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- बाढ़ और सरकार
Written by जनसत्ता; बाढ़ को सरकार और प्रशासन प्राकृतिक नजरिए से देखता है, इसलिए इसका समाधान नहीं हो पाता है। वर्तमान में असम डूबा हुआ है और आने वाले कुछ दिनों में उत्तर बिहार बाढ़ की चपेट में होगा। अभी इतनी कम बारिश में ही बिहार के शहरी अस्पतालों तक में पानी घुस गया हैै। पटना का एनएमसीएच नियाग्रा फाल बना हुआ है। क्या इतनी शुरुआती बारिश में राजधानी का पानी-पानी होना केवल प्राकृतिक है? बिल्कुल नहीं।
अगर प्रशासन ने इस अस्पताल का निर्माण कार्य ईमानदारी एवं सही तकनीक से कराया होता तो इसमें न पानी गिरता न इसके वार्ड तालाब नजर आते। असम में जो स्थिति है, वह बिहार में होने वाली है। बाढ़ की विभीषिका सरकार एवं प्रशासन के निकम्मेपन का नतीजा है। 2005 के बाद बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार है और वह बाढ़ एवं जलजमाव से बिहार को मुक्त नहीं करा पाई है। यदि कोई सरकार किसी समस्या को सत्रह साल में ठीक न कर पाए, जबकि नीतीश कुमार जैसे नेता बिहार के मुखिया हों तो इससे बड़ी नाकामी का उदाहरण क्या हो सकता है।
एक दस साल के बच्चे को भी पता है कि मई माह से जुलाई तक हर साल वर्षा होती है। इस समय चीन एवं नेपाल की तरफ से हर साल पानी छोड़ा जाता है। असम में ब्रह्मपुत्र एवं बिहार में गंगा, कोसी, गंडक आदि जैसी नदियां है, जो इस समय अपने रौद्र रूप में रहती है। तो सरकारें और प्रशासन अपनी निर्माण नीतियां ऐसी क्यों नहीं बनातीं, जिससे नुकसान कम से कम हो। नदियों के आसपास के इलाकों से बस्तियों को दूर बसाएं।
बांध निर्माण कार्य में ईमानदार इंजीनियरों को लगाएं। जहां-जहां बाढ़ की आशंका होती है, उन जिलों में नहरों का जाल बिछा दिया जाए, जिससे बाढ़ का पानी ब्ांट जाएं और वह बाढ़ का रूप न ले सके। बाढ़ पर अध्ययन के लिए युवा शोधार्थियों की टीम बनाएं, जो समय के हिसाब से आपको नई नीति बनाकर दे सकें, जिनकी सोच नई एवं सकारात्मक हो। वनों के विनाश पर रोक एवं जनसंख्या नियंत्रण को भी एक उपाय के रूप में आजमा सकते हैं।
भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन का दौर निरंतर जारी है। अब यह मनोवैज्ञानिक स्तर से भी नीचे गिर गया। यह रुपए का अब तक का सर्वकालिक निचला स्तर है। हालांकि इसके कई कारण हैं और उन पर काबू पाना एकदम मुमकिन नहीं है, फिर भी वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने इस विषय पर पहली बार मुखर होते हुए कहा है कि अन्य मुद्रा की तुलना में रुपया कहीं बेहतर स्थिति में है। यह विचार सही हो सकता है, पर महत्त्वपूर्ण सच्चाई यह है कि इस अवमूल्यन की वजह से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 40.94 अरब डालर की भारी गिरावट आ चुकी है।
भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर माइकल डी पात्रा ने पिछले हफ्ते कहा था कि केंद्रीय बैंक रुपए की कीमत में अधिक उतार-चढ़ाव नहीं होने देगा। फिर भी इस विषय में कुछ खास नहीं हो पाया है। इन सब वर्तमान और विपरीत परिस्थितियों में देश के आर्थिक विशेषज्ञों से यही आशा की जाती है कि वे युद्ध स्तर पर इस अवमूल्यन की रोकथाम के लिए कड़े कदम उठाएं और ठोस उपाय करें, क्योंकि केवल वैश्विक स्थितियों को दोष देकर या उन्हें जिम्मेदार ठहराकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। 'सार्वजनिक मितव्ययिता' और 'कठोर वित्तीय अनुशासन' भी एक उत्तम उपाय हो सकता है और सामाजिक, निजी और सरकारी क्षेत्रों में इस सदियों पुराने, सिद्ध और सफलतम नियम का अनुसरण या उपयोग किया जाना चाहिए।