- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- फुटबॉल मैच में मौतें
आदित्य नारायण चोपड़ा; पूरी दुनिया में फुटबॉल खेल के प्रति जबर्दस्त जुनून है। खेल प्रेमी फुटबॉल मैच देखने के लिए स्टेडियमों की ओर टूट पड़ते हैं। इंडोनेशिया में ईस्ट जावा के मलंग शहर में हुए मैच में उपद्रव और स्टेडियम में भगदड़ मचने से 174 खेल प्रेमियों की जान जाना काफी दुखद है। फुटबॉल मैच में मौत का तांडव एक टीम की हार से बौखलाए फैंस ने ही किया। इस मैच में पर्सेबाया टीम ने अरेमा टीम को 3-2 से हराया। स्टेडियम में दोनों टीमों के बीच मैच तनावपूर्ण पारिस्थितियों में हुआ, जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता है। फुटबॉल में रियाल मैड्रिड और बार्सिलोना के बीच होता है। मगर इंडोनेशियाई घरेलू मैच में नतीजा खूनी संघर्ष में बदल जाएगा, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। हालात तब बिगड़े जब अरेमा टीम के हार जाने पर उसके प्रशंसकों ने स्टेडियम में घुसकर हंगामा शुरू कर दिया। पुलिस ने पहले तो उपद्रव कर रहे लोगों को स्टैंड पर लौटने के लिए कहा लेकिन आक्रोश में आई भीड़ ने उनकी एक न सुनी। भीड़ अराजक हो गई। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर हुआ क्या ? कुछ ही मिनटों में पूरे स्टेडियम में 40000 से ज्यादा की भीड़ एक-दूसरे को कुचलते हुए इधर-उधर भाग रही थी। पुलिस द्वारा आंसू गैस का इस्तेमाल करने पर लोग बिलबिलाने लगे। हजारों समर्थक स्टेडियम के गेट की तरफ भागे लेकिन तब तक स्टेडियम का दरवाजा नहीं खुला था। स्टेडियम के हर कोने में रोशनी भी पर्याप्त नहीं थी। इससे पहले कि हालात संभले 174 लोगों की मौत हो चुकी थी और लगभग इतने ही लोग जख्मी हो चुके थे। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने इस दुखद घटना के बाद फुटबॉल मैचों पर रोक लगा दी है। पुलिस चीफ तथा फुटबॉल एसोसिएशन के प्रमुख को फुटबॉल मैचों में सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा का आंकलन करने के निर्देश दे दिए। फुटबॉल मैच के दौरान मौतें कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी ऐसे हादसे कई बार हो चुके हैं। पूर्व में हुए हादसों से न तो कोई सबक सीखा गया और न ही भीड़ प्रबंधन को पुख्ता बनाया गया। भीड़ का अपना एक मनोविज्ञान होता है। हजारों लोगों की उपस्थिति के बीच हल्की सी धमक भी लोगों को परेशान कर सकती है। कई बार अफवाहों के चलते भी लोग बेतहाशा देखादेखी में भागने लगते हैं। सोचने वाली बात यह है कि आखिर यह बड़ा हादसा कैसे, किस कारण और किसकी लापरवाही से हुआ। इस फुटबॉल स्टेडियम के हादसे के जो वीडियो सामने आए हैं, वह दुनियाभर की पुलिस के लिए सबक है कि अगर बंद एरिया में पुलिस आंसूगैस का इस्तेमाल करती है तो हश्र कितना भयानक हो सकता है। अब सवाल यह है कि चूक कहां हुई और किसने की। पाठकों को याद होगा कि 16 अगस्त 1980 को कोलकाता के ईडन गार्डन स्टेडियम में मोहन बागान और ईस्ट बंगाल कोलकाता की फुटबॉल टीम के बीच मैच के दौरान हुए दंगे और भगदड़ में 16 लोगों की जान चली गई थी। दोनों टीमों के प्रशंसक आपस में भिड़ गए थे। अब