सम्पादकीय

पांच हजार से पैंतालीस हजार करोड़ तक

Rani Sahu
21 Aug 2022 5:51 PM GMT
पांच हजार से पैंतालीस हजार करोड़ तक
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आज यह लिखना भी कुछ अटपटा लग रहा है और शायद पढ़ना भी लगे, लेकिन अब राकेश झुनझुनवाला को ऐसे ही याद किया जाएगा
आलोक जोशी,
एक थे राकेश झुनझुनवाला। आज यह लिखना भी कुछ अटपटा लग रहा है और शायद पढ़ना भी लगे, लेकिन अब राकेश झुनझुनवाला को ऐसे ही याद किया जाएगा। एक हफ्ता ही बीता है बिग बुल, भारत के वॉरेन बफेट, और करोड़ों लोगों को भारत में शेयर बाजार की तरफ खींचने वाले अरबपति निवेशक राकेश झुनझुनवाला को यह दुनिया छोड़े हुए।
अपने-अपने संस्मरण गिनाते हुए लोग बता रहे हैं कि कैसे वह कंपनियां चुनते थे, कैसे निवेश का फैसला करते थे और कैसे वह भारत की तरक्की पर अटूट भरोसा रखते थे। 1986 में पांच हजार रुपये से शुरू करके 2022 में पैंतालीस हजार करोड़ रुपये तक पहुंचने के सफर में इस तरह की यादों की गुंजाइश भी बहुत है। कब उन्होंने किस कंपनी में पैसा लगाया और वह कितना बन गया। इतनी कंपनियां हैं और इतने किस्से हैं कि एक लंबी दास्तान बन जाती है। सुनने वाले हिसाब लगा-लगाकर खुश होते हैं या अफसोस करते हैं कि काश, हमें भी तब पता लग गया होता।
पहली नजर में आप कह सकते हैं कि सिर्फ बासठ साल की जिंदगी में राकेश झुनझुनवाला ने जो दौलत, शोहरत और इज्जत कमाई, वह कम लोगों को नसीब होती है। जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए, उन्हें इसकी जीती-जागती मिसाल भी मान सकते हैं। ऐसा नहीं है कि बाजार की ताकत पहचानने वाले वह पहले इंसान थे। फिर क्या था, जो उन्हें खास बनाता था? भारत के शेयर बाजार की ताकत का अंदाजा लगाने वाले और उसे दुनिया को दिखाने वाले दो बड़े उद्योगपति थे। पहले तो टाटा, जिन्होंने 1907 में टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी यानी टिस्को को शेयर बाजार में उतारा और दूसरे रिलायंस के संस्थापक धीरजलाल हीराचंद अंबानी यानी धीरूभाई। इन दोनों ने अपने-अपने वक्त पर भारत के शेयर बाजार में भरोसा दिखाया और उसके बाद अपनी कंपनियों के काम से निवेशकों को इतना मुनाफा कमाकर दिया कि उससे लोगों को न सिर्फ इन पर, बल्कि शेयर बाजार पर भी भरोसा होने लगा।
टाटा घराने के अधिकृत जीवनी लेखक आर एम लाला उस वक्त का जिक्र करते हैं, जब जमशेदजी के सपनों के हिसाब से इस्पात कारखाने की योजना बन चुकी थी और जगह भी तय हो चुकी थी, 'टाटा ने बियाबान जंगल को जीत लिया था, अब विजय पानी थी पूंजी की दुनिया पर। शुरू-शुरू में सुझाव दिया गया कि परियोजना की विशालता को देखते हुए पूंजी लंदन के मुद्र्रा बाजार से लानी होगी। 1907 में लंदन बाजार का भी खराब दौर चल रहा था और लंदन के पूंजी लगाने वाले पूंजी लगाने के साथ अपना नियंत्रण भी चाहते थे। कुछ कमजोर दिलवालों का ख्याल था कि भारत इतनी ज्यादा पूंजी जुटाने की स्थिति में नहीं होगा। टाटा ने भारतीय शेयर बाजार में ही उतरना तय किया। डेढ़ करोड़ रुपये के साधारण शेयर, 75 लाख के प्रेफरेंशियल शेयर और सात लाख रुपये के डेफर्ड शेयरों के जरिये 2.32 करोड़ रुपये जुटाने के लिए प्रॉस्पेक्टस जारी हुआ। सुबह से देर रात तक बंबई में लोग टाटा के दफ्तर को घेरे रहते थे। तीन हफ्ते के भीतर आठ हजार लोगों ने पूंजी लगाई। भारत के इस पहले महान उद्यम के लिए उसकी छिपी संपदा बाहर आ गई थी।'
Rani Sahu

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