सम्पादकीय

उड़ती बुद्धि (कंपनियां) और दुनिया गुलाम!

Gulabi
2 March 2021 3:59 PM GMT
उड़ती बुद्धि (कंपनियां) और दुनिया गुलाम!
x
दिमाग कहें या बुद्धि, इसी की उड़ान ने, इसी से जन्मे आइडिया, खोज ने इंसान को गुफा से चंद्रमा तक पहुंचाया है

दिमाग कहें या बुद्धि, इसी की उड़ान ने, इसी से जन्मे आइडिया, खोज ने इंसान को गुफा से चंद्रमा तक पहुंचाया है। सहस्त्राब्दियां आईं-गईं, साम्राज्य बने-बिगड़े लेकिन बुद्धि की फितरत में उत्तरोत्तर वह सब होता गया, जिससे पाने, चाहने, कुछ करने, अमर होने की भूख में सब कुछ बनता गया! फिर भले तलवार बनी हो या परमाणु हथियार या मौजूदा महाबली आईटी कंपनियां! जाहिर है हर युग, हर क्रांति, हर खोज बुद्धि की कुलबुलाहट, इनोवेशन, नवोन्मेषी धुन से जनित है। इंसान का शरीर भले जैविक रचना में एक सा हो लेकिन शरीर विशेष में बुद्धि और उसके उड़ने के रसायनों, परिवेश का जो फर्क होता है उससे यह होड़ भी स्थायी हैं कि उड़ने का, खोजने का, वर्चस्व बनाने का माद्दा किसमें अधिक है! अफ्रीका की गुफा से आदि मानव जब बाहर निकला तो वह भी बुद्धि और साहस से शुरू यात्रा थी जो सहस्त्राब्दियों के लंबे सफर के बाद आज भी जस की तस है। बावजूद इस सबके अनुभव के रसायनों, मनोविश्व की भिन्नता की हकीकत को बतलाता यह प्रमाण है जो पृथ्वी के साढ़े सात अरब लोगों पर आज अमेरिका की पांच आईटी कंपनियों का एकाधिकार है!


हां, हम 138 करोड़ भारतीयों को अनुमान या ख्याल नहीं है कि गूगल (अल्फाबेट), फेसबुक, एपल, अमेजॉन, माइक्रोसॉफ्ट ने हम पर कैसा आधिपत्य बना रखा है! हम कैसे इन कंपनियों पर आश्रित हैं, कैसे हमारा जीना इनके सर्वरों में रिकार्ड हो रहा है, कितने अरब-खरब की ये हमसे कमाई कर रही हैं? पर मसला भारत अकेले का नहीं है। पूरी दुनिया के साढ़े सात अरब लोगों के जीवन जीने पर चंद टेक याकि तकनीक कंपनियां आज जैसी सूत्रधार हैसियत में हैं उससे सभी ओर सवाल है कि बुद्धिबल वाली चंद नवोन्मेषी कंपनियों का कैसे मानवता पर एकाधिकार है।

ऑस्ट्रेलिया से लेकर यूरोप, अमेरिका सभी तरफ, वैश्विक मीडिया में, सरकारों में, संसदों में अब बहस-चर्चा बन गई है कि इन वैश्विक टेक कंपनियों को कसो, इन्हें बदलो, इनका एकाधिकार खत्म करो! एक तरफ ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, यूरोप और अमेरिका में सोच और एप्रोच है कि इनकी प्रतिस्पर्धा में नई कंपनियों को मौका मिले। एक कंपनी का नहीं चार-पांच कंपनियां मैदान में होंगी तो लोगों को, ग्राहकों को विकल्प मिलेगा। साथ ही अभी ये कंपनियां एकाधिकार से अपनी ग्राहक संख्या, अपनी पहुंच, अपनी मनमानी से सुरसा की तरह जैसे धंधा बढ़ा रही हैं उसे खत्म कराते हुए, उस पर अंकुश लगाते हुए दूसरों को रेवेन्यू शेयर करने का कानून बने। ऑस्ट्रेलिया ने गजब किया जो संसद ने कानून बना कर गूगल और फेसबुक दोनों को मजबूर किया कि वे सर्च और कंटेंट में अखबारों, मीडिया सामग्री का प्रदर्शन जब करती हैं तो उसकी प्रकाशक कंपनियों को कमाई शेयर करें, उन्हें पैसा दें। इस पर गूगल और फेसबुक दोनों ने ऑस्ट्रेलिया सरकार को आंखें दिखा कर अपनी सेवा बंद करने की धमकी दी थी। मगर ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने परवाह नहीं की। साफ कहा कि गूगल, फेसबुक को ऑस्ट्रेलिया छोड़ना है तो छोड़ कर जाएं। उसे कानून मानना होगा। नतीजतन गूगल, फेसबुक दोनों को घुटने टेक ऑस्ट्रेलिया की मीडिया कंपनियों से समझौता कर उन्हें पैसा देने का फैसला लेना पड़ा।

