सम्पादकीय

कब तक कांग्रेस पार्टी ऐसे ही क्षेत्रीय दलों की चाल में उलझी रहेगी?

Gulabi
27 Jun 2021 9:56 AM GMT
कब तक कांग्रेस पार्टी ऐसे ही क्षेत्रीय दलों की चाल में उलझी रहेगी?
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सोच कर भी बुरा लगता है कि भारत की आज़ादी के बाद जिस पार्टी की केंद्र में सरकार लगभग 57 वर्षों तक रही हो

अजय झा। सोच कर भी बुरा लगता है कि भारत की आज़ादी के बाद जिस पार्टी की केंद्र में सरकार लगभग 57 वर्षों तक रही हो, अब उसका भविष्य क्षेत्रीय और छोटे दलों के रहमो करम पर है. शुक्रवार को एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार (NCP Chief Sharad Pawar) और शनिवार को शिवसेना (Shiv Sena) के सांसद और प्रवक्ता संजय राउत (Sanjay Raut) बीजेपी (BJP) के खिलाफ प्रस्तावित विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस पार्टी की भूमिका के बारे में बोलते दिखे. यह अलग बात है कि जब पवार की अध्यक्षता में आठ विपक्षी दलों की मंगलवार को मीटिंग हुई तो उसमे कांग्रेस पार्टी (Congress Party) को आमंत्रित भी नहीं किया गया था. साफ़ है कि उस मीटिंग में निर्णय लिया गया कि चाहे कांग्रेस पार्टी की हालत कितनी ही ख़राब हो गयी हो, उसे साथ लेकर चलना ही बुद्धिमानी होगी. पवार ने इसे जरूरी बताया पर हकीकत में यह उन दलों की मजबूरी है, क्योंकि केंद्र में अभी भी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ा विपक्षी दल है.

