सम्पादकीय

सत्य की प्रयोगशाला में इस 'महामारी' की वैक्सीन को ढूंढें, ना कि कोई और हिंसा के साधन

Gulabi Jagat
26 April 2022 11:15 AM GMT
सत्य की प्रयोगशाला में इस महामारी की वैक्सीन को ढूंढें, ना कि कोई और हिंसा के साधन
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रूस -यूक्रेन युद्ध में अभी तक दोनों तरफ से हजारों सैनिक मारे जा चुके हैं
नंदितेश निलय का कॉलम:
रूस -यूक्रेन युद्ध में अभी तक दोनों तरफ से हजारों सैनिक मारे जा चुके हैं और अगर हम यूएन की रिपोर्ट को मानें तो 3 मिलियन से ज्यादा लोग घर छोड़कर इधर-उधर शरण ले रहे हैं। तो क्या महामारी के वक्त भी हिंसा ही मनुष्य की बुद्धि का साधन और साध्य है? और यह भी हिंसा से कम नहीं है कि विश्व स्तर पर शांति का न कोई दूत है और न वो जनमानस। युद्ध 24 फरवरी को शुरू हुआ और बस चल ही रहा है।
ऐसा नहीं लगता कि पूरे विश्व को फिर से महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को अपनाने की जरूरत है? 8 फरवरी 1922 को, एक हिंसक भीड़ ने चौरी-चौरा में इमारत में आग लगा दी, जहां 22 पुलिस अधिकारी थे। उस समय गृह सचिव ने कहा, यह राज के खिलाफ विद्रोह है। लेकिन महात्मा गांधी के लिए, यह हिंसा ही थी। यहां तक कि उन्होंने हिंसा के लिए आत्म-दंड के रूप में पांच दिनों का उपवास भी किया।
वे अहिंसा के साधनों के साथ प्रयोग कर रहे थे, और उनके लिए साधन उतने ही आवश्यक थे जितने कि साध्य। उनके लिए किसी भी प्रकार की हिंसा का तरीका अस्वीकार्य था। महात्मा गांधी के अनुसार, अहिंसा हमारी प्रजाति का कानून है क्योंकि हिंसा जानवर का कानून है। ताकत शारीरिक क्षमता से नहीं आती है। यह एक अदम्य इच्छाशक्ति से आती है। गांधी विश्व-व्यवस्था में विश्वास करते थे, जहां साध्य की खोज में साधनों का समान महत्व होगा।
मानव-विकास को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कभी भी साधनों से समझौता नहीं किया। जब हम पिछले सत्तर वर्षों के भारत को देखते हैं तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि सर्वोत्तम इरादों के बावजूद कई बार हमने नागरिक से ज्यादा उपभोक्ता बनने की कोशिश की है। उपभोक्तावाद की ऊंची आकांक्षाओं ने नागरिकता के मूल्यों को ढक दिया है। इसने हमें तनावग्रस्त और क्रोधित बना दिया है।
आजकल छोटी-छोटी दलीलें भी हिंसक हो जाती हैं। हम क्या विकसित देश के नागरिक भी बात-बात पर हिंसक हो रहे हैं। चाहे वो स्कूल के बच्चे हों या हॉलीवुड के कलाकार। क्रोध तो मानो पहला परिचय हो गया है। लोग एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि गांधी ने अहिंसा के माध्यम से दुनिया को माना और प्रबुद्ध किया। गांधी ऐसे नेता थे जिन्होंने अलगाव और उदासीनता का दर्द महसूस किया।
गांधी को याद करना शब्दों से नहीं कर्मों में हो सकता है। नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मायर्डल ने विशेष रूप से कहा था कि भारत इतनी सारी परेशानियों के बीच में है और अधिकांश मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है यदि हम गांधी के मार्ग को नहीं भूले होते। इसलिए संस्थाओं को वांछित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने साधनों का चयन करते समय सावधान रहने की आवश्यकता है।
उन साधनों को मानव जाति की एकता, प्रेम, सम्मान, सच्चाई और सेवा की भावना की अपनी दृष्टि प्रस्तुत करनी चाहिए। वे एक सामाजिक व्यवस्था में विश्वास करते थे, जो अहिंसक और न्यायपूर्ण है। आज युद्ध में फंसे विश्व के लिए गांधी की अहमियत और बढ़ गई है, उस अहिंसा और सद्भाव की। भगत सिंह ने अपने पिता किशन सिंह के साथ आखिरी बातचीत में एक जोरदार अपील की थी कि आपको अपने जनरल (गांधी) का समर्थन करना चाहिए। तभी आप देश के लिए आजादी हासिल कर पाएंगे।
रोमां रोलां ने भी उल्लेख किया है कि बड़ी संख्या में सभा में गांधी को उनकी मृदु आवाज के कारण नहीं सुना जा सकता था, लेकिन फिर भी, लोग उनकी बात सुनते थे और वह केवल उनके हावभाव से। लेकिन शायद विश्व भी उनको सुने उन बमों के धमाकों से पहले। और सत्य की प्रयोगशाला में इस महामारी के वैक्सीन को ढूंढे ना कि कोई और हिंसा के साधन। वे ही देश फिर से भारत की ओर देखेंगे और उन गांधीवादी मूल्यों को याद करेंगे जहां साध्य ही साधन और साधन ही साध्य हो जाता है।
उपभोक्तावाद की ऊंची आकांक्षाओं ने नागरिकता के मूल्यों को ढक दिया है। इसने हमें तनावग्रस्त और क्रोधित बना दिया है। आजकल छोटी-छोटी दलीलें भी हिंसक हो जाती हैं। हम क्या विकसित देश के नागरिक भी बात-बात पर हिंसक हो रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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