सम्पादकीय

कला-संस्कृति के लिए

Gulabi
11 Aug 2021 11:27 AM GMT
कला-संस्कृति के लिए
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जिस प्रदेश के सिर पर लोक संस्कृति का ताज खास अहमियत रखता हो

जिस प्रदेश के सिर पर लोक संस्कृति का ताज खास अहमियत रखता हो, उसके कलाकार को भूखे मरने की नौबत नहीं आनी चाहिए। कोविड काल के दौरान हिमाचल ने आर्थिकी के अनेक पहलू गंवाए हैं, लेकिन सांस्कृतिक विरासत की चीख कई परिवारों के चूल्हे को ठंडा कर गई। आश्चर्य यह कि लोक कलाकारों को अपने वाद्य यंत्र बेचकर अपनी फकीरी की निशानियां सार्वजनिक करनी पड़ रही हैं, लेकिन राज्य ने इन्हें लावारिस बना कर छोड़ दिया है। पर्यटन, सांस्कृतिक समारोह, शादियों व त्योहारों पर छाई मंदी ने इस वर्ग के हजारों लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। हर गांव में अगर एक या दो लोक कलाकार भी बसते हों, तो यह आंकड़ा राज्य की आर्थिक मंदी में एक बड़ा वर्ग बन जाता है। देव परंपराओं से जुड़े सैकड़ों परिवार भी इस मंदी में सूरत-ए-हाल बताते हैं। शादी के बैंड अपने समूह में रोजगार का जरिया बनाते हुए उस मासूमियत का चित्रण भी तो करते हैं, जो हमें जीने की ठोस जमीन उपलब्ध नहीं कराती। क्या हम बुरे वक्त की बुरी निशानियों में गुम होकर यह भूलने की छूट प्राप्त कर लेते हैं कि लोक कलाकारों को निजी हालात के हवाले कर दें। जो हमारी सांस्कृतिक विरासत के पुरोधा हैं या जिनके कारण हिमाचल स्वयं को लोक व कबायली संस्कृत का मार्गदर्शक कहलाता है, उनकी वर्तमान स्थिति पर क्या कभी कोई विमर्श हुआ।


कबायली क्षेत्रों का एक अध्ययन बताता है कि पश्चिम बंगाल, ओडीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ व बिहार आदि राज्यों ने अपनी धरोहर के प्रति सबसे बेहतर कार्य किए हैं। ऐसे में हिमाचल में विकसित हुए सांस्कृतिक उद्योग की क्या कभी व्याख्या हुई। हालांकि खुद को लोक कला एवं संस्कृति का मसीहा मानने वाले भाषा-संस्कृति विभाग या अकादमी का गठन हुए वर्षों बीत गए, लेकिन इनके नेतृत्व में साहित्यकारों का जमावड़ा रहा या तमाम अधिकारी अपने-अपने दायित्व में कवि या कहानीकार बनते चले गए। भाषा अकादमी ऑनलाइन कार्यक्रमों की श्रृंखला चलाकर कोविड काल के सुर अपने लिए जरूर साध रही है, लेकिन चिंताओं के सबब में रोजाना पुरातन संस्कृति, वेद-पुराण या उपनिषद का ज्ञान बांटकर, लोक कलाकारों के प्रति कौन सा विवेचन हुआ। पांच सौ से ऊपर ऑनलाइन चर्चाएं कर चुकी भाषा अकादमी अपने भीतर से कितनी कला और कितनी संस्कृति निकाल पाई। क्या एक भी चर्चा हिमाचल की सांस्कृतिक आर्थिकी पर हुई।


ऐसे में हिमाचल की सांस्कृतिक व लोक कलाओं को देखने, समझने और संरक्षण देने के साथ-साथ लोक कलाकारों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए अलग से नेतृत्व चाहिए। जैसा कि कहा जाता है साहित्यिक विमर्श, प्रकाशन व प्रदर्शन के लिए भले ही अलग से विभाग रहे, लेकिन लोक कलाओं के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए स्वतंत्र व्यवस्था करनी होगी। कला व संस्कृति अकादमी का नेतृत्व इन विधाओं का कोई जानकार करे, जबकि भाषा अकादमी का अध्यक्ष किसी साहित्यकार को बनाया जाए। सांस्कृतिक आर्थिकी को आगे बढ़ाने के लिए अलग से कला, संस्कृति एवं मेला प्राधिकरण का गठन करते हुए तमाम कलाकारों की शिनाख्त, रैंकिंग व सालभर के कार्यक्रम तय करने की एक पारदर्शी व्यवस्था बनाई जा सकती है। मंदिर परिसरों में सांस्कृतिक कला केंद्रों के रूप में ऐसी अधोसंरचना विकसित करनी होगी ताकि आने वाले श्रद्धालु हिमाचल की लोक कलाओं, गीत-संगीत तथा लोक नृत्य एवं नाटक कलाओं से वाकिफ हो सकें। पर्यटन विभाग अपने तौर पर लोक कलाकारों के इस कठिन दौर में कुछ कार्य देकर राहत प्रदान कर सकता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय को अपनी रोजगार गारंटी स्कीम के माध्यम से लोक कलाकारों की वित्तीय मदद करनी चाहिए। लोक कलाओं के संवर्द्धन को लेकर पारिश्रमिक तय करके, कलाकारों को रियाज पर प्रशिक्षण प्रदान करने के नाम पर दिहाड़ी दी जा सकती है, ताकि कोविड संकट के बीच ये हुनर उजड़ने से बच जाएं। इसी तरह नगर निकाय, मंदिर ट्रस्ट, सूचना विभाग तथा जिला प्रशासन अपने-अपने स्तर पर लोक कलाकारों पर छाई मंदी की मार का संज्ञान लेते हुए, कुछ वैकल्पिक अवसर व वित्तीय लाभ मुहैया कराएं। आगामी तीन वर्षों के लिए अनुबंध करते हुए सरकार इन्हें पेशगी के तौर पर भी वित्तीय मदद कर सकती है।

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