॉल्ट रहेगा. दूसरा, एप में ऐसे टूल्स देना अनिवार्य होगा जिनसे माता-पिता ट्रैक कर सकें कि बच्चों ने एप पर कितना समय बिताया है. इससे वे बच्चों द्वारा लत की हद तक एप के इस्तेमाल को भी कंट्रोल कर सकेंगे. ये सेटिंग्स भी डिफॉल्ट रहेंगी. तीसरी अहम बात ये है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को 16 साल से कम उम्र के बच्चों को होने वाले नुकसान को रोकने व कम करने की दिशा में लगातार काम करना होगा.
इनमें खुद को नुकसान पहुंचाना, खुदकुशी करना, खानपान में गड़बड़ियां, नशीले पदार्थों का सेवन, नाबालिगों के लिए शराब जैसे प्रतिबंधित उत्पाद और बाल उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर फोकस जरूरी है. एक और अहम बात जो इस बिल में की गई है वह यह है कि सोशल मीडिया कंपनियों को बच्चों और किशोर यूजर्स से संबंधित डेटा शिक्षण, शोध संस्थानों और निजी शोधकर्ताओं से साझा करना अनिवार्य होगा ताकि वैज्ञानिक इस डेटा के आधार पर सोशल मीडिया से बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत को होने वाले नुकसान और इन्हें रोकने के उपायों पर अध्ययन कर सकें.
भारत में चिंता सबको हो रही, लेकिन चिंतित कोई नहीं
कोविड महामारी के बाद जिस प्रकार से ऑनलाइन एजुकेशन को भारत समेत पूरी दुनिया ने अपनाया है उसमें खासतौर से बच्चों की समस्याओं मसलन स्क्रीन टाइम, डेटा सिक्योरिटी और मानसिक सेहत आदि से बच्चे और अभिभावक दोनों जूझ रहे हैं. निश्चित रूप से बच्चों की सुरक्षा को लेकर जिन परेशानियों की बात आज की जा रही है उसकी जद में पूरी दुनिया है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. लेकिन पूरी दुनिया खासतौर से विकसित देशों की राजनीति इसको लेकर चिंतित है और इससे निपटने की दिशा में काम भी कर रही है. मसलन, अमेरिका में एक नया 'किड्स ऑनलाइन सेफ्टी बिल-2022' पेश किया गया है.
लेकिन भारत की बात करें तो यहां चिता तो सबको हो रही है, लेकिन चिंतित कोई नहीं है. समाधान की दिशा में कैसे आगे बढ़ा जाए यह बताने वाला कोई नहीं है. कहा जाता है कि जागरुकता ही इसका अंतिम समाधान है लेकिन इस जिम्मेदारी की चादर ओढ़ने को कोई तैयार नहीं. सरकारें सत्ताभोगी हो गई हैं लिहाजा सरकार और उसकी पूरी मशीनरी 24 घंटे सातों दिन चुनाव जीतने के गुणा-भाग में व्यस्त रहती हैं. दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी कि देश की पूरी राजनीति और राजनेता उसी सोशल मीडिया पर आकर झूठ को सच बनाने में जुटे रहते हैं तो फिर ऐसे प्लेटफार्म पर बच्चों के उत्पीड़न पर शिकंजा कौन कसेगा और कैसे कसेगा?
नए कानून से अधिक जरूरी हम सब जिम्मेदारी निभाएं
सोशल मीडिया पर पोर्नोग्राफी और बच्चों एवं समाज पर उसके प्रभाव जैसे चिंताजनक मुद्दे पर गठित राज्यसभा की एडहॉक कमेटी 2020 की एक रिपोर्ट में खासतौर पर ये सुझाव दिया गया था कि इंटरमीडियरीज जैसे इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स और सर्च इंजन्स की जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट (इंटरमीडियरीज के दिशानिर्देश) नियम 2011 में रेखांकित किया जाना चाहिए. जब जिम्मेदारी की बात करते हैं तो उसमें बच्चों के यौन उत्पीड़न से जुड़ी सामग्री को रिपोर्ट करना, उन्हें चिह्नित करना और हटाना शामिल है. कमेटी ने यह भी सुझाव दिया कि एक उन्नत राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को बाल पोर्नोग्राफी से जुड़े मुद्दे से निपटना चाहिए.
भारत में बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा को लेकर किसी नए कानून को गैरजरूरी बताते हुए कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेंस फाउंडेशन की कार्यकारी निदेशक ज्योति माथुर कहती हैं, "जब हम बच्चों के ऑनलाइन सुरक्षा मानकों की बात करते हैं तो भारत में इसको लेकर पर्याप्त कानूनी ढांचा है. जरूरत इस बात की है कि बच्चों के साथ-साथ माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों को जागरूक किया जाए, पुलिस अपनी सक्रियता दिखाए और तुरंत कार्रवाई करे." ज्योति कहती हैं, "सोशल मीडिया से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने भर से काम नहीं चलेगा, बल्कि इंटरमीडियरीज उसकी अनिवार्य तौर पर रिपोर्टिंग करना सुनिश्चित करें. साथ ही इन्हें पूरी तरह से क्रियान्वित करने के लिए एक राष्ट्रीय बजटीय कार्ययोजना तैयार की जाए. इस संबंध में कैलाश सत्यार्थी अक्सर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन को अपनाने की बात मजबूती से करते हैं. उनका कहना है कि इसे अपनाने से न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों को लाभ होगा."