यह विकसित देशों की एप्रोच है, जबकि भारत जैसे अविकसित देशों की सरकारों में एप्रोच है कि गूगल, फेसबुक ने यदि भारत के 138 करोड़ लोगों को गुलाम, आश्रित, निर्भर बनाया है तो मौके का फायदा उठाओ और इन कंपनियों का टेंटुआ दबा कर इन्हें सरकार का एजेंट बना कर जनता को वहीं परोसने के लिए मजबूर किया जाए जो सरकार चाहती है।

तो सभ्य और असभ्य देशों का इन महाबली कंपनियों के प्रति फर्क क्या बना? ऑस्ट्रेलिया- अमेरिका नागरिकों पर से कंपनियों की दादागिरी, मनमानी कमाई, निर्भरता खत्म करने के लिए प्रतिस्पर्धा बनाने की रीति-नीति बना रहे हैं वहीं भारत, चीन, म्यांमार जैसे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, तानाशाह चाह रहे हैं कि वे उनके नागरिकों को भले आश्रित, गुलाम बनाए रखें और देश में मोनोपोली बनाएं रखें लेकिन ऐसा नरेंद्र मोदी, शी जिनफिंग याकि सरकार का प्रोपेगेंडा परोसते हुए और विरोध के कंटेंट को काटते-छांटते हुए हो!

सर्वाधिक खराब, गुलाम स्थिति भारत के नागरिकों की है। चीन ने अमेरिकी कंपनियों के आगे देशी कंपनियां प्रतिस्पर्धा में बनवा रखी हैं। चीन में अमेजॉन की दाल नहीं गली इसलिए उसने भारत पर फोकस बना बाजार पर कब्जा बनाया। उससे अंबानी छटपटाते हुए, अपनी मोनोपोली नहीं बनने से अब अमेजॉन से भिड़ने की कोशिश में हैं लेकिन तब भारत के नागरिकों के सामने विकल्प सांपनाथ बनाम नागनाथ को चुनने का होगा। 138 करोड़ लोगों पर देशी एकाधिकारी व्यापारी का कब्जा हो या विदेशी एकाधिकारी का क्या फर्क पड़ता है? उलटे अमेरिकी मानदंडों की बेहतर ग्राहक सेवा में लोगों का भला अमेजॉन से ज्यादा होगा। सोचे अमेजॉन न हो और रिलायंस का जियो स्टोर उसकी जगह जम गया तो वह कैसी सेवा होगी?

बहरहाल मुद्दा यह है कि अमेरिका की चंद कंपनियों की एकछत्रता कैसे खत्म हो? उन्हें कैसे कंपीटिशन मिले? उनकी कमाई का कैसे वितरण हो? जवाब में ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, दक्षिण अमेरिकी देशों में बनते कानून सन् 2021 का चमत्कार हैं तो अमेरिका के भीतर इन कंपनियों के बीच लोकतंत्र की कुछ बुनियादी बातों मसलन निजता याकि प्राइवेसी को लेकर छिड़ी लड़ाई से बहुत कुछ बदलने की उम्मीद है। फेसबुक और एपल कंपनी में झगडा हो गया है। एपल कंपनी ने ऐलान किया है कि उसके फोन, कंप्यूटर में ग्राहकों की निजता, लोगों के आंकड़े, उनके व्यवहार, मूवमेंट पर नजर रखने का फेसबुक को मौका नहीं मिलेगा। मतलब एपल और फेसबुक में झगड़ा बना है। एपल कंपनी ने लोगों की प्राइवेसी की सुरक्षा का बीड़ा उठाया है।

