सम्पादकीय

जिम्मेदारी का अहसास: पटाखों पर रोक वक्त की नजाकत

Gulabi
12 Nov 2020 3:52 PM GMT
जिम्मेदारी का अहसास: पटाखों पर रोक वक्त की नजाकत
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बिहार चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ है कि कंट्रोल भारतीय जनता पार्टी के हाथ में रहा।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बिहार चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ है कि कंट्रोल भारतीय जनता पार्टी के हाथ में रहा। चुनाव का एजेंडा भले तेजस्वी यादव ने सेट किया पर भाजपा ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। भाजपा का पूरा ध्यान इस पर था कि उसे सबसे बड़ी पार्टी बनना है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि भाजपा आखिर इतने भरोसे में कैसे थी, जो उसने नीतीश कुमार को हरवाने की जोखिम ली? क्या भाजपा अपने वोट आधार को लेकर पूरी तरह से भरोसे में थी और उसे पता था कि भले नीतीश हारें, लेकिन वह जीतेगी? भाजपा ने चुनाव से पहले जैसी राजनीति की और जिस किस्म के नतीजे आए हैं, उससे तो कम से कम यहीं लग रहा है।

ध्यान रहे भाजपा के बड़ी जोखिम ली थी। सबसे पहला जोखिम भाजपा ने यह लिया था कि एनडीए की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी को अलग लड़ने दिया था। भाजपा चाहे जो कहे पर यह हकीकत है कि चिराग पासवान उसके समर्थन से चुनाव लड़े। भाजपा को जिताने और जदयू को हराने के लिए उन्होंने उम्मीदवार उतारे। उन्हें पूरी मदद दी गई। पूरी मदद का मतलब कि उम्मीदवार भी दिए गए, कार्यकर्ता भी दिए गए और संसाधन भी उनके लिए जुटाए गए। भाजपा का यह दांव उलटा भी पड़ सकता था। अगर चिराग पासवान जदयू को नुकसान पहुंचा रहे थे तो जदयू के नेता भाजपा को नुकसान कर सकते थे। पर भाजपा को पता है कि जदयू का कोर वोट भेड़ों का है, जिसे नीतीश एक बार जिधर हांक देंगे वे उधर ही जाएंगे। यानी वे सीटवार तरीके से वोट का फैसला नहीं कर सकते थे। उनके दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि तीर ही कमल है और कमल ही तीर है। सो, भाजपा को यकीन था कि वह वो पूरी तरह से उसको मिलेगा। यह जुआ भाजपा जीत गई।

दूसरा रिस्क भाजपा ने यह लिया था कि बिहार में एंटी इन्कंबैंसी का माहौल बनने दिया था। यहां भी भाजपा को भरोसा था कि सत्ता विरोधी माहौल बनेगा तो उसका नुकसान सिर्फ नीतीश को होगा। ध्यान रहे भाजपा के पास जैसी मशीनरी है और सोशल मीडिया में जिस तरह की मजबूत पकड़ है वह चाहती तो एक दिन में माहौल बदल सकती थी। लेकिन उसने इसे चलने दिया। यह भी कमाल बिहार में हुआ कि भाजपा और जदयू दोनों मिल कर सरकार चलाए, दोनों डबल इंजन की सरकार पर वोट भी मांग रहे हैं पर सत्ता विरोधी लहर का नुकसान सिर्फ एक सहयोगी को हो रहा है। यह भी भाजपा का सोचा-समझा दांव था जो बिल्कुल सटीक निशाने पर लगा। हालांकि इसके बावजूद वह सबसे बड़ी पार्टी बनने से एक-दो सीट से पीछे रह गई। हालांकि इस विधानसभा में वह सबसे बड़ी पार्टी बनने का प्रयास जरूर करेगी और उसका जैसा रिकार्ड रहा है वह कामयाब भी हो जाएगी।

सो, अब सवाल है कि उसके आगे भाजपा क्या करेगी? भाजपा अब बिहार में अपना सामाजिक आधार बड़ा करेगी। ध्यान रहे भाजपा कभी भी बिहार की पार्टी नहीं रही है। भारतीय जनसंघ का भी बिहार में बड़ा आधार नहीं था। जब झारखंड का विभाजन नहीं हुआ था तो बिहार में भाजपा को दक्षिण बिहार यानी मौजूदा झारखंड की पार्टी माना जाता था। उसके जो 40-50 विधायक कभी जीतते थे तो ज्यादातर उसी इलाके से होते थे। तभी जब झारखंड अलग हुआ तो पहली सरकार भाजपा की बनी थी। वह भी नीतीश कुमार की बदौलत ही हुआ था। तब भाजपा नीतीश के साथ मिल कर लड़ी थी और झारखंड में नीतीश की पार्टी के छह विधायकों के समर्थन से उसकी सरकार बनी थी।

असल में बिहार में भाजपा को वैश्यों की पार्टी माना जाता था। जब लालू प्रसाद के उभार के बाद कांग्रेस का पतन हुआ और भूमिहार, ब्राह्मण व राजपूतों ने एक साथ कांग्रेस को छोड़ा तब जाकर भाजपा को थोड़ा वोट आधार मिला। लेकिन वह भी अकेले राजनीति करने के लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि एकीकृत बिहार में सवर्णों की आबादी 12 फीसदी से ज्यादा नहीं थी। तभी भाजपा को हमेशा किसी न किसी कंधे की जरूरत पड़ी। इस काम में नीतीश कुमार का कंधा भाजपा के बहुत काम आया। अब नीतीश के सहारे भाजपा इस मुकाम पर पहुंच गई है और वह नीतीश के बनाए जमीनी आधार और सामाजिक समीकरण के ऊपर नरेंद्र मोदी के चेहरे की मदद से पिछड़ा और अतिपिछड़ा आधार मजबूत कर सके।

वैसे भाजपा की यह राजनीति दोधारी तलवार की तरह है। इसी चुनाव में अगड़ों के बीच यह मैसेज था कि उनके लिए जैसे भाजपा वैसे राजद। इस नैरेटिव का थोड़ा बहुत नुकसान इस बार भाजपा को उठाना पड़ा है। अगर वह पिछड़ों और अतिपिछड़ों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करेगी तो उसके सवर्ण मतदाता नाराज होंगे। ध्यान रहे विभाजन के बाद बिहार में सवर्ण मतदाताओं की संख्या 17-18 फीसदी तक पहुंच गई। यह एक बड़ी संतुलनकारी ताकत है। अगर इसका रूझान राजद और कांग्रेस की ओर गया तो संतुलन बदल सकता है क्योंकि उनके पास पहले से मुस्लिम-यादव का 30 फीसदी का एक मजबूत वोट आधार है। इस बार इसके ऊपर उसे पांच फीसदी वोट मिले हैं। इसमें अतिपिछड़ी जातियां भी हैं और सवर्ण भी।

सो, भाजपा को बहुत संतुलन बनाना होगा। इसके लिए दो रास्ते हैं। या तो साझा नेतृत्व विकसित करे, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि में किया गया है या राजद के कोर वोट यानी यादव वोट का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने की आक्रामक राजनीति करे। दोनों में जोखिम भी है और स्थायी फायदा भी है। अब भाजपा को तय करना है कि वह किस रास्ते पर आगे बढ़ती है। पर इतना तय है कि इस चुनाव ने भाजपा को बिहार में आगे बढ़ने की मजबूत जमीन मुहैया करा दी है।

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