सम्पादकीय

त्योहारी छुट्टियां या…

Rani Sahu
27 Oct 2021 6:58 PM GMT
त्योहारी छुट्टियां या…
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त्योहारी मौसम में स्कूली शिक्षा को विराम देकर राज्य सरकार ने उस आंकड़ेबाजी को भी संबोधित किया है

त्योहारी मौसम में स्कूली शिक्षा को विराम देकर राज्य सरकार ने उस आंकड़ेबाजी को भी संबोधित किया है, जिसमें कोविड मामलों के कसूरवार खोजने की मुहिम जारी थी। दिवाली तक आठ दिन की छुट्टियां अपने आप में एहतियाती कदम होने के साथ-साथ इस पर्व को मनाने की आचार संहिता भी है। यह इसलिए भी कि जबसे स्कूल खुले थे, छात्रों के पॉजिटिव होने के मामले भी देखे गए, लेकिन अब तक आए 606 पॉजिटिव मामलों में से आधे ठीक भी हो चुके हैं। ऐसे में बहस और आशंका में यह अंतर तो करना होगा कि स्कूली शिक्षा पर यूं ही तलवार न लटकाई जाए। दुर्भाग्यवश सरकार की चुनौती जब सोशल मीडिया की लिखावट बन जाए, तो फैसलों की दरकार में अवांछित कदम भी उठ जाते हैं। ऐसे में वर्तमान छुट्टियों का समारोह अपने आप में बिना लाग लपेट यह कह रहा है कि सर्दियों के शुरुआती सफर में स्कूल इस त्योहारी मौसम की अवहेलना न करें। चाहे स्कूल हों, चुनावी सरगर्मियां हों, शादी समारोह हों या बाजार में बढ़ती रौनक, कोविड प्रोटोकॉल की अवहेलना कतई नहीं होनी चाहिए। अभी स्कूल पूरी तरह नहीं खुले हैं और पांचवीं से सातवीं कक्षा तक छात्रों को वापस बुलाने का निर्णय होना है, फिर भी सतर्क फैसलों की निगहबानी हो रही है। तुलनात्मक दृष्टि से हिमाचल का शिक्षा विभाग एक सीमा के भीतर ही शिक्षा के द्वार खोलता रहा है, लेकिन इसके दूसरे अक्स में छात्र, अभिभावक व शिक्षकों की मानसिक स्थिति का अवलोकन भी जरूरी है।

कोविड शर्तांे का संताप मनाते माहौल के बीच पिछले दो सालों की अनिश्चितता ने इन तमाम वर्गों का मानसिक संतुलन बिगाड़ा है। बच्चों के अलग-अलग आयु वर्ग में शिक्षा की चुनौतियां भी अलग-अलग ही रही हैं। जिन छोटे बच्चों ने शिक्षा में प्रवेश करके भी स्कूल का मुंह नहीं देखा, उनके लिए इसका अभिप्राय क्या होगा या इसी क्रम में अभिभावकों के लिए जीवन की उमंगें किस दबाव में रहीं। कुछ इसी तरह जो बच्चे करियर चुनने की मचान पर खड़े नहीं हो सके या जहां परीक्षा परिणाम कठपुतली बन गए, वहां योग्यता का अयोग्य होना किसी अपराध से कम नहीं। इस दौरान स्कूल और स्कूल में अध्यापक का आचरण ही नहीं, चरित्र भी बदला है। उसे मशीन मॉडल के तहत पाठ्यक्रम को निपटाना पड़ा और यह भी तसदीक करना पड़ा कि छात्रों तक अध्ययन की परिपाटी रसीद हो। जाहिर है इस भारी भरकम प्रयास के बावजूद कोविड काल में स्कूल, अध्यापक और छात्र वर्ग को गौण होना पड़ा। इसी बीच परीक्षाओं की खिचड़ी में उबलते शिक्षा के संकल्पों की नमक हरामी हुई, तो दोष किसे दें। आश्चर्य तो यह कि हिमाचल में सरकारी तौर पर ऐसे भ्रम पैदा हो गए या किए गए कि इस बुरे वक्त में निजी स्कूल अपनी फीसों को लेकर अपराधी हैं, जबकि अपनी अधोसंरचना व छात्र वाहनों की ऋण अदायगी में कई शिक्षण संस्थान बंद हो गए।
शिक्षा में गुणवत्ता की मानवीय तलाश अगर कल तक निजी स्कूल पूरी कर रहे थे, तो आज दो साल बाद अभिभावकों के पास यह प्रमाण भी नहीं बचा, जबकि प्रबंधकों के लिए न जवाबदेही बची और न ही वित्तीय संतुलन। ऐसे में शिक्षा की बेहतरी के लिए शिक्षक, छात्र और अभिभावकों के बीच स्कूल खुले रखने का मतैक्य पैदा हुआ है। स्कूलों का खुला रहना न केवल शिक्षा की गारंटी है, बल्कि वर्तमान दौर के मनोविज्ञान में शिक्षक, छात्र और अभिभावक वर्ग को राहत भी प्रदान करता है। यहां मीडिया की भूमिका में हाय तौबा मचा देने का अनावश्यक प्रयास सर्वथा अगंभीर व गैरजरूरी है। यह दीगर है कि कोविड काल अभी कोई विराम नहीं लगा रहा, बल्कि सचेत कर रहा है। हमारे इर्द-गिर्द के फर्ज, सांस्कृतिक-पारिवारिक जिम्मेदारी, लोकतांत्रिक भूमिका, आजीविका के साधन, राजनीतिक प्राथमिकताएं, व्यापार की जरूरतें तथा जिंदगी का सफर जिस तरह की व्यस्तताएं पेश करता है, उनमें संयम तथा त्वरित कार्रवाई करने का अनुशासन होना चाहिए। किसी शादी समारोह, तीज-त्योहार या बाजार की रौनक से गुजरते समाज के हर वर्ग की चुनौती बरकरार है और वहां स्कूली छात्र भी बराबर होते हैं। किसी छात्र के पॉजिटिव होने के लिए स्कूल को दोषी मानें या सामाजिक व्यवहार में आ रही छूट को गलत ठहराएं। असली मसला कोविड प्रोटोकॉल के निर्वहन का है जो घर से हर सार्वजनिक मंच तक है। ऐसे में स्कूलों मंे दिवाली छुट्टियों के बहाने शिक्षा विभाग ने सुरक्षात्मक रुख अपना कर एक अच्छी व सुलझी हुई पहल की है।

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Rani Sahu

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