ध्यान रहे सोशल मीडिया, सर्च, विज्ञापन, ई-कॉर्मस, पेमेंट गेटवे, स्ट्रीमिंग आदि से ग्राहकों की संख्या कंपनियों की पूंजी बनवाती हुई होती है। जियो ने यदि सस्ते-मुफ्त सेवा से एक बार भारतीयों को गुलाम, आश्रित बना लिया तो फिर ग्राहक से ग्राहक बनने का वह सिलसिला बना रहेगा, जिससे अपने आप 138 करोड़ भारतीयों की संख्या को बेचने की वहीं एकाधिकारी मालिक होगी। वह न तो किसी दूसरी कंपनी को कंपीटिशन में पनपने देगी और न ग्राहकों के पास विकल्प होगा। सोचें, आज गूगल के अलावा भारतीयों के पास क्या है? इंटरनेट का अर्थ भारत में गूगल, फेसबुक, यूट्यूब सर्च करते हुए उन्हीं से पढ़ने, खरीदने, मनोरंजन का है और वह भारतीयों का जीवन और मजबूरी दोनों है।

ऐसा चीन ने नहीं होने दिया। चीन में अलीबाबा, टेनसेंट सहित ऐसी छह-आठ महाबली आईटी कंपनियां हैं, जो अमेरिकी कंपनियों के दबदबे के बावजूद सौ बिलियन डॉलर से ज्यादा का धंधा सालाना कर रही है। ध्यान रहे गूगल (अल्फाबेट), फेसबुक, एपल, अमेजॉन, माइक्रोसॉफ्ट की महाबली कंपनियों की अमेरिकी शेयर बाजार में वैल्यू कोई पांच ट्रिलियन डॉलर है। इनकी रेवेन्यू साल-दर-साल बढती हुई है। वह इस दशक भी दोगुनी रफ्तार से बढ़ेगी। उस नाते इन कंपनियों से अमेरिकी ससंद, प्रशासन का भिड़ना आसान नहीं है। ये अपने आपमें इतनी बड़ी हो गई हैं और पूरी दुनिया में अमेरिका झंडे का ऐसा वैभव इनसे हुआ है, जिससे इन पर संसद का अंकुश सोचना भी दुस्साहस से कम नहीं है। बावजूद इसके ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, यूरोपीय और दक्षिण अमेरिकी देशों में धीरे-धीरे इन कंपनियों के खिलाफ जो माहौल बना है तो अंततः पूंजीवाद में जैसे पहले हुआ, वह फिर होगा। इन कंपनियों का वक्त भी फोर्ड, एटीएंडटी जैसी कंपनियों का बनता लगता है जो एक वक्त अमेरिकी पूंजीवाद की दुनिया में पर्याय थीं लेकिन अमेरिका ने ही फोन कंपनी एटीएंडटी के टुकड़े कर उसका एकाधिकार खत्म कराया था।

दिक्कत यह है कि 21वीं सदी में बुद्धि तेज दौड़ती और बहुत ऊंचे उड़ती हुई है। गूगल हो या एपल या माइक्रोसॉफ्ट आदि तमाम कंपनियों ने भविष्य की संभावनाओं में इनोवेशन के इतने आइडिया सोचे हैं और कोरोना वायरस ने लाइफ साइंस आदि की ऐसी नई जरूरत, धुन बनवाई है, जिससे अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में रिसर्च-विकास में इतना कुछ होगा कि इन महाबली कंपनियों के पांव बांधने की कोशिश होगी तब भी उड़ने के इनके पंख तेज गति लिए हुए होंगे। इसलिए बहुत मुश्किल है इन महाबली बुद्धिजन्य कंपनियों से मुक्त हो सकना!


Next Story