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- भावनाएं लुटाने का
मनीष कुमार चौधरी; ब्रिटेन के साहित्यकार जीके चेस्टरटन ने एक बार कहा था, 'हम सबसे ज्यादा इस बात से डरते हैं कि कहीं हम भावुक न समझ लिए जाएं।' भावनाएं प्रकट करने को अक्सर मनुष्य की कमजोरी समझ लिया जाता है। यह भी माना जाता है कि वह दुनियादार नहीं है। इसलिए ज्यादातर मौकों पर मनुष्य अपनी कोमल भावनाओं को खुद को दुनियादार साबित करने के आवरण के पीछे छिपा लेता है। भावनाशून्य और अनौपचारिक व्यवहार आज परिष्कृत व्यक्तित्व का गुण समझा जाता है। यह सयाना दिखने की चतुराई भर है। पर क्या वाकई ऐसा है?
कहना तो यह चाहिए कि जितना ज्यादा हम भावनाओं को दबाएंगे, उतने ही अव्यावहारिक होते चले जाएंगे। भावनाओं के कंधों पर ही विवाह और परिवार जैसी परंपरागत संस्थाएं टिकी हैं। विवाह के संदर्भ में भावनाओं का वही महत्त्व है, जो व्यापार में साख का। यह भावना ही है, जिसने एक मनुष्य को दूसरे के साथ जोड़ रखा है। सारे रिश्ते-नाते और संबंध वास्तव में भावना की ही देन हैं। भावना की धुरी पर ही जीवन चक्र घूमता है। भावहीन मनुष्य की अवधारणा ही असंभव है।
लगभग हर मानवीय काम के मूल में किसी न किसी की प्रेरणा काम कर रही होती है। यह प्रेरणा भावनाओं के जुड़ाव से ही मिलती है। इन्सुलिन के आविष्कारक डॉ. फ्रेडरिक बैंटिंग बचपन में कनाडा के एक फार्म पर रहा करते थे। जेनी नाम की एक हमउम्र लड़की उनकी अभिन्न मित्र हुआ करती थी। जेनी उनके साथ हाकी और बेसबाल खेलती, स्केटिंग करती, दौड़ लगाती और उनके साथ ही पेड़ों पर चढ़ा करती थी।
फिर गर्मियों में अचानक एक दिन जेनी उनके साथ खेलने नहीं आई। मधुमेह की बीमारी के चलते उसकी मृत्यु हो गई थी। उनका जेनी से इतना भावनात्मक लगाव हो गया था कि फ्रेडरिक इस हादसे को कभी भूल नहीं पाए। बाद में उन्होंने पेशे के रूप में चिकित्सा विज्ञान का क्षेत्र चुना। आज लाखों मधुमेह रोगियों को इसलिए जीवन मिला हुआ है कि फ्रेडरिक को जेनी से भावनात्मक स्नेह था।
केवल ओछे लोग भावनाओं को व्यक्त करने से डरते हैं। महान लोग जिंदगी की तमाम विचित्रताओं और खूबसूरती को जितनी सहजता से लेते हैं, भावनाओं की अभिव्यक्ति भी उनके लिए उतनी ही सहज होती है। भावनाओं से डरने का कारण खंडों में विभाजित हमारी जिंदगी है। हम जिंदगी को समग्रता में न जीकर टुकड़ों में जीते हैं। व्यापारी कहता है कि क्या करें, व्यापार में भावुकता नहीं चलती। भावुकता से तो किसी ग्राहक का दिल नहीं जीता जा सकता। धन तो व्यावहारिकता से ही कमाया जा सकता है।
माना जाता है कि ज्ञान और चिंतन का भी इससे कोई संबंध नहीं है। पर इसके मायने यह नहीं कि व्यावहारिकता के फेर में हमें भावनाओं के ज्वार को नजरअंदाज करना पड़े। ऐसी स्थिति में आत्मविश्लेषण करें। खुद से सवाल करें कि आखिर अपने आप को मैं किससे छिपा रहा हूं और क्यों? यह मेरी सभ्य और चतुर दिखने भर की इच्छा है या मुझे गलत समझ लिए जाने की आशंका? यह भी ठीक है कि भावनाओं में बह जाने से बचना बहुत जरूरी है। पर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि हम व्यर्थ की आशंकाओं और चालाकियों को छोड़ कर जीवन की मधुर और भावोत्प्रेरक चीजों के प्रति जड़ न बने रहें।
प्रकृतिवादी चार्ल्स डार्विन वैज्ञानिक रूप से भावनाओं का अध्ययन करने वाले शुरुआती शोधकर्ताओं में से एक थे। उनका मानना था कि ये भावनाएं ही होती हैं, जो मनुष्यों और जानवरों दोनों को जीवित रहने और प्रजनन करने की अनुमति देती हैं।
एक नए शोध से पता चला है कि हमारी भावनाओं के बारे में यह विश्वास (चाहे वह अच्छा हो या बुरा, नियंत्रित करने योग्य हो या अनियंत्रित) हमें महत्त्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित करते हैं। भावनाएं चाहे सुखद हों या अप्रिय, इस बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं कि हमारे आसपास क्या हो रहा है। बगैर भावनाओं के हम इर्दगिर्द के वातावरण से जुड़ नहीं सकते।
यह आवश्यक नहीं कि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए किसी बड़े अवसर को तलाशा जाए। भावनाओं की गहनतम अभिव्यक्ति प्राय: छोटी-छोटी बातों में ही होती है। जब भी ऐसे अवसर आएं, हमें उन्हें लपक लेना चाहिए और अपनी भावनाओं का इजहार कर देना चाहिए। जैसे महज एक दिन पहले ही मिले किसी मित्र को अनपेक्षित रूप से लिखा गया प्रशंसा भरा पत्र या किसी को मात्र इसलिए दिया गया उपहार कि इसे देख कर मुझे तुम्हारा स्मरण हो आया।
देखा जाए तो किसी की प्रशंसा करना या उसे उपहार देना कोई बड़ी बात नहीं होती। किंतु यह मात्र लेन-देन नहीं होता, इसके पीछे हमारी भावनाएं जुड़ी होती हैं। भावनात्मक अनुभव प्रकृति में सर्वव्यापी हैं, क्योंकि भावना अनुभूति के लगभग हर पहलू को नियंत्रित करती है। यह चेतना के विकास में एक केंद्रीय भूमिका निभाती है। इसलिए जब हमें कभी भावनात्मक सहयोग मिलता है तो यह हमारे लिए उत्प्रेरक का काम भी करता है।