सम्पादकीय

बाढ़ अब खबर नहीं

Gulabi
9 Sep 2021 5:07 PM GMT
बाढ़ अब खबर नहीं
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अपने को राष्ट्रीय कहने वाले मीडिया के लिए अब आम बाढ़ खबर नहीं होती

By NI एडिटोरियल.

अब बिहार में बाढ़ का पानी तो गिरने लगा है, तो मुश्किलें बढ़ गईं हैं। कहीं खेतों में खड़ी फसल बर्बाद हो गई, तो कहीं घरों में रखा अनाज खराब हो गया। पशुओं के लिए रखा चारा भी सड़ गया। हर तरफ दुर्गंध, पेयजल के संकट, और जहरीले कीड़े-मकोड़े के कारण संक्रमण फैलने का खतरा है। (flood bihar and uttarpradesh)

अपने को राष्ट्रीय कहने वाले मीडिया के लिए अब आम बाढ़ खबर नहीं होती। इसलिए इस वक्त देश के बहुत से लोगों को यह मालूम नहीं होगा कि अभी बिहार और उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका बाढ़ में डूबा हुआ था। अब बिहार में बाढ़ का पानी तो गिरने लगा है, तो दुश्वारियां बढ़ गईं हैं। कहीं खेतों में खड़ी फसल बर्बाद हो गई, तो कहीं घरों में रखा अनाज खराब हो गया। यहां तक कि पशुओं के लिए रखा चारा भी सड़ गया। हर तरफ दुर्गंध, पेयजल संकट, सांप और जहरीले कीड़े-मकोड़े के कारण संक्रमण फैलने का खतरा अलग से है। बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 38 में से 16 जिले बाढ़ की विभीषिका झेल रहे हैं। बिहार में बरसात में यह अनुमान लगाना कठिन बना रहता है कि बाढ़ कब आ जाएगी। नेपाल में बारिश होती है और इधर बिहार में गंगा, कोसी, बागमती, बूढ़ी गंडक, कमला बलान, सोन, अधवारा और महानंदा जैसी नदियों का जलस्तर बढ़ने लगता है। ये कहानी हर साल की है। ये कहानी साल-दर-साल वैसी ही चली आ रही है।
मुश्किल यह है कि सरकार कोई भी हो, वह ना तो बाढ़ की विभीषिका को कम करने की कोई दीर्घकालिक योजना बनाती है और ना ही राहत और बचाव कार्यों के लिए पहले से मुस्तैद रहती है। तो हर साल एक ही कहानी दोहराई जाती है। यह भी हर साल की कथा है कि बाढ़ के बाद पानी तो घटने लगता है, तो बीमारियों की मार पड़ती है। डायरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में लोगों को पानी में होकर ही आने-जाने का कारण उन्हें फंगल इंफेक्शन होने की आशंका रहती है। आम तजुर्बा है कि बाढ़ से किसान और पशुपालक सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। उनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट आ जाता है। लेकिन लोग इसे किस्मत की मार समझ कर हर साल सहते हैं। जिस देश में जवाबदेही तय करने की प्रवृत्ति ना हो, वहां इसके अलावा और क्या विकल्प रह जाता है? आम दिनों में गरीब परिवारों की जो भी आमदनी होती है, उसके स्रोत बाढ़ छीन ले जाती है। तो लोग कर्ज के लिए महाजन पर निर्भर हो जाते हैं। ऐसी कहानियां इस समय बिहार के मीडिया में भरी-पड़ी हैं। लेकिन उससे फर्क क्या पड़ता है?
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