कांग्रेस पार्टी सात साल पहले तक केंद्र की सत्ता में थी. पार्टी का 135 साल पुराना इतिहास है. अभी भी शायद कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसका कार्यकर्ता भारत के हर एक गांव में मिल जाएगा, इस मामले में बीजेपी अभी भी कांग्रेस से पीछे है. चुनाव में जीत हार तो लगी ही रहती है, पर ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस पार्टी एक बार फिसली तो फिर उठने का नाम ही नही ले पा रही है. कांग्रेस पार्टी को या तो इसका कारण पता नहीं है या फिर पार्टी के नेता जान कर भी अंजान हैं.
निगेटिव राजनीति करना कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती
सबसे बड़ी गलती कांग्रेस पार्टी की थी निगेटिव राजनीति. पिछले लगभग तीस वर्षों से पार्टी का एक ही लक्ष्य रहा है कि जैसे भी हो बीजेपी की सत्ता से दूर रखा जाए. बीजेपी की बढ़ती शक्ति से कांग्रेस पार्टी इतना बौखला गयी कि एक के बाद एक गलत निर्णय लेती चली गयी, जो आज तक जारी है. बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों के साथ समझौता करना शुरू कर दिया, जिसके कारण मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव सरीखे क्षेत्रीय नेता बड़े नेता बन गए. सत्ता का लालच कहें या चस्का, ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी ने मुलायम और लालू जैसे नेताओं का समर्थन किया, बल्कि उनकी सरकार में शामिल भी हुई.
राजनीतिक दृष्टि से देश के दो सबसे अहम् राज्यों में क्षेत्रीय दलों के कनिष्ठ सहयोगी बनने का ही यह असर है कि आज उत्तर प्रदेश और बिहार समेत कई राज्यों में पार्टी का अस्तित्व ही लगभग ख़त्म हो गया है. क्षेत्रीय दलों से गठबंधन का नतीजा यह हुआ कि बीजेपी को उन सभी राज्यों में विस्तार के लिए खुला मैदान मिल गया. उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम और लालू कांग्रेस पार्टी को ही पराजित करके सत्ता में आये थे. ज़रूरत थी कि वहां कांग्रेस पार्टी विपक्ष की राजनीति करती, ना कि कनिष्ठ सहयोगी की.
क्षेत्रीय दलों पर निर्भर हो गई है कांग्रेस
कहीं ना कहीं कांग्रेस पार्टी में दूरदर्शिता की कमी रही. कांग्रेस पार्टी बहुत खुश है कि तमिलनाडु में DMK की पूंछ पकड़ कर वह सत्ता में सहयोगी दल के तौर पर शामिल हो गयी, पार्टी को इसका कोई मलाल नहीं है कि 1967 तक मद्रास, जिसका नाम 1969 में बदल कर तमिलनाडु हो गया, में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी. सत्ता के लालच में कभी DMK की सहयोगी पार्टी तो कभी AIADMK के साथ समझौता का असर यह हुआ कि तमिलनाडु में अगर क्षेत्रीय दलों का साथ ना हो तो कांग्रेस पार्टी अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो सकती.
लगभग यही हाल झारखण्ड में भी दिख रहा है, जहां कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय दल 'झारखण्ड मुक्ति मोर्चा' की पुछल्ली पार्टी बन कर सत्ता का सुख भोग कर खुश है, बिना परवाह किये कि इस गलत फैसले के कारण जमीनी स्तर पर झारखण्ड में कांग्रेस की जड़ें खुद गयी हैं. कांग्रेस का प्रदेश में दिन पर दिन नामो निशान मिटता जा रहा है. गलती सभी से होती है, पर जो गलती कर के भी सीख ना ले उसे बुद्धिहीन की ही संज्ञा दी जा सकती है.
कांग्रेस का सिर्फ एक मकसद, राहुल गांधी को पीएम बनाना
अभी हाल ही में हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में कांग्रेस पार्टी लगातार डूबती हुई वामदलों के नाव में सवार हो गयी, एक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता से चुनावी समझौता कर लिया. नतीजा रहा शर्मनाक हार और पूर्ण सफाया. चुनाव परिणामों की समीक्षा हुई, एक कमिटी का गठन हुआ जिसे कहा गया की वह विस्तार में चुनाव हारने के कारणों पर रिपोर्ट दे. कमिटी का गठन का एक ही लक्ष्य था, पार्टी के अन्दर उठे गुस्से को शांत करना. कमिटी को तीन हफ्ते का समय दिया गया था, पर डेढ़ महीने के बाद भी रिपोर्ट नही आयी है. कारण साफ़ है, किसमे इतनी हिम्मत है कि वह सोनिया गांधी और राहुल गांधी को दोष दे सके? वामदलों से समझौता का फैसला भी तो उन्हीं का था, क्योंकि नजर भविष्य पर थी. वामदलों को खुश करना ही मकसद था ताकि भविष्य में राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने में उनका समर्थन मिले. शून्य से कम कोई अंक नहीं होता. अगर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अलग से ही चुनाव लड़ती तो शून्य से नीचे तो नहीं जाती, हां, वामदल शायद राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में सहयोग नहीं देते. पर वामदल तो शरद पवार के घर पर हुए मीटिंग में शामिल हो गए जहां कांग्रेस पार्टी को बुलाया भी नहीं गया.
चुनाव किसी भी पार्टी के लिए विस्तार करने का अवसर होता है, जो पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के हाथों से जाता रहा. अगर पश्चिम बंगाल में आज बीजेपी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन कर उभरी है तो इसका श्रेय कांग्रेस पार्टी को जा सकता है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने अपने स्तर पर कोई प्रयास ही नहीं किया और बीजेपी को अपनी जडे़ं फ़ैलाने के लिए खुला मैदान मिल गया.
क्षेत्रीय दलों से बीजेपी का भी समझौता होता रहा है. भले ही बीजेपी को पिछले दो आम चुनावों में अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिली हो, पर केंद्र में सरकार अभी भी एनडीए की ही है. बस कांग्रेस पार्टी और बीजेपी में फर्क सिर्फ इतना है कि बीजेपी अपने सहयोगी दलों के दम पर विस्तार करती गयी और कांग्रेस पार्टी ने क्षेत्रीय दलों के सामने समर्थन कर दिया. कांग्रेस पार्टी के विपरीत बीजेपी अभी भी राज्यों में विस्तार करने में जुटी है, जबकि कांग्रेस पार्टी का बस यही एक सपना है कि जैसे भी हो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है. पार्टी की अनदेखी और एक परिवार से प्रेम का ही परिणाम है कि जहां 1984-85 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की 426 सीटों पर ऐतिहासिक जीत हुई थी और बीजेपी के मात्र दो सांसद ही चुने गए थे, 35 साल बाद अब आलम यह है कि लुढ़कते-लुढ़कते कांग्रेस पार्टी 426 से 2019 के चुनाव में 52 सीटों पर आ गयी और बीजेपी दो से 303 सीटों पर पहुंच गयी.
क्या 2024 में कांग्रेस से दो नंबर की पार्टी होने का खिताब भी छिन जाएगा
अगले लोकसभा चुनाव में अभी लगभग तीन साल से थोड़ा कम समय बचा है. कांग्रेस वर्तमान समय में दो नंबर की पार्टी है. शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे नेता कांग्रेस से वह दर्जा भी छीनने की फ़िराक में है. उन्हें पता है कि तीसरा मोर्चा सफल नहीं होगा, इस लिए वह दूसरे मोर्चे की कमान अपने हाथों में लेने की फ़िराक में हैं, ताकि केंद्र में भी कांग्रेस पार्टी की हालत उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और तमिलनाडु जैसी हो जाए.
देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस पार्टी बीजेपी से द्वेष और सत्ता की लालच में केंद्र के प्रस्तावित गठबंधन में उलझ जायेगी या फिर पार्टी यह हिम्मत दिखाएगी कि भले ही उसे विपक्ष में कुछ और समय बैठना पड़े, बिना इसकी चिंता किये की केंद्र में किसकी सरकार बनती है, पार्टी अपने दम पर फिर से पुनर्निर्माण में जुट जाएगी, जिसकी सम्भावना लगभग नगण्य है. क्योंकि जो गलती करके सबक सीख ले वह आज की कांग्रेस पार्टी हो ही नहीं सकती.
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