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- कला-संस्कृति के लिए
जिस प्रदेश के सिर पर लोक संस्कृति का ताज खास अहमियत रखता हो, उसके कलाकार को भूखे मरने की नौबत नहीं आनी चाहिए। कोविड काल के दौरान हिमाचल ने आर्थिकी के अनेक पहलू गंवाए हैं, लेकिन सांस्कृतिक विरासत की चीख कई परिवारों के चूल्हे को ठंडा कर गई। आश्चर्य यह कि लोक कलाकारों को अपने वाद्य यंत्र बेचकर अपनी फकीरी की निशानियां सार्वजनिक करनी पड़ रही हैं, लेकिन राज्य ने इन्हें लावारिस बना कर छोड़ दिया है। पर्यटन, सांस्कृतिक समारोह, शादियों व त्योहारों पर छाई मंदी ने इस वर्ग के हजारों लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। हर गांव में अगर एक या दो लोक कलाकार भी बसते हों, तो यह आंकड़ा राज्य की आर्थिक मंदी में एक बड़ा वर्ग बन जाता है। देव परंपराओं से जुड़े सैकड़ों परिवार भी इस मंदी में सूरत-ए-हाल बताते हैं। शादी के बैंड अपने समूह में रोजगार का जरिया बनाते हुए उस मासूमियत का चित्रण भी तो करते हैं, जो हमें जीने की ठोस जमीन उपलब्ध नहीं कराती। क्या हम बुरे वक्त की बुरी निशानियों में गुम होकर यह भूलने की छूट प्राप्त कर लेते हैं कि लोक कलाकारों को निजी हालात के हवाले कर दें। जो हमारी सांस्कृतिक विरासत के पुरोधा हैं या जिनके कारण हिमाचल स्वयं को लोक व कबायली संस्कृत का मार्गदर्शक कहलाता है, उनकी वर्तमान स्थिति पर क्या कभी कोई विमर्श हुआ।