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भेड़ को नहीं मालूम कि वह भी भीड़ हो जाती है जब अपनों की संगत में आगे बढ़ती है
दिव्याहिमाचल.
भेड़ को नहीं मालूम कि वह भी भीड़ हो जाती है जब अपनों की संगत में आगे बढ़ती है। इसलिए हर भीड़ में भेड़ें ही तो होती हैं। दरअसल लोकतंत्र का अभिप्राय भेड़ से ही आया और इनसान ने पहली बार खुद को इस रूप में पाकर लोकतंत्र की राह पकड़ी। चुनाव दर चुनाव मतदाता का भेड़ बन जाना, अब एक प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि साधने का सीधापन है। देश आजाद हुआ तो हर नागरिक भी गुलामी की जंजीरों से बाहर आया, लेकिन मतदाता बनते ही उसे मालूम हो गया कि उसे नेताओं की बस्ती में भेड़ बनकर रहना है। इसलिए अब हमारे आसपास का विकास हमें भेड़ बनाता है या जब हम विकास करना चाहते हैं, तो भेड़ की तरह चलने लगते हैं। सरकारें हर बार रोजगार देने की मुनादी में ऐसी भेड़ें ही तो चुनती हैं, जो अपनों की भीड़ सी लगें। भेड़ें कभी रोजगार कार्यालय चुनता था, लेकिन अब पार्टियां चुनती हैं।
भेड़ बनकर किसी को नौकरी, तो किसी को लाभ का पद मिल जाता है। नाम और चरित्र से अब ऐसी भेड़ें तैयार की जाती हैं, जो देखने में नागरिक, चलने में समर्थक और साधने में अनुयायी या भक्त सरीखी हो जाएं। भेड़ को जीने के लिए भीड़ और भीड़ पैदा करने के लिए भेड़ें चाहिएं, इसलिए हमारी परिपक्वता और भलाई के लिए भीड़तंत्र पैदा करने की शर्त है। देश को भीड़ बनाने के कई फायदे हैं और यही अंतर सरकारों की समृद्धि में देखा जाता है। जनता अगर भीड़ बन जाए, तो राष्ट्र के संबोधन हर बार तारीफ के काबिल हो सकते हैं। इसलिए राष्ट्रभक्ति भी भीड़ के अभिप्राय में हुक्मरानों का कद ऊंचा कर सकती है। दरअसल राष्ट्रवाद अपने लिए भीड़ देख रहा है। अचानक हमारे घर की भेड़ का व्यवहार बदलने लगा है। वह अपने समुदाय पर गौरव करती है.
उसने देख व समझ लिया है कि देश नोटबंदी करे या मोनेटाइजेशन, केवल इनसानों की जमात पर फर्क पड़ेगा। उसे मालूम हो चुका है कि केवल भेड़ ही धर्मनिरपेक्ष हो सकती है। उसके जीने व मरने की भाषा में देश एक जैसा रहता है। फेक न्यूज पर कारवां बनाने वाले लोग उसकी टोली में कभी कुछ नहीं कर पाएंगे। भेड़ को भी मुगालता है कि इनसानों की भीड़ इनसानों जैसी लगती है, जबकि भेड़ का भीड़ होना जंगल में भी बीहड़ नहीं, लेकिन शहर में इनसानों की भीड़ ही कातिल हो रही है। भीड़ में जनता के भ्रम बढ़ते जा रहे हैं। हर बार चुनाव अपनी ही भीड़ के भ्रम में गुम हो जाता है और फिर नतीजों से निकली भेड़ें खुद को अलहदा रखने की कोशिश में भाषण सुनाती हैं। अब हमारी भेड़ को भी बोलना आ गया है। वह भीड़ की ताकत में खुद को देखती है और यह समझते उसे देर नहीं लगती कि इनसान जिस धर्म की बदौलत भीड़ बनना चाहता है, वह धर्म के बिना कितनी सहज है। हर भेड़ दूसरी को भी भेड़ मानती है, जबकि धर्म के रंग में एक जैसे इनसान कितने दूर और अछूत नजर आते हैं। भेड़ ने मुझे भी अब धर्म के रूप में देखना शुरू किया है, इसलिए उसे भ्रम है कि मैं अब इनसान सरीखा हूं।
निर्मल असो, स्वतंत्र लेखक
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