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By: divyahimachal
करीब एक माह से पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर आग की लपटों में है। टकराव के बाद अब हत्याओं का दौर जारी है। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह कुकी आदिवासियों को ‘उग्रवादी’ करार दे रहे हैं और सुरक्षा बल 40 उग्रवादियों को ढेर कर चुके हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सोमवार से मणिपुर के प्रवास पर हैं, लेकिन उनके आगमन की पूर्व संध्या पर 10 मौतें की जा चुकी हैं। मृतकों में एक महिला और असम पुलिस के दो कमांडो भी शामिल हैं। मणिपुर के विभिन्न जिलों में करीब 400 घर फूंक दिए गए हैं। अकेले कक्चिंग जिले में ही 200 और विष्णुपुर में 150 घर आग की लपटों के शिकार हो गए हैं। गुस्साई और उत्तेजित भीड़ ने 4 विधायकों के घरों पर भी हमले किए हैं। मौत और आगजनी का यह सिलसिला तब है, जब थलसेना अध्यक्ष जनरल मनोज पांडे मणिपुर में ही डेरा डाले हुए हैं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय भी वहां के हालात का जायजा लेने गए थे। इनके अलावा, सुरक्षा बलों और सेना के 36,000 से ज्यादा जवान भी मणिपुर में तैनात किए गए हैं। यह बेहद गंभीर और संवेदनशील मामला है, क्योंकि पूर्वोत्तर के एक राज्य में उग्रवाद इस तरह पनपता और बढ़ता रहा, तो वह दूसरे राज्यों में भी जा सकता है। पूर्वोत्तर ने लंबे समय तक उग्रवाद को झेला है और भारत की मुख्य धारा से वह कटा रहा है। ये टकराव, मारा-काटी और मुठभेड़ राज्य के उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भडक़े हैं, जिसमें न्यायाधीश ने मैतेई समुदाय को ‘अनुसूचित जनजाति’ का दर्जा देने की बात कही थी। हालांकि सर्वोच्च अदालत ने एकल न्यायाधीश की पीठ के ऐसे निर्देश को ‘बिल्कुल गलत’ करार दिया है, लिहाजा उसके बाद हालात शांत और सामान्य होने चाहिए थे, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप और भाजपा नेतृत्व के निर्देशों के बावजूद मणिपुर की आग मद्धिम भी नहीं हुई है।
मैतेई मणिपुर का बहुसंख्यक, हिंदूवादी और वर्चस्ववादी समुदाय है, जो अधिकतर इम्फाल घाटी में बसा है। जो आदिवासी पहाड़ी जिलों के भू-भाग में बसे हैं, उनके साथ मैतेई के संबंधों का इतिहास कड़वा रहा है। कमोबेश मुख्यमंत्री और सरकार को यह आकलन कर लेना चाहिए था कि उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद अशांति, बेचैनी, तनाव और अंतत: अराजकता के हालात बन सकते हैं। प्रशासन और सरकार चलाना बुनियादी तौर पर राजनीतिक कर्म है, लिहाजा कानून-व्यवस्था को बरकरार रखना सरकार का ही दायित्व है। मैतेई समुदाय भाजपा-समर्थक है और सम्पन्न, समृद्ध समाज है। उसी के विधायक सबसे ज्यादा हैं। फिर भी उसे ‘आदिवासी’ का दर्जा चाहिए, ताकि आरक्षण के फायदे बटोरे जा सकें। यह खौफ और डर कुकी, नगा, ज़ूमी आदिवासियों में है, लिहाजा अब वे अपनी नई मांग पर अड़े हैं कि उन्हें पहाड़ी जिलों के लिए ‘पृथक प्रशासनिक तंत्र’ चाहिए। दरअसल मणिपुर के जलते हालात के लिए सिर्फ उच्च न्यायालय का फैसला ही एकमात्र कारण नहीं है। राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी से भागती रही है। वहां भाजपा की सरकार है।
अदालत के फैसले के बाद आदिवासियों की एक सहानुभूति जनसभा ने आग में घी का काम किया। ‘जनजाति’ का दर्जा राज्य सरकार के विशेषाधिकार में नहीं है। केंद्रीय आयोग और गृह मंत्रालय ही कोई निर्णय ले सकते हैं। यह दायित्व केंद्र और राज्य सरकारों का है कि जलते हुए मणिपुर को शांत किया जाए।

Rani Sahu
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