हैदराबाद स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल जाफरगुड़ा की प्रधानाचार्य. माला कहती हैं, "एक एजुकेटर के तौर पर हमें बच्चों को अपनी निजी जानकारी किसी से भी साझा न करने की सीख देनी होगी. कक्षा में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का प्रयोग करते हुए ध्यान रखना होगा कि वो स्कूल फ्रेंडली हो. साथ ही ऐसे कन्टेंट फिल्टर लगाने पर जोर देना होगा जिससे अवांछित सामग्रियों को रोका जा सके. एक और जरूरी बात, इस पूरी प्रक्रिया के दौरान माता-पिता या अभिभावकों को साथ लेकर चलना होगा, उन्हें लूप में रखना होगा. जहां तक अमेरिकी किड्स ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट की तर्ज पर कानून बनाने की बात है तो निश्चित रूप से भारतीय शैक्षिक वातावरण के अनुरूप इस पर काम किया जा सकता है. मैं समझती हूं इससे हमारे बच्चों की सुरक्षा ज्यादा पुख्ता तौर पर सुनिश्चित हो पाएगी."
स्मार्टफोन और सोशल मीडिया विज्ञापन कितना घातक?
"ए फ्यूचर फॉर द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन" की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल मीडिया पर 16 साल से कम उम्र के बच्चों और किशोरों पर तंबाकू, शराब और हानिकारक उत्पादों को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों की बमबारी हो रही. रिपोर्ट के मुख्य लेखक और लंदन यूनिवर्सिटी कॉलेज के प्रोफेसर एंथनी कॉस्टेलो के मुताबिक, इलेक्ट्रॉनिक गेम्स से जुटाए गए डाटा को विज्ञापनदाता वैश्विक तकनीकी दिग्गज कंपनियों को बेचते हैं. ये विज्ञापन उनके विकास और सेहत को प्रभावित करता है जैसे कि चीनी का सेवन, फास्ट फूड, तंबाकू, शराब और जुआ को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन. कुछ देशों में तो बच्चे एक साल में करीब 30 हजार टीवी विज्ञापन देख जाते हैं. कोविड काल में भारत में भी बच्चे इस दौर से गुजरे हैं. कॉस्टेलो कहते हैं, "बच्चों को सबसे बड़ा खतरा सोशल मीडिया विज्ञापन और एल्गोरिथम टार्गेटिंग से है. विज्ञापन बनाने वाली कंपनियां कई गेम्स बनाती हैं जो बाद में बच्चों का डाटा बिना उनके अनुमति के बड़ी कंपनियों को बेच देती है."
दूसरा, कोरोना महामारी के कारण लगे लॉकडाउन और ऑनलाइन क्लासेज के बीच स्कूल जाने वाले बच्चों के स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस्तेमाल को लेकर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने एक सर्वे कराया था. पता लगा कि सर्वे में शामिल 10 साल के बच्चों में 37 प्रतिशत का फेसबुक और 24 प्रतिशत बच्चों का इंस्टाग्राम अकाउंट है. ये सब स्मार्टफोन पर हो रहा है. कहते हैं स्मार्टफोन की वजह से बच्‍चों का पढ़ाई में दिमाग लगता ही नहीं है, जबकि यह उम्र याद्दाश्‍त को बढ़ाने और मस्तिष्‍क की कोशिकाओं को मजबूती देने के लिए अहम होती है. इस दौर में आपने महसूस भी किया होगा कि जब बच्चे फोन पर होते हैं तो वह अपने पेरेंट्स की हर बात को अनसुना कर देते हैं. इस वजह से बच्चों की लर्निंग स्किल भी लड़खड़ा रही है.
बहरहाल, कोविड महामारी को लेकर दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएं लगातार कह रही हैं कि कोविड इतनी जल्दी हमारे बीच से नहीं जाने वाला और यह कहना मुश्किल है कि कब कौन सा खतरनाक वैरिएंट जीवन के लिए खतरा बन जाए. ऐसी परिस्थिति में खासतौर से भारत जैसे देश में बच्चों को ऑनलाइन के वैश्विक खतरों से बचाना मुश्किल काम है. मुश्किल इसलिए क्योंकि देश की राजनीति इसको लेकर गंभीर नहीं है, चिंतित नहीं है. यह एक खतरनाक परिस्थिति है क्योंकि आज जिन बच्चों के भविष्य की चिंता देश नहीं कर पा रहा, वह बच्चा कल बड़ा होकर भारत के भविष्य को कितना संवार पाएगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल है. संकट की गंभीरता को देखते हए अगर अमेरिका में इसको लेकर कानून बनाने पर विचार हो रहा है तो उसका अनुसरण कर भारत को भी समाधान की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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