हर वर्ष 16 अगस्त को फुटबॉल प्रेमी दिवस मनाया जाता है और मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी जाती है। भारत में लगने वाले धार्मिक मेलों में भी भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है। अब तक का सबसे बड़ा हादसा 1964 में हुआ था। जब पेरू की राजधानी लीमा में ओलंपिक के क्वालीफायर फुटबॉल मैच में भगदड़ मचने से 320 लोगों की जान चली गई थी और 1000 से अधिक लोग घायल हुए थे। 1985 के यूरोपियन कप टूर्नामेंट में दीवार गिरने से मची भगदड़ से 39 लोगों की जान चली गई थी। 9 मई 2001 को घाना की राजधानी अकारा में फुटबॉल मैच के दौरान मची भगदड़ में 127 लोगों की जान चली गई थी। उस वक्त भी पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे थे। सबसे बड़ा सवाल यही है कि फुटबॉल पर प्रशंसकों का जुनून राज करता है। लेकिन स्टेडियमों में होने वाली त्रासदियों को कैसे रोका जाए। भारत में पश्चिम बंगाल और केरल में फुटबॉल के प्रति लोगों का जुनून आज भी कायम है। 1996-97 में अखिल भारतीय क्लब लीग की शुरूआत के बाद फुटबॉल के महत्व को कम आंकने की कोशिश की गई। क्रिकेट समेत कई खेलों के फाॅरमेट बदल गए। क्लब आधारित फॉरमेटों में करोड़ों रुपए का निवेश होने लगा। काफी कुछ बदल गया लेकिन पुलिस व्यवस्था आज भी कई देशों में पुरानी ही है। अक्सर भारत में धार्मिक स्थानों पर होने वाले हादसों के बाद पुलिस और प्रबंधक को दोषी ठहरा दिया जाता है, लेकिन हर पुराने हादसे से कोई सबक नहीं लिया जाता। ऐसे हादसों से बचने के लिए यद्यपि अनेक उपाय किए जा रहे हैं। वीडियोग्राफी, ड्रोन और सीसीटीवी कैमरों का व्यापक इस्तेमाल हो रहा है। इन सबका इस्तेमाल तो भारत से भी ज्यादा विदेशों में किया जाता है। फिर भी ऐसे हादसे हो जाते हैं। पुलिस और प्रबंधन व्यवस्था कई बार भीड़ का आंकलन करने में गफलत हो जाती है। समस्त प्रकृति को देखते हुए भीड़ प्रबंधन के लिए कड़े नियम या दिशानिर्देश तय करना व्यावहारिक नहीं है। मौके पर मौजूद पुलिस तंत्र को परििस्थति के मुताबिक निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। भीड़ प्रबंधन और अपने नागरिकों को प्राथमिकता देना सरकारों का कर्त्तव्य है। इंडोनेशिया की दुर्भाग्यपूर्ण त्रासदी के बाद इस बात पर विचार करना बहुत जरूरी है कि जब स्टेडियम गेट खोले ही नहीं गए तो भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस का इस्तेमाल क्या लापरवाही की मिसाल है? स्टेडियमों की क्षमता को देखते हुए दर्शकों को कितनी संख्या में अनुमति दी जानी चाहिए, इसका पैमाना भी तय कि -या जाना बहुत जरूर है। भीड़ प्रबंधन के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है। भारत को इसका अच्छा खासा अनुभव है। भारत में कुंभ, अर्द्धकुंभ और धार्मिक आयोजनों में जितनी भीड़ पहुचती है, उसका अंदाजा तो विदेश वाले भी नहीं लगा पाते। दुनिया के किसी अन्य देश में एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों करोड़ों की भीड़ जुटने की उम्मीद नहीं की जा सकती। फिर भी भीड़ के हादसों से बचने के लिए सजग, सतर्कता और त्वरित फैसले लेने की क्षमता होनी चाहिए।