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सोशल मीडिया में कर्नाटक के तुमकुर का एक वीडियो खूब वायरल हुआ
प्रवीण कुमार।
सोशल मीडिया में कर्नाटक के तुमकुर का एक वीडियो खूब वायरल हुआ जिसमें चिक्कासांद्रा हुबली के रामनपाल्या का एक युवा किसान केम्पेगौड़ा आरएल चारपहिया खरीदने अपने दोस्तों के साथ महिन्द्रा कंपनी के शोरूम पहुंचता है. लेकिन शोरूम के एक सेल्समैन ने उसके कपड़ों से उसकी हैसियत आंक दी और कह दिया '10 लाख तो दूर, तुम्हारी जेब में 10 रुपये भी नहीं होंगे.' इसके बाद शोरूम छोड़ने से पहले किसान और उसके दोस्तों ने कहा कि अगर वे कैश ले आते हैं तो क्या गाड़ी की डिलीवरी आज ही हो जाएगी. इस पर शोरूम एग्जीक्यूटिव राजी हो गया और किसान ने आधे घंटे के अंदर 10 लाख रुपये का बंदोबस्त किया और पहुंच गया. केंपेगौड़ा आरएल वैसे तो सुपारी की खेती करते हैं, लेकिन वह जैस्मिन और क्रॉसेंड्रा भी उगाते हैं. इस किस्से का जिक्र यहां हमने 'Don't judge a book by its cover' वाली कहावत को साबित करने के लिए नहीं किया है बल्कि इसका संबंध कहीं न कहीं सरकार की उस सोच को बताने की है जहां से वह अपनी आय बढ़ाना चाहती है. नीति आयोग (Niti Aayog) ने पिछले साल सरकार को शायद इसी सोच के तहत कृषि (Agriculture) को टैक्स के दायरे में लाने की सलाह दी थी. बात तुमकुर के किसान केम्पेगौड़ा आरएल की हो या किसान नेता राकेश टिकैत और कद्दावर नेता शरद पवार की हो, ये लोग कृषि से इतर होने वाले इनकम को भी कृषि मद में दिखाकर भारी-भरकम इनकम टैक्स (Income Tax) की देनदारी से खुद को बचा लेते हैं. तो क्या आने वाले बजट सत्र में सरकार अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए कुछ शर्तों के साथ कृषि को टैक्स के दायरे में लाने की घोषणा कर सकती है?
वोट बैंक की राजनीति से देश का भला नहीं
दरअसल, सरकार की आय का लगभग एक-तिहाई हिस्सा कॉर्पोरेट टैक्स और इनकम टैक्स से आता है और इसमें अगर एक्साइज, कस्टम, सर्विस टैक्स आदि को भी जोड़ दिया जाए तो यह 60 प्रतिशत से भी अधिक हो जाता है. कहने का मतलब यह कि टैक्स सरकार की कमाई का बड़ा जरिया है. लिहाजा कृषि को भी टैक्स के दायरे में लाने की बात का जिक्र बार-बार उठ रहा है. याद हो तो नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय पहले ही सलाह दे चुके हैं कि एक सीमा के बाद कृषि से होने वाली आय पर भी टैक्स लगाया जाना चाहिए.
टैक्स को लेकर जब आप इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो ब्रिटिश राज के दौरान 1925 में भारतीय कराधान जांच समिति ने भी इस बात का जिक्र किया था कि कृषि से होने वाली आय पर टैक्स छूट का कोई ऐतिहासिक या सैद्धांतिक कारण नहीं है. हालांकि आजादी के बाद पहली बार साल 1972 में बनाई गई केएन राज समिति ने भी कृषि को टैक्स के दायरे से बाहर रखने पर ही अपनी हामी भरी थी. यहां तक कि केलकर समिति ने भी 2002 में कहा था कि देश में 95 प्रतिशत किसानों की इतनी कमाई नहीं होती कि वो उनपर टैक्स का बोझ लादा जाए.मतलब साफ है कि पांच प्रतिशत किसानों को टैक्स के दायरे में लाया जा सकता है. नीति आयोग ने भी शायद केलकर समिति की सिफारिश के आधार पर ही अपनी सिफारिश को आगे बढ़ाया था.
मालूम हो कि आयकर अधिनियम-1961 की धारा 10 (1) के तहत भारत में कृषि से होने वाली आय टैक्स फ्री है. लिहाजा अगर सरकार 5 प्रतिशत अमीर किसानों को भी टैक्स के दायरे में लाने की सोचती है तो कानून में संशोधन करना पड़ेगा जो फिलहाल मुश्किल काम है. वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में जिस तरह से पिछड़े व दलितों के आरक्षण में क्रीमलेयर को लेकर सरकार फैसला लेने से बचती रही है, ठीक उसी प्रकार से खेती-किसानी में भी क्रीमी लेयर मौजूद है जिसे टैक्स के दायरे में लाने की भूल सरकार करना नहीं चाहती है. कृषि कानूनों को लेकर हाल में जिस तरह से मोदी सरकार को झुकना पड़ा उसके बाद कृषि से होने वाली आय को टैक्स के दायरे में लाने की बात सरकार सोच ही नहीं सकती है.
कृषि से जुड़ी कंपनियों को टैक्स छूट क्यों?
कृषि को टैक्स के दायरे में लाने की बात जब-जब उठती है, किसानों के हित में काम करने वाली संस्थाएं, एक्सपर्ट्स व विपक्षी दल एक सुर में राग अलापने लगते हैं कि भारत का एक किसान परिवार प्रतिदिन औसतन सिर्फ 265 रुपये कमाता है. यानी महीने में 8000 और साल में 96 हजार के करीब तो ऐसे किसानों को टैक्स के दायरे में क्यों लाया जाना चाहिए? लेकिन इससे इतर इस तरह की बात करने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि खेती से होने वाली आय पर टैक्स नहीं लगने से इसका फायदा उन बड़े किसानों के हक में चला जाता है जो संपन्न हैं या फिर उन बड़ी कंपनियों को जो इस सेक्टर में लगी हैं. लिहाजा ऐसी बड़ी कंपनियों को टैक्स में छूट को लेकर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए.
वर्तमान में लागू कानून के मुताबिक, टैक्स से छूट के दायरे में खेतिहर भूमि से मिलने वाला किराया, फसल बिक्री से होने वाली कमाई, नर्सरी में उगाए जाने वाले पौधे से होने वाली आय, कुछ शर्तों के साथ फार्महाउस से होने वाली कमाई इत्यादि आती हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां इसका भरपूर फायदा उठाती है और बहुत बड़ी रकम पर टैक्स से छूट पा लेती हैं. आखिर कावेरी सीड्स, मॉन्सेंटो जैसी कंपनियों को कृषि आय से टैक्स में छूट क्यों दी जा रही है? कैग भी इसको लेकर सुझाव देती रही है कि आयकर विभाग एक निश्चित सीमा से ऊपर के मामलों की फिर से जांच करे और इस बात का सत्यापन करे कि जिन्हें कृषि आय के आधार पर टैक्स छूट दी गई है वो पात्र हैं या नहीं. आयकर विभाग अपने पूरे सिस्टम को मजबूत करे ताकि कोई भी गलत तरीके से टैक्स छूट न प्राप्त कर सके.
अमीर किसानों को तो टैक्स देना ही चाहिए
अमरीका और कई यूरोपीय देशों में कृषि पर टैक्स का प्रावधान है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं कि वहां के किसानों की स्थिति भारत से कहीं अलग है. अमरीका और यूरोप में सरकार पहले 65 हजार डॉलर की सब्सिडी देती है फिर टैक्स लगाया जाता है. दूसरा, जिन बड़े देशों में कृषि पर टैक्स का प्रावधान है वहां अगर किसानों की पैदावार घटती है तो बीमा की व्यवस्था है. अगर बाजार में कीमतें गिरती हैं तो उसके लिए भी बीमा का प्रावधान है. लेकिन हमारे यहां किसानों को फसल बीमा वाली सुविधा अभी बेहद शुरूआती दौर में है और इसका फायदा भी कहीं न कहीं बड़े किसानों या फिर इस क्षेत्र से जुड़ी कंपनियां ही उठा रही हैं. इसके अलावा अमरीका में किसानों के पास औसतन 250 हेक्टेयर भूमि है तो हमारे यहां औसतन एक से दो हेक्टेयर. लिहाजा अमरीका या उन देशों में जहां कृषि पर टैक्स है, उससे भारत की तुलना तो नहीं की जा सकती है.
अगर भारत के टॉप 4-5 प्रतिशत किसान परिवारों पर 30 प्रतिशत की दर से इनकम टैक्स लगाया जाए तो कृषि टैक्स के रूप में सरकार के खजाने में 25 हजार करोड़ रुपए मिल सकते हैं. अगर इसमें कृषि क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों को भी टैक्स के दायरे में ले आया जाए तो ये आंकड़ा काफी अधिक हो सकता है. भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन भी इस बात को जोर देकर कह चुके हैं कि कमाई करने वाले हर अमीर शख्स को टैक्स का भुगतान करना चाहिए, चाहे वह किसान ही क्यों न हो.
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर देशहित में सरकार के लिए यह तय करने का वक्त आ गया है कि कृषि से जुड़ी आमदनी पर टैक्स फ्री का मसला हो या फिर कृषि क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों को टैक्स में छूट देने का प्रावधान, संबंधित कानून में संशोधन कर उसपर टैक्स लगाने की दिशा में पहल हो. अगर यह कदम जल्द नहीं उठाया गया तो अमीर किसान और अमीर होते जाएंगे और गरीब किसान और गरीब. ऐसे भी छोटे किसानों की आमदनी इतनी होती ही नहीं है कि उन्हें टैक्स देना पड़े. ऐसे में होना तो यही चाहिए कि कृषि आय को टैक्स के दायरे में लाकर उससे मिलने वाली रकम छोटे किसानों को ऊपर उठाने पर खर्च हो. यह एक ऐसा रास्ता है जो खेती-किसानी को बेहतर बनाने के साथ-साथ बेरोजगारी को भी कम करने में मददगार साबित होगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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