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![सहायता की संवेदना सहायता की संवेदना](https://jantaserishta.com/h-upload/2023/02/11/2534534-24.webp)
पूनम पांडे: अक्सर महसूस किया जा सकता है कि मदद का एक हाथ बढ़ाना यानी जीवन रस से सराबोर करना अपनी दिनचर्या को। हम सभी का मन कहीं न कहीं किसी सपने को टटोलता है। कुछ लोग सिर्फ अपनी आकांक्षा और मृगतृष्णा का पीछा करते हुए कांपते और हांफते रहते हैं, मगर कुछ लोग दूसरों के सपने साकार करने में मददगार बनते हैं। इस तरह अपना होना सार्थक करते हैं। दरअसल, दूसरों के लिए उपयोगी बनना मतलब समूल सृष्टि के हित में वोट देने जैसा है। न जाने क्यों यह परोपकारी भाव बिल्कुल ही लुप्त-सा होता जा रहा है। अगर कहीं है भी तो पूरे आडंबर, अहंकार, ढोल-ढमाके के साथ।
दरअसल, हम अक्सर यह सोचते हैं कि मददगार स्वभाव के चलते हम दूसरों के लिए सुविधा का कारण बन रहे हैं, जबकि सच यह है कि मददगार होने से हमारा मन-मस्तिष्क कई गुना ज्यादा क्रियाशील हो जाता है और उसकी कार्यक्षमता भी बढ़ती है। ऐसे में जो लोग खुदगर्जी का रास्ता अपनाकर मदद करने से बचते हैं, उनके लिए यह चौंकाने वाली खबर है कि मददगार स्वभाव वालों को उनकी तुलना में न केवल अच्छी सेहत, समृद्धि और लंबी उम्र मिलती है, बल्कि मददगार लोग समाज में अत्यंत लोकप्रिय होते हैं।
संसार भर के देशों में ऐसे हजारों शोध हुए हैं, जिनके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मदद करने वाले जो लोग हैं, वे हमेशा दूर से ही नजर आ जाते हैं। उनकी भी अपनी परेशानी है, पर उसके बावजूद मदद मांगने वाले को उनका चमकदार चेहरा, आत्मविश्वास, सकारात्मक ऊर्जा, हंसमुख व्यक्तित्व ही दिखता है, जैसे माता का मुख बच्चे के लिए हमेशा करुणा से भरा।
बस अपने लिए काम करना, अपने लिए ही कमाना और खाना अपने तक सीमित हो कर रह जाने वाली सोच मानवीय सोच नहीं है। यह सही मायने में किसी को भी निराशावादी बना रही है। ऐसे लोगों की ऊर्जा को नकारात्मक कर रही है और यह झगड़ालू स्वभाव का स्रोत है। इसमे कुछ लगता भी नहीं है।
किसी बुजुर्ग को सड़क पार करा देना, किसी के मन की पूरी बात सुन लेना, किसी तनहा व्यक्ति का हालचाल जान लेना, किसी के लिए बस में सीट छोड़ देना, किसी रोते हुए को हंसाना, किसी भूखे को दो रोटी खिला देना, किसी बीमार के लिए प्रार्थना करना, किसी का भी बुरा नहीं सोचना- यह सब मददगार साबित होने की पहली सीढ़ी है और इनमें रुपए-पैसे खर्च नहीं होते हैं।
आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है हल्का-सा ही सही, पर संवाद बनाए रखना, क्योंकि कहीं न कहीं हम सब अपने किसी खोल में सिमट कर रह गए हैं और सांस तक नहीं ले पा रहे हैं। इस तरह हम अपनी मानवीय संवेदनाओं को खो रहे हैं। क्यों न थोड़े से मददगार बन जाएं और मनुष्य होने की आबोहवा, वह अहसास, महक को जिंदा रखें।
यों भी सहायक बनना मानव की संस्कृति, संस्कार की झलक पेश करता है। बहुत बार मदद करने की आदत जीवन के मुहावरे और कहावत तक को बदल देती है और दुआओं का खजाना लुटा देती है। एक दार्शनिक ने कहा है कि 'जो साथ रहने का आनंद नहीं उठा सकता, वह समाज के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकता।' हमारा यह मन एक उपवन है।
हम थोड़ी देर के लिए एक उपवन की कल्पना में डूबे जाएं। क्या उपवन में मात्र सुगंधित पुष्प ही होते हैं? अगर उपवन में सिर्फ फूल होंगे तो यह अधूरा रहेगा। यहां पर पेड़, पौधे, लताएं, नागफनी, झाड़ियां, कीट-पतंग, पशु-पक्षी सभी होने चाहिए। शीतल मंद हवा भी सरसराती रहे तो क्या बात है। आनंद दुगना हो जाएगा। बस यही फलसफा हमारे साथ लागू होता है।
यानी थोड़ी नरमी, थोड़ी गर्मी, जरा-सी तरावट और कभी-कभी सुखावट किसी न किसी को बगैर नफा-नुकसान सोचे बांट दी जाए। बाबा फरीद विद्वान थे और संत भी, मगर वे अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन नहीं करते थे। वे आनंद में मगन होकर नाचते और कहीं कुछ स्वादिष्ट मिल गया तो सबसे साझा करने के बाद चटखारे लेकर खाते भी थे।
एक शिष्य ने इसका रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि दिन के सारे प्रहर एक समान नहीं होते, उसी तरह मैं भी कभी शांत तो कभी चंचल हूं। एक जैसी तो समंदर की लहर भी नहीं होती, कभी हौले-हौले तो कभी तीव्र। फिर मैं कैसे एक समान अवस्था में रह सकता हूं। मैं नियति के चलन के साथ सहयोग कर रहा हूं। यह जवाब सुनने वालों को जीवन में इंद्रधनुषी रंगों के जैसी विविधता का संदेश मिल गया।
जब सबको एक बात अच्छी तरह से मालूम है कि यह जीवन सांसों की माला है। इस माला को हम किस अंदाज में जपते हैं, यह हमारी पहचान है। जरूरी नहीं है कि हमेशा मतलबी और स्वार्थी स्वभाव के साथ ही जीवन की रागिनी को गाया जाए। कभी-कभी कुछ अनपेक्षित भी अगर हो जाए तो इसे जीवन का आनंद समझना चाहिए।
क्रेडिट : jansatta